सच्ची मित्रता क्या है?





दो

तुमने पूछा है कि वास्तविक प्रामाणिक मैत्री क्या है? तुम मैत्री का स्वाद चख सको इसके लिए तुम्हारे अंदर महान रूपांतरण की आवश्यकता है। जैसे अभी तुम हो, उसमें तो मैत्री एक दूर का सितारा है। तुम दूर के सितारे को देख तो सकते हो, तुम इस संबंध में बौद्धिक समझ भी रख सकते हो, पर यह समझ केवल बौद्धिक समझ ही बनी रहेगी, यह कभी अस्तित्वगत स्वाद नहीं बन सकता।




जब तक तुम मैत्री  का अस्तित्वगत स्वाद न लो, तब तक यह बड़ा मुश्किल होगा, लगभग असंभव कि तुम मित्रता और मैत्री में अंतर कर सको। तुम ऐसा समझ सकते हो कि मैत्री प्रेम का सबसे पवित्र रूप है। यह इतना पवित्र है कि तुम इसे फूल भी नहीं कह सकते, तुम ऐसा कह सकते हो कि यह एक ऐसी सुगंध है जिसको केवल अनुभव किया जा सकता है, और महसूस किया जा सकता है। पर इसे तुम पकड़ नहीं सकते। यह मौजूद है, तुम्हारे नासापुट इसे महसूस कर सकते हैं, तुम चारों ओर इससे घिरे हुए हो, तुम इसकी तंरगें महसूस कर सकते हो पर इसको पकड़े रखे रहने का कोई मार्ग नहीं है; इसका अनुभव इतना बड़ा और व्यापक है, जिसके मुकाबले तुम्हारे हाथ इतने छोटे पड़ जाते हैं।

मैंने तुमसे कहा कि तुम्हारा प्रश्न बड़ा जटिल है--ऐसा तुम्हारे प्रश्न के कारण नहीं, पर तुम्हारे कारण कहा था। अभी तुम ऐसे बिंदु पर नहीं हो जहां मैत्री एक अनुभव बन सके। स्वाभाविक और प्रामाणिक बनो, तब तुम प्रेम की सबसे विशुद्ध गुणवत्ता को जान सकते हो: प्रेम की एक सुगंध जो हमेशा चारों ओर से घेरे हो। और इस विशुद्ध प्रेम की गुणवत्ता मैत्री है। मित्रता किसी व्यक्ति से संबंधित होती है, कोई व्यक्ति तुम्हारा मित्र होता है।

एक बार किसी व्यक्ति ने गौतम बुद्ध से पूछा कि क्या बुद्धपुरुष के भी मित्र होते हैं? उन्होंने जवाब दिया: नहीं। प्रश्नकर्ता अचंभित रह गया, क्योंकि वह सोच रहा था कि जो व्यक्ति स्वयं बुद्ध हो चुका--उसके लिए सारा संसार मित्र होना चाहिए। चाहे तुम्हें यह जानकर धक्का लगा हो या न लगा हो, पर गौतम बुद्ध बिलकुल सही कह रहे हैं। जब वे कह रहे हैं कि बुद्धपुरुष के मित्र नहीं होते, तब वे कह रहे हैं कि उनका कोई मित्र नहीं होता, क्योंकि उनका कोई शत्रु नहीं होता। ये दोनों चीजें एक साथ आती हैं। हां, वे मैत्री रख सकते हैं, पर मित्रता नहीं।

मैत्री ऐसा प्रेम  है जो किसी अन्य से संबंधित या किसी अन्य को संबोधित नहीं है। न ही यह किसी तरह का लिखित या अलिखित समझौता है, न ही किसी व्यक्ति का व्यक्ति विशेष के प्रति प्रेम  है। यह व्यक्ति का समस्त अस्तित्व के प्रति प्रेम है, जिसमें मनुष्य केवल छोटा सा भाग है, क्योंकि इसमें पेड़ भी सम्मिलित हैं, इसमें पशु भी सम्मिलित हैं,नदियां भी सम्मिलित हैं, पहाड़ भी सम्मिलित हैं और तारे भी सम्मिलित हैं--मैत्री में प्रत्येक चीज सम्मिलित है।
मैत्री तुम्हारे स्वयं के सच्चे और प्रामाणिक होने का तरीका है। तुम्हारे अंदर से मैत्री की किरणें निकलने लगती हैं। यह अपने से होता है, इसको लाने के लिए तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता। जो कोई भी तुम्हारे संपर्क में आता है, वह इस मैत्री को महसूस कर सकता है। इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हारा कोई शत्रु नहीं होगा, पर जहां तक तुम्हारा संबंध है, तुम किसी के भी शत्रु नहीं होते, क्योंकि अब तुम किसी  के  मित्र भी नहीं हो। तुम्हारा शिखर, तुम्हारा जागरण, तुम्हारा आनंद, तुम्हारा मौन बहुतों को परेशान करेगा और बहुतों में जलन पैदा करेगा, यह सब होगा, और यह सब बिना तुम्हें समझे होगा।
    
वास्तव में बुद्धपुरुष के शत्रु ज्यादा होते हैं बजाय अज्ञानी के। साधारण जन के कुछ ही शत्रु होते हैं और कुछ ही मित्र। पर इसके विपरीत लगभग सारा विश्व ही बुद्धपुरुष के विरोध में दिखाई देता है, क्योंकि अंधे लोग किसी आंख वाले को क्षमा नहीं कर सकते। और अज्ञानी उसे माफ नहीं कर सकते जो ज्ञानी हैं। वे उस आदमी से प्रेम नहीं कर सकते जो आत्यंतिक कृतार्थता को उपलब्ध हो गया है क्योंकि उनके अहं को चोट लगती है।

 जारी----
(सौजन्‍य से: ओशो इंटरनेश्‍नल न्‍यूज लेटर)

1 comment:

meenakshi said...

bahut sachchi baat mahapurush osho ji ne kahi...

thanx 2 u to for this

Meenakshi Srivastava