मनुष्य जिसे जगत कहता है, वह सत्ता की सीमा नहीं है। वह केवल मनुष्य की इंद्रियों की सीमा है। इन इंद्रियों के पार असीम विस्तार है। इस असीम को इंद्रियों से कभी भी पूरा-पूरा नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि इंद्रियां खण्ड को देखती हैं, अंश को देखती हैं और जो असीम है, अनंत है, वह खण्डित और विभाजित नहीं होता है। जो असीम है, उसे मापने के लिए कोई सीमित साधन काम नहीं दे सकता है।
जो असीम है, वह केवल असीम से ही पकड़ा जा सकता है। और जिन्होंने उसे जाना है, उन्होंने इंद्रियों से, बुद्धि से नहीं- स्वयं असीम होकर उसे जाना है। यह संभव है, क्योंकि इस क्षुद्र और सीमित दिखते मनुष्य में असीम भी उपस्थिति है। इंद्रियों पर उसकी परिसमाप्ति नहीं है। वह इंद्रियों में है, पर इंद्रियां ही नहीं हैं। वह इंद्रियातीत आयाम में फैला हुआ है। वह जितना दिखता है, वहां उसकी समाप्ति-सीमा नहीं, शुरुआत है। वह अदृश्य है। दृश्य के घेरे में अदृश्य बैठा हुआ है। इस अदृश्य को वह अपने भीतर पा ले, तो जगत के समस्त अदृश्यों को पा लेता है।
क्योंकि समस्त भाग और खण्ड दृश्य के हैं। अदृश्य अखंडित है। एक और अनेक वहां एक ही हैं और इसलिए एक को पा लेने से सबको पा लिया जाता है।
कहा है महावीर ने, 'जे एगम जाणई से सव्वम जाणई' एक को जाना कि सब को जाना। वह एक भीतर है। यह दृश्य नहीं दृष्टा है। इससे पाने का मार्ग आंख नहीं है। आंख बंद करना इसका मार्ग है। आंख बंद करने का अर्थ है, दृश्य से मुक्ति। आंख बंद हों और भीतर दृश्य बहते हों, तो आंख खुली ही है। दृश्य दृष्टि में न हो और आंख खुली हो, तो भी आंख बंद है। दृश्य न हो और केवल दृष्टिं, केवल दर्शन रह जाये तो द्रष्टा प्रकट हो जाता है।
जिस दर्शन में द्रष्टा दिखे, वह सम्यक दर्शन है। यह दर्शन जब तक नहीं, तब तक मनुष्य अंधा होता है। आंखें होते हुए भी आंख नहीं होती हैं। इस दर्शन से चक्षु मिलते हैं- वास्तविक चक्षु, इंद्रियातीत चक्षु। सीमाएं मिट जाती हैं, रेखाएं मिट जाती हैं ओर जो है- आदि-अंतहीन विस्तार, ब्रह्मं- वह उपलब्ध होता है।
यह उपलब्धि ही मुक्ति है। क्योंकि प्रत्येक सीमा बंधन है, प्रत्येक सीमा परतंत्रता है। सीमा से ऊपर होना स्वतंत्रता होना है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
जो असीम है, वह केवल असीम से ही पकड़ा जा सकता है। और जिन्होंने उसे जाना है, उन्होंने इंद्रियों से, बुद्धि से नहीं- स्वयं असीम होकर उसे जाना है। यह संभव है, क्योंकि इस क्षुद्र और सीमित दिखते मनुष्य में असीम भी उपस्थिति है। इंद्रियों पर उसकी परिसमाप्ति नहीं है। वह इंद्रियों में है, पर इंद्रियां ही नहीं हैं। वह इंद्रियातीत आयाम में फैला हुआ है। वह जितना दिखता है, वहां उसकी समाप्ति-सीमा नहीं, शुरुआत है। वह अदृश्य है। दृश्य के घेरे में अदृश्य बैठा हुआ है। इस अदृश्य को वह अपने भीतर पा ले, तो जगत के समस्त अदृश्यों को पा लेता है।
क्योंकि समस्त भाग और खण्ड दृश्य के हैं। अदृश्य अखंडित है। एक और अनेक वहां एक ही हैं और इसलिए एक को पा लेने से सबको पा लिया जाता है।
कहा है महावीर ने, 'जे एगम जाणई से सव्वम जाणई' एक को जाना कि सब को जाना। वह एक भीतर है। यह दृश्य नहीं दृष्टा है। इससे पाने का मार्ग आंख नहीं है। आंख बंद करना इसका मार्ग है। आंख बंद करने का अर्थ है, दृश्य से मुक्ति। आंख बंद हों और भीतर दृश्य बहते हों, तो आंख खुली ही है। दृश्य दृष्टि में न हो और आंख खुली हो, तो भी आंख बंद है। दृश्य न हो और केवल दृष्टिं, केवल दर्शन रह जाये तो द्रष्टा प्रकट हो जाता है।
जिस दर्शन में द्रष्टा दिखे, वह सम्यक दर्शन है। यह दर्शन जब तक नहीं, तब तक मनुष्य अंधा होता है। आंखें होते हुए भी आंख नहीं होती हैं। इस दर्शन से चक्षु मिलते हैं- वास्तविक चक्षु, इंद्रियातीत चक्षु। सीमाएं मिट जाती हैं, रेखाएं मिट जाती हैं ओर जो है- आदि-अंतहीन विस्तार, ब्रह्मं- वह उपलब्ध होता है।
यह उपलब्धि ही मुक्ति है। क्योंकि प्रत्येक सीमा बंधन है, प्रत्येक सीमा परतंत्रता है। सीमा से ऊपर होना स्वतंत्रता होना है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
2 comments:
आभार एवं साधुवाद इसे पेश करने के लिये.
क्योंकि प्रत्येक सीमा बंधन है,प्रत्येक सीमा परतंत्रता है।
सीमा से ऊपर होना स्वतंत्रता होना है।
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रूपांतरण को प्रेरित करती
अंतरंग अभिव्यक्ति.
प्रस्तुति के लिए आभार !
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