कोई पूछता था, 'आत्मा को कैसे पाया जाए? ब्रह्मं-उपलब्धि कैसे हो सकती है?'
आत्मा को पाने की बात ही मेरे देखे गलत है। वह प्राप्तव्य नहीं है। वह तो नित्य प्राप्त है। वह कोई वस्तु नहीं, जिसे लाना है। वह कोई लक्ष्य नहीं, जिसको साधना है। वह भविष्य में नहीं है कि उस तक पहुंचना है। वह है। 'है' का ही वह नाम है। वह वर्तमान है-नित्य वर्तमान। उसमें अतीत और भविष्य नहीं है। उसमें 'होना' नहीं है। वह शुद्ध नित्य अस्तित्व है।
फिर खोना किस स्तर पर हो गया है या खोने के आभास और पाने की प्यास कहां आ गयी है?
मैं को समझ लें तो जो आत्मा खोई नहीं जा सकती है, उसका खोना समझना आ सकता है। 'मैं' आत्मा नहीं है। न 'स्व' आत्मा है, न 'पर' आत्मा है। यह द्वैत वैचारिक है। यह द्वैत मन में है। मन आभास सत्ता है। वह कभी वर्तमान में नहीं होता है। वह या तो अतीत में होता है, या भविष्य में। न अतीत की सत्ता है, न भविष्य की। एक न हो गया है, एक अभी हुआ नहीं है। एक स्मृति में है, एक कल्पना में है। सत्ता में दोनों नहीं हैं। इस असत्ता से 'मैं' का जन्म होता है। 'मैं' विचार की उत्पत्ति है। काल भी विचार की उत्पत्ति है। विचार के कारण, 'मैं' के कारण, आत्मा आवरण में है। वह है, पर खोयी मालूम होती है। फिर यही 'मैं' यही विचार-प्रवाह इस तथाकथित खोयी आत्मा को खोजने चलता है। यह खोज असंभव है, क्योंकि इस खोज से 'मैं' और पुष्ट होता है- सशक्त होता है।
'मैं' के द्वारा आत्मा को खोजना, स्वप्न के द्वारा जागृति को खोजने जैसा है। 'मैं' के द्वारा नहीं, 'मैं' के विसर्जन से उसको पाना है। स्वप्न के जाते ही जागृति है, 'मैं' के जाते ही आत्मा है। आत्मा शून्यता है, क्योंकि पूर्णता है। उसमें 'स्व', 'पर' नहीं है। वह अद्वैत है। वह कालातीत है। विचार के, मन के जाते ही जाना जाता है कि उसे कभी खोया नहीं था।
इसलिए उसे खोजना नहीं है। खोज छोड़नी है और खोजने वाले को छोड़ना है। खोज और खोजी के मिटते ही खोज पूरी हो जाती है। 'मैं' को खोकर उसे पा लिया जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
आत्मा को पाने की बात ही मेरे देखे गलत है। वह प्राप्तव्य नहीं है। वह तो नित्य प्राप्त है। वह कोई वस्तु नहीं, जिसे लाना है। वह कोई लक्ष्य नहीं, जिसको साधना है। वह भविष्य में नहीं है कि उस तक पहुंचना है। वह है। 'है' का ही वह नाम है। वह वर्तमान है-नित्य वर्तमान। उसमें अतीत और भविष्य नहीं है। उसमें 'होना' नहीं है। वह शुद्ध नित्य अस्तित्व है।
फिर खोना किस स्तर पर हो गया है या खोने के आभास और पाने की प्यास कहां आ गयी है?
मैं को समझ लें तो जो आत्मा खोई नहीं जा सकती है, उसका खोना समझना आ सकता है। 'मैं' आत्मा नहीं है। न 'स्व' आत्मा है, न 'पर' आत्मा है। यह द्वैत वैचारिक है। यह द्वैत मन में है। मन आभास सत्ता है। वह कभी वर्तमान में नहीं होता है। वह या तो अतीत में होता है, या भविष्य में। न अतीत की सत्ता है, न भविष्य की। एक न हो गया है, एक अभी हुआ नहीं है। एक स्मृति में है, एक कल्पना में है। सत्ता में दोनों नहीं हैं। इस असत्ता से 'मैं' का जन्म होता है। 'मैं' विचार की उत्पत्ति है। काल भी विचार की उत्पत्ति है। विचार के कारण, 'मैं' के कारण, आत्मा आवरण में है। वह है, पर खोयी मालूम होती है। फिर यही 'मैं' यही विचार-प्रवाह इस तथाकथित खोयी आत्मा को खोजने चलता है। यह खोज असंभव है, क्योंकि इस खोज से 'मैं' और पुष्ट होता है- सशक्त होता है।
'मैं' के द्वारा आत्मा को खोजना, स्वप्न के द्वारा जागृति को खोजने जैसा है। 'मैं' के द्वारा नहीं, 'मैं' के विसर्जन से उसको पाना है। स्वप्न के जाते ही जागृति है, 'मैं' के जाते ही आत्मा है। आत्मा शून्यता है, क्योंकि पूर्णता है। उसमें 'स्व', 'पर' नहीं है। वह अद्वैत है। वह कालातीत है। विचार के, मन के जाते ही जाना जाता है कि उसे कभी खोया नहीं था।
इसलिए उसे खोजना नहीं है। खोज छोड़नी है और खोजने वाले को छोड़ना है। खोज और खोजी के मिटते ही खोज पूरी हो जाती है। 'मैं' को खोकर उसे पा लिया जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
2 comments:
इस ब्लॉक को बनाकर आपने एक सुन्दर काम किया है, बधाई स्वीकारें।
R/Tyagi sa
vandematram
aapke blogpe aakar accha laga.
badhai.
hamare blog
http://yugnirman.blogspot.com/
pr bhi padhare. swagat h.
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