जीवन को लक्ष्य दो, हृदय को महत्वाकांक्षा!


किसी ने पूछा, ''महत्वाकांक्षा के संबंध में आपका क्या विचार है?'' मैंने कहा, ''बहुत कम लोग होते हैं, जो कि सचमुच महत्वाकांक्षी होते हैं। क्षुद्र से तृप्त हो जाने वाले महत्वाकांक्षी नहीं हैं। विराट को जो चाहते हैं, वे ही महत्वाकांक्षी हैं। और फिर, हम सोचते हैं कि महत्वाकांक्षा अशुभ है। मैं कहता हूं, नहीं। वास्तविक महत्वाकांक्षा बुरी नहीं है, क्योंकि वही मनुष्य को प्रभु की ओर ले जाती है।''
बहुत दिन हुए एक युवक से मैंने कहा था, ''जीवन को लक्ष्य दो और हृदय को महत्वाकांक्षा। ऊंचाइयों के स्वप्नों से स्वयं को भर लो। बिना एक लक्ष्य के तुम व्यक्ति नहीं बन सकोगे, क्योंकि उसके अभाव में तुम्हारे भीतर एकता पैदा नहीं होगी और तुम्हारी शक्तियां बिखर जाएंगी। अपनी सारी शक्तियों को इकट्ठा कर जो किसी लक्ष्य के प्रति समर्पित हो जाता है, वही केवल व्यक्तित्व को उपलब्ध होता है। शेष सारे लोग तो अराजक भीड़ों की भांति होते हैं। उनके अंतस के स्वर स्व-विरोधी होते हैं और उनके जीवन से कभी कोई संगीत नहीं पैदा हो पाता। और, जो स्वयं में ही संगीत न हो, उसे शांति नहीं मिलती है और न शक्ति। शांति और शक्ति एक ही सत्य के दो नाम हैं।''
वह पूछने लगा, ''यह कैसे होगा?'' मैंने कहा, ''जमीन में दबे हुए बीज को देखो। वह किस भांति सारी शक्तियों को इकट्ठा कर भूमि के ऊपर उठता है। सूर्य के दर्शन की उसकी प्यास ही उसे अंकुर बनाती है। उस प्रबल इच्छा से ही वह स्वयं को तोड़ता है और क्षुद्र के बाहर आता है। वैसे ही बनो। बीज की भांति बनो। विराट को पाने को प्यासे हो जाओ और फिर सारी शक्तियों को इकट्ठा कर ऊपर की ओर उठो। और फिर एक क्षण आता है कि व्यक्ति स्वयं को तोड़कर, स्वयं को पा लेता है।''
जीवन के चरम लक्ष्य को - स्वयं को और सत्य को पाने को- जो स्मरण रखता है, वह कुछ भी पाकर तृप्त नहीं होता। ऐसी अतृप्ति सौभाग्य है, क्योंकि उससे गुजरकर ही कोई परम तृप्ति के राज्य को पाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

3 comments:

Udan Tashtari said...

आनन्द आ गया. जय हो!!

ALOK PURANIK said...

जय जोशोजी,
आप इत्ती समझदारी की बात सामने रखते हैं
आप वही वाले त्यागीजी हैं क्या। किंचित शक सा होता है।

मीनाक्षी said...

स्वयं को पाने की कोशिश एक आशा का भाव पैदा करता है...