संसार दर्पण है!


फूलों को सारा जगत फूल है और कांटों को कांटा। जो जैसा है, वैसा ही दूसरे उसे प्रतीत होते हैं। जो स्वयं में नहीं है, उसे दूसरों में देख पाना कैसे संभव है! सुंदर को खोजने, चाहे हम सारी भूमि पर भटक लें, पर यदि वह स्वयं के ही भीतर नहीं है, तो उसे कहीं भी पाना असंभव है।
एक अजनबी किसी गांव में पहुंचा। उसने उस गांव के प्रवेश द्वार पर बैठे एक वृद्ध से पूछा, ''क्या इस गांव के लोग अच्छे और मैत्रिपूर्ण हैं?'' उस वृद्ध ने सीधे उत्तर देने की बजाय स्वयं ही उस अजनबी से प्रश्न किया, ''मित्र, जहां से तुम आते हो वहां के लोग कैसे हैं?'' अजनबी दुखी और क्रुद्ध हो कर बोला, ''अत्यंत क्रूर, दुष्ट और अन्यायी। मेरी सारी विपदाओं के लिए उनके अतिरिक्त और कोई जिम्मेवार नहीं। लेकिन आप यह क्यों पूछ रहे हैं?'' वृद्ध थोड़ी देर चुप रहा और बोला, ''मित्र, मैं दुखी हूं। यहां के लोग भी वैसे ही हैं। तुम उन्हें भी वैसा ही पाओगे।''
वह व्यक्ति जा भी नहीं पाया था कि एक दूसरे राहगीर ने उस वृद्ध से आकर पुन: वही बात पूछी, ''यहां के लोग कैसे हैं?'' वह वृद्ध बोला, ''मित्र क्या पहले तुम बता सकोगे कि जहां से आते हो, वहां के लो कैसे हैं?'' इस प्रश्न को सुन यह व्यक्ति आनंदपूर्ण स्मृतियों से भर गया। और उसकी आंखें खुशी के आंसुओं से गीली हो गई। वह बोलने लगा, ''आह, बहुत प्रेमपूर्ण और बहुत दयालू, मेरी सारी खुशियों के कारण वे ही थे। काश, मुझे उन्हें कभी भी न छोड़ना पड़ता!'' वह वृद्ध बोला,''मित्र, यहां के लोग भी बहुत प्रेमपूर्ण हैं, इन्हें तुम उनसे कम दयालु नहीं पाओगे, ये भी उन जैसे ही हैं। मनुष्य-मनुष्य में बहुत भेद नहीं है।''
संसार दर्पण है। हम दूसरों में जो देखते हैं, वह अपनी ही प्रतिक्रिया होती है। जब तक सभी में शिव और सुंदर के दर्शन न होने लगें, तब तक जानना चाहिए कि स्वयं में ही कोई खोट शेष रह गई है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाडंडेशन)

4 comments:

Udan Tashtari said...

जय श्री श्री ओशो!! जय हो!

E-Guru Maya said...

ओशो प्रभु के वचन सबसे अलग और अनमोल हैं. साथ ही वे आज के समाज के मानव का प्रतिनिधित्व करते हैं.

Anonymous said...

Great thoughts....

1008vishnubaba said...

A realy great thought for a change in life...