गौतम बुद्ध ने चार आर्य सत्य कहे हैं- दुख, दुख का कारण, दुख-निरोध और दुख-निरोध का मार्ग। जीवन में दुख है। दुख का कारण है। इस दुख का निरोध हो सकता है और दुख-निरोध का मार्ग है।
मैं पांचवां आर्य सत्य भी देखता हूं। और यह पांचवां इन चारों के पूर्व है। वह है, इसलिये ये चारों हैं। वह न हो, तो ये चारों भी नहीं रह सकते हैं।
यह पांचवां या प्रथम आर्य-सत्य क्या है?
वह सत्य है-दुख के प्रति मूच्र्छा। दुख है, पर हम उसके प्रति मूिर्च्छत हैं। इस मूच्र्छा से ही वह हमें दिखता नहीं है। इस मूच्र्छा से ही हम उसमें होते हैं, पर वह हमें संतप्त नहीं करता है। इस धुंधली सी बेहोशी में, तंद्रा में जीवन बीतता है और जो दुख था, वह झेल लिया जाता है।
इस मूच्र्छा में, अचेतन में-जो है, वह आंख में नहीं आता है और जो नहीं है, उसके स्वप्न चलते रहते हैं। वर्तमान के प्रति अंधापन होता है और भविष्य में दृष्टिं बनी रहती है। भविष्य के सुखद स्वप्नों के नशे में वर्तमान का दुख डूबा रहता है। इस विधि से दुख दिखता नहीं है और उसके पार उठने का प्रश्न भी नहीं उठता है।
एक कैदी को यदि अपने कारागृह की दीवारों और जंजीरों का बोध ही न हो, तो उसमें मुक्ति की आकांक्षा पैदा होने का प्रश्न ही कहां रहता है?
इससे इस सत्य को कि हम दुख के प्रति मूिर्च्छत हैं-जीवन दुख है, यह सत्य हमारी चेतना में नहीं है- इसे मैं प्रथम आर्य-सत्य कहता हूं। शेष चारों बाद में आते हैं। दुख के प्रति मेरे जागते ही उनका दर्शन होता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
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