मन कचरा है! ऐसा नहीं है कि आपके पास कचरा है और दूसरों के पास नहीं है। मन ही कचरा है। और अगर आप कचरा बाहर भी फेंकते रहें, तो जितना चाहे फेंकते रह सकते हैं, लेकिन यह कभी खतम होने वाला नहीं है। यह खुद ही बढ़ने वाला कचरा है। यह मुर्दा नहीं है, यह सक्रिय है। यह बढ़ता रहता है और इसका अपना जीवन है, तो अगर हम इसे काटें तो इसमें नई पत्तियां प्रस्फुटित होने लगती हैं।
तो इसे बाहर निकालने का मतलब यह नहीं है कि हम खाली हो जाएंगे। इससे केवल इतना बोध होगा कि यह मन, जिसे हमने अपना होना समझ रखा था, जिससे हमने अब तक तक तादात्म्य बना रखा था, यह हम ही हैं। इस कचरे को बाहर निकालने से हम प्रथकता के प्रति सजग होंगे, एक खाई के प्रति, जो हमारे और इसके बीच है। कचरा रहेगा, लेकिन उसके साथ हमारा तादात्म्य नहीं रहेगा, बस। हम अलग हो जाएंगे, हम जानेंगे कि हम अलग हैं।
तो हमें सिर्फ एक चीज करनी है- न तो कचरे से लड़ने की कोशिश करें और न उसे बदलने की कोशिश करें- सिर्फ देखें! और, स्मरण रखें, 'मैं यह नहीं हूं।' इसे मंत्र बना लें : 'मैं यह नहीं हूं।' इसका स्मरण रखें और सजग रहें और देखें कि क्या होता है।
तत्क्षण एक बदलाहट होती है। कचरा अपनी जगह रहेगा, लेकिन अब वह हमारा हिस्सा नहीं रह जाता। यह स्मरण ही उसका छूटना हो जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
1 comment:
Shukriya. Osho aur Dhyan ko hindi mein samjhna jyada aasaan hai.
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