सूर्योदय से बस पंद्रह मिनट पहले, जब आकाश में हलका सा प्रकाश फैलने लगे, तब सिर्फ देखें और प्रतीक्षा करें। जैसे कि कोई अपने प्रियतम की प्रतीक्षा करता है- व्यग्रता से, गहरी प्रतीक्षा में, आशा से भरे हुए और उत्तेजित- लेकिन फिर भी शांत। और, बस सूरज को उगने दें और देखते रहें। अपलक देखने की कोई जरूरत नहीं, आप अपनी पलकें झपका सकते हैं। बस सूरज को उगते देखते रहें ओर ऐसा भाव करें कि साथ ही कोई चीज भीतर भी उग रही है। जब सूरज क्षितिज पर आए, तब भाव करें कि वह प्रकाश-बिंदु नाभि के पास ही है। वहां सूरज क्षितिज पर ऊपर आ रहा है और यहां, नाभि के भीतर, वह ऊपर आ रहा है, धीरे-धीरे ऊपर आ रहा है। वहां सूर्योदय हो रहा है और यहां प्रकाश का एक अंतर्बिदु उदय हो रहा है। बस दस मिनट काफी है। फिर अपनी आंखें बंद कर लें। जब पहले आप सूरज को खुली आंखों से देखते हैं, तो उसका एक प्रतिचित्र, 'निगेटिव' बनता है, इसलिए जब आप अपनी आंखें बंद कर लेते हैं, तो आप सूरज को भीतर जगमगाते हुए देख सकते हैं। और यह आपको बहुत ही आश्चर्यजनक रूप से बदल देगा।
सूर्योदय से पहले पांच बजे उठ जाएं और आधे घंटे तक बस गाएं, गुनगुनाएं, आहें भरें, कराहें। इन आवाजों का कोई अर्थ होना जरूरी नहीं है- ये अस्ति्वगत होनी चाहिए, अर्थपूर्ण नहीं। इनका आनंद लें, इतना काफी है- यही इनका अर्थ है। आनंद से झूमें। इसे उगते सूरज की स्तुति बनने दें और तभी रुकें जब सूरज उदय हो जाए।
इससे दिन भर भीतर एक लय बनी रहंगी। सुबह से ही आप एक लयबद्धता अनुभव करेंगे और आप देखेंगे कि पूरे दिन का गुणधर्म ही बदल गया है- आप ज्यादा प्रेमपूर्ण, ज्यादा करुणापूर्ण, ज्यादा जिम्मेवार, ज्यादा मैत्रीपूर्ण हो गए हैं; और आप अब कम हिंसक, कम क्रोधी, कम महत्वाकांक्षी, कम अहंकारी हो गए हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
ध्यान से पहले-
इससे पहले कि व्यक्ति ध्यान करे, उसे सीखना चाहिए अपनी देह के साथ कैसे प्रेम किया जाता है, कैसे उसकी परवाह की जाती है। अब तक आध्यात्मिकता का मतलब यही था कि देह तो दुश्मन है। यह सीख रगों में गहरे घुस कर बैठ गई है।
ओशो ने देह की ओर रुख मोड दिया। वे कहते हैं कि अवचेतन में कहीं गहरे बैठ चुके इस सबक ने लगभग सभी को देह के खिलाफ कर दिया है। देह को प्रेम करने के विचार तक से हमें शर्मिंदगी होती है, अजीब लगता है। लेकिन, अगर आप देह से प्रेम करना शुरू करें तो उससे इतना मजा आएगा, इतना सुख मिलेगा कि हो सकता है कि अस्तित्व के नये आयाम खुल जाएं।
अपने सुख को दूसरे पर निर्भर मत रहने दें। पेड़ के नीचे खाली बैठे हैं तो भी प्रसन्न रहेंे। यह जरा कठिन लगता है कि उस समय भी प्रसन्न कैसे रहा जाए जब प्रसन्न होने का कोई कारण न हो। आम तौर से हम किसी कारण से ही प्रसन्न होते हैं। जब कोई दोस्त आता है तो प्रसन्न हो जाते हैं। लेकिन बिना किसी कारण के होनेवाली प्रसन्नता में मस्ती होती है। प्रसन्नता का कोई दृश्य कारण नहीं होता, यह तो अपने भीतर से फूटने वाला झरना है।
1 comment:
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