
मैं इस कथा को सोचता हूं और लगता है वह पागल साधु मैं ही हूं।
मैं चाहता हूं कि हम मूर्तियों से मुक्त हो सकें, ताकि जो अमूर्त है, उसके दर्शन संभव हों। रूप पर जो रुका है, वह अरूप पर नहीं पहुंच पाता है। आकार जिसकी दृष्टिं में है, वह निराकार सागर में कैसे कूदेगा? वह जो दूसरे की पूजा में है, वह अपने पर आ सके, यह कैसे संभव है? मूर्त को अग्नि दो, ताकि अमूर्त ही अनुभूति में शेष रहे और आकार की बदलियों को विसर्जित होने दो, ताकि निराकार आकाश उपलब्ध हो सके। रूप को बहने दो, ताकि नौका अरूप के सागर में पहुंचे। जो सीमा के तट से अपनी नौका छोड़ देता है, वह अवश्य ही असीम को पहुंचता और असीम हो जाता है।
( सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
2 comments:
त्यागी जी, मेरे एक मरीज़ ने मुझे कुछ दिन पहले दो बातें लिखवाईं थीं.....
दादू दुनिया बावरी,
पत्थर पूजन जाए,
घर की चक्की कोई न पूजे,
जिस का पीसा खाए।
आप की बात पढ़ कर यकायक उस का ध्यान आ गया,साहब।
सुंदर अति सुंदर लेख।
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