पूर्ण मौन ही एक मात्र प्रार्थना

अर्ध रात्रि बीत गई है। एक सभा से लौटा हूं। वहां कोई क रहे थे,'प्रभु को पुकारो। उसका नाम स्मरण करो। निरंतर बुलाने से वह अवश्य सुनता है।'
मुझे याद आया कबीर ने कहा,' क्या ईश्वर बहरा हो गया है?'
शायद कबीर के शब्द उन तक नहीं पहुंचे हैं।
पिुर उन्हें कहते सुना, 'दस आदमी सो रहे हें। किसी ने पुकारा-'देवदत्त।' तो देवदत्त उठ आता है। ऐसे ही प्रभु के संबंध में भी है। उसका नाम पुकारो, वह अवश्य सुनता है।'
उनकी बातें सुन मुझे हंसी आने लगी थी। प्रथम तो यह कि प्रभु नहीं, हम सो रहे हैं। वह तो नित्य जाग्रत है। उसे नहीं, वरन् हमें जागना है। फिर सोए हुए जाग्रत को जगावें, तो बड़े मजे की बात है। उसे पुकारना नहीं, उसकी ही पुकार हमें सुननी है। यह मौन में होगा- परिपूर्ण निस्तरंग चित्त में होगा। जब चित्त में कोई ध्वनि नहीं है, तब उसका नाद उपलब्ध होता है।
पूर्ण मौन ही एक मात्र प्रार्थना है। प्रार्थना कुछ करना नहीं है, वरन् जब चित्त कुछ भी नहीं कह रहा है, तब वह प्रार्थना में है।
प्रार्थना क्रिया नहीं अवस्था है।
द्वितीय, प्रभु का कोई नाम नहीं है, न उसका कोई रूप है। इसलिए उसे बुलाने और स्मरण करने का कोई उपाय भी नहीं है। सब नाम, सब रूप कल्पित हैं। वे सब मिथ्या हैं। उनसे नहीं, उन्हें छोड़कर सत्य तक पहुंचना होता है।
जो सब छोड़ने का साहस करता है, वह उसे पाने की शर्त पूरी करता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

1 comment:

मीनाक्षी said...

पूर्ण मौन ही एक मात्र प्रार्थना है। . सच कहा है..ऐसा अनुभव मुझे इरान के मशद शहर की इमाम रज़ा की मस्जिद में हुआ था... मौन प्रार्थना बन गई थी... हालाँकि आँखें बरस कर शोर कर रही थी...लेकिन उस मौन प्रार्थना का अनुभव आज भी महसूस कर सकती हूँ.