पहली तो बात यह है कि बच्चों को कैसा बनाया जाए, इसकी बजाय हमेशा यह सोचना चाहिए, खुद को कैसा बनाया जाए। हमेशा हम यह सोचते हैं कि दूसरों को कैसा बनाया जाए। और मैं यह भी आपसे कहूं कि वही व्यक्ति यह पूछता है कि दूसरों को कैसा बनाया जाए, जो खुद ठीक से बनने में असमर्थ रहा है। अगर उसके खुद के व्यक्तित्व का ठीक-ठीक निर्माण हुआ हो, तो जीवन के जिन सूत्रों से उसने खुद को निर्मित किया है, खुद के जीवन में शांति को, स्वयं को पाने की दिशा खोजी है, खुद के जीवन में संगीत पाया है, उन्हीं सूत्रों से, उन्हीं सूत्रों के आधार पर, वह दूसरों के निर्माण के लिए भी अनायास अवसर बन जाता है।
लेकिन हम पूछते हैं कि बच्चों को कैसे बनाया जाए?
इसके पीछे पहली तो बात यह समझ लें कि आपकी बनावट कमजोर होगी, ठीक न होगी। और यह भी समझ लें कि किसी दूसरे को बनाना डायरेक्टली सीधे-सीधे असंभव है। हम जो भी कर पाते हैं दूसरों के लिए, वह बहुत इनडायरेक्ट, बहुत परोक्ष, बहुत पीछे के रास्ते से होता है, सामने के रास्ते से नहीं।
कोई मां अपने बच्चों को बनाना चाहे किसी खास ढंग का-अंतर्मुखी बनाना चाहे, सत्यवादी बनाना चाहे, चरित्रवान बनाना चाहे, परमात्मा की दिशा में ले जाना चाहे-तो इस भूल में कभी न पड़े कि वह सीधे-सीधे बच्चे को परमात्मा की दिशा में ले जा सकती है। क्योंकि जब भी हम किसी व्यक्ति को किसी दिशा में ले जाने लगते हैं, उसका अहंकार, उस व्यक्ति का अहंकार-चाहे वह छोटा बच्चा ही क्यों न हो-हमारे विरोध में खड़ा हो जाता है। क्योंकि दुनिया में कोई भी घसीटा जाना पसंद नहीं करता, छोटा बच्चा भी नहीं करता। जब हम उसे ले जाने लगते हैं कहीं और, कुछ बनाने लगते हैं, तब उसके भीतर उसकी अहंता, उसका अहंकार, उसका अभिमान हमारे विरोध में खड़ा हो जाता है। वह सख्ती से इस बात का विरोध करने लगता है। क्योंकि यह बात उसे आक्रामक, एग्रेसिव मालूम पड़ती है। इसमें आक्रमण है। और इस आक्रमण का वह विरोध करने लगता है। छोटा बच्चा है, जैसे उससे बनता है वह विरोध करता है। जिस-जिस बात के लिए इनकार किया जाता है, वही-वही करने को उत्सुक होता है। जिस-जिस बात से निषेध किया जाता है, वहीं-वहीं जाता है। जिन-जिन रास्तों पर रुकावट डाली जाती है, वे ही रास्ते उसके लिए आकर्षक हो जाते हैं।
जारी::::
लेकिन हम पूछते हैं कि बच्चों को कैसे बनाया जाए?
इसके पीछे पहली तो बात यह समझ लें कि आपकी बनावट कमजोर होगी, ठीक न होगी। और यह भी समझ लें कि किसी दूसरे को बनाना डायरेक्टली सीधे-सीधे असंभव है। हम जो भी कर पाते हैं दूसरों के लिए, वह बहुत इनडायरेक्ट, बहुत परोक्ष, बहुत पीछे के रास्ते से होता है, सामने के रास्ते से नहीं।
कोई मां अपने बच्चों को बनाना चाहे किसी खास ढंग का-अंतर्मुखी बनाना चाहे, सत्यवादी बनाना चाहे, चरित्रवान बनाना चाहे, परमात्मा की दिशा में ले जाना चाहे-तो इस भूल में कभी न पड़े कि वह सीधे-सीधे बच्चे को परमात्मा की दिशा में ले जा सकती है। क्योंकि जब भी हम किसी व्यक्ति को किसी दिशा में ले जाने लगते हैं, उसका अहंकार, उस व्यक्ति का अहंकार-चाहे वह छोटा बच्चा ही क्यों न हो-हमारे विरोध में खड़ा हो जाता है। क्योंकि दुनिया में कोई भी घसीटा जाना पसंद नहीं करता, छोटा बच्चा भी नहीं करता। जब हम उसे ले जाने लगते हैं कहीं और, कुछ बनाने लगते हैं, तब उसके भीतर उसकी अहंता, उसका अहंकार, उसका अभिमान हमारे विरोध में खड़ा हो जाता है। वह सख्ती से इस बात का विरोध करने लगता है। क्योंकि यह बात उसे आक्रामक, एग्रेसिव मालूम पड़ती है। इसमें आक्रमण है। और इस आक्रमण का वह विरोध करने लगता है। छोटा बच्चा है, जैसे उससे बनता है वह विरोध करता है। जिस-जिस बात के लिए इनकार किया जाता है, वही-वही करने को उत्सुक होता है। जिस-जिस बात से निषेध किया जाता है, वहीं-वहीं जाता है। जिन-जिन रास्तों पर रुकावट डाली जाती है, वे ही रास्ते उसके लिए आकर्षक हो जाते हैं।
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(सौजन्य से – आोशो न्यूज लेटर)
6 comments:
आज ही हमने बच्चों से जुड़ी एक पोस्ट लिखी और यहाँ भी उनके बारे में जानने की इच्छा और तेज़ हो गई... बहुत दिनों बाद टिप्पणी करने का मौका मिला...
आईये जाने ..... मन ही मंदिर है !
आचार्य जी
इसी प्रश्न का विस्तार करें और सोचें कि बच्चों पर - या अपने से कमज़ोर किसी भी व्यक्ति पर - कोई भी अत्याचार क्यों किया जाए?
बहुत बढ़िया पोस्ट..."
jai-jai OSHO....
aap ko bhi vandan jo OSHO ke vicharo ko vistarit kr rhe ho.
Satya ab ja ke samajh aaya.
Thanks a lot aacharya g.
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