ध्यान- शांत प्रतीक्षा!


कई बार ऐसा होता है कि ध्यान पास ही होता है, पर हम दूसरी चीजों में व्यस्त होते हैं। वह सूक्ष्म आवाज हमारे भीतर ही है, लेकिन हम निरंतर शोर से, व्यस्तताओं से, जिम्मेवारियों से, कोलाहल से भरे हुए हैं। और ध्यान आता है, एक फुसफुसाहट की तरह, वह नारे लगाते हुए नहीं आता, वह बहुत ही चुपचाप आता है। वह कोई शोरगुल नहीं करता। उसके कदमों की आहट भी सुनाई नहीं पड़ती। यदि हम व्यस्त हैं, तो वह प्रतीक्षा करता है और लौट जाता है।
तो एक बात तय कर लें कि कम से कम एक घंटा रोज शांत बैठें और उसकी प्रतीक्षा करें। कुछ मत करें, बस आंखें बंद करके शांत बैठ जाएं- गहन प्रतीक्षा में, एक प्रतीक्षारत् हृदय के साथ, एक खुले हृदय के साथ। सिर्फ प्रतीक्षा करें कि यदि कुछ घटे तो हम उसका स्वागत करने के लिए तैयार हों। यदि कुछ न घटे तो निराश न हों। कुछ न घटे तो भी एक घंटा बैठना अपने आप में विश्रामदायी है। वह हमें शांत करता है, स्वस्थ करता है, तरोताजा करता है और हमें जड़ों से जोड़ता है।
लेकिन धीरे-धीरे झलकें मिलने लगती हैं और एक तालमेल बैठने लगता है। हम किसी विशेष स्थिति में, विशेष कमरे में, विशेष स्थिति में प्रतीक्षा करते हैं, तो झलकें ज्यादा-ज्यादा आती हैं। वे कहीं बाहर से नहीं आती हैं, वे तुम्हारे अंतर्तम केंद्र से आती हैं। लेकिन जब अंतर्चेतना जानती है कि बाह्य चेतना उसके लिए प्रतीक्षारत है, तो मिलन की संभावना बढ़ जाती है।
किसी वृक्ष के नीचे बस बैठ जाएं। हवा चल रही है और वृक्ष के पत्तों में सरसराहट हो रही है। हवा आपको छू रही है, आपके आसपास बह रही है, आपको छूकर गुजर रही है। लेकिन हवा को सिर्फ अपने आसपास ही मत गुजरने दें, उसे अपने भीतर से होकर भी गुजरने दें, अपने भीतर से बहने दें। अपनी आंखें बंद कर लें और महसूस करें कि जैसे हवा वृक्षों से होकर गुजरती है और पत्तों की सरसराहट होती है, वैसे ही आप भी एक वृक्ष की भांति हैं, खुले और हवा आपसे होकर बह रही है- आसपास से नहीं बल्कि सीधे आपसे होकर बह रही है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)




1 comment:

मीनाक्षी said...

सत्य वचन.. व्यस्त जीवन में एक घंटा शांत भाव से ध्यान मे बिताना ज़रूरी है तभी आगे बढने की उर्जा मिलेगी.