ध्यान- सृजन में डूब जाएं!


कला एक ध्यान है। कोई भी कार्य ध्यान बन सकता है, यदि हम उसमें डूब जाएं। तो एक तकनीशियन मात्र मत बने रहें। यदि आप केवल एक तकनीशियन हैं, तो पेंटिंग कभी ध्यान नहीं बन पाएगी। हमें पेंटिंग में पूरी तरह डूबना होगा, पागल की तरह उसमें खो जाना पड़ेगा। इतना खो जाना पड़ेगा कि हमें भी खबर न रह जाए कि हम कहां जा रहे हैं, कि हम क्या कर रहे हैं कि हम कौन हैं!
यह पूरी तरह खो जाने की स्थिति ही ध्यान होगी। इसे घटने दें। चित्र हम न बनाएं, बल्कि बनने दें। और, मतलब यह नहीं है कि हम आलसी हो जाएं। नहीं, फिर तो वह कभी नहीं बनेगा। यह हम पर उतरना चाहिए, हमें परी तरह सक्रिय होना है और फिर भी कर्ता नहीं बनना है। यह पूरी कीमिया है, यह पूरी कला है- हमें सक्रिय होना है, लेकिन फिर भी कर्ता नहीं बनना है।
कैनवास के पास जाएं। कुछ मिनटों के लिए ध्यान में उतर जाएं, कैनवास के सामने शांत हो कर बैठ जाएं। यह 'सहज लेखन' जैसा होना चाहिए, जिसमें पैन अपने हाथ में लेकर हम शांत बैठ जाते हैं और अचानक हाथ में एक स्पंदन सा महसूस होता है। हमने कुछ किया नहीं, हम भलीभांति जानते हैं। हम तो सिर्फ शांत-मौन प्रतीक्षा कर रहे थे। एक स्पंदन सा होता है और हाथ चलने लगता है, कुछ उतरने लगता है।
उसी तरह से हमें पेंटिंग शुरू करनी चाहिए। कुछ मिनटों के लिए ध्यान में डूब जाएं, सिर्फ उपलब्ध रहें- कि जो भी होगा, हम उसे होने देंगे। हम अपनी सारी प्रतिभा, सारी कुशलता का उपयोग, जो भी होगा, उसे होने देंगे।
इस भाव दशा के साथ-साथ ब्रश उठाएं और शुरू करें। आहिस्ता शुरू करें, ताकि आप बीच में न आएं। बहुत आहिस्ता शुरू करें। जो भी भीतर से बहे, बहने दें और उसमें लीन हो जाएं। शेष सब भूल जाएं। कला सिर्फ कला के लिए ही हो, तभी वह ध्यान है। उसका कोई और लक्ष्य नहीं होना चाहिए। और, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि हम पेंटिंग बेचे नहीं या उसका प्रदर्शन न करें- वह बिलकुल ठीक है। पर बाई-प्राडक्ट है। वह उसका उद्देश्य नहीं है। भोजन की जरूरत है, तो पेंटिंग बेचनी भी पड़ती है। हालांकि बेचने में पीड़ा होती है, यह अपना बच्चा बेचने जैसा ही है। मगर जरूरत है, तो ठीक है। दुख भी होता है, लेकिन वह उद्देश्य नहीं था, बेचने के लिए चित्र नहीं बनाया गया था। वह बिक गया- यह बिलकुल दूसरी बात है- लेकिन बनाते समय कोई उद्देश्य नहीं है। नहीं तो हम तकनीशियन ही रह जाएंगे।
हमें तो मिट जाना चाहिए। हमें मौजूद रहना चाहिए। जो भी हम कर रहे हों, उसमें बिना किसी नियंत्रण कि हमें पूरी तरह खो जाना चाहिए।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

4 comments:

ab inconvenienti said...

जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ .................. सत्य

ALOK PURANIK said...

जय जोशो त्यागीजी। ऊंची बात खींच दी है शिरमानजी ने।

मीनाक्षी said...

यह सच कहा है..... कभी कभी छोटा बेटा इसी तरह से मग्न होकर चित्र बनाता है तो हैरानी होती है... ध्यान लगाना सबसे महत्त्वपूर्ण है.

Udan Tashtari said...

जय ओशो!!!