एक युवक ने कल रात्रि पूछा था, 'मैं अपने मन से लड़ रहा हूं, पर शांति उपलब्ध नहीं होती है। मैं क्या करूं कि मन के साथ की शांति पा सकूं?'
मैंने कह, 'अंधेरे के साथ कोई कुछ नहीं कर सकता। वह है ही नहीं। वह केवल प्रकाश का न होना है, इसलिए उससे लड़ना अज्ञान है। ऐसा ही मन है। वह भी नहीं है, उसकी भी कोई स्व-सत्ता नहीं है। वह आत्मबोध का अभाव है, ध्यान का अभाव है। इसलिए उसके साथ भी सीधे कुछ नहीं किया जा सकता। अंधेरा हटाना हो, तो प्रकाश लाना होता है और मन को हटाना हो, तो ध्यान लाना होता है। मन को नियंत्रित नहीं करना है, वरन् जानना है कि वह है ही नहीं। यह जानते ही उससे मुक्ति हो जाती है।'
उसने पूछा, 'यह जानना कैसे हो?'
'यह जानना साक्षी चैतन्य से होता है। मन के साक्षी बनें। जो है- उसके साक्षी बनें। कैसे होना चाहिए, इसकी चिंता छोड़ दें। जो है, जैसा है, उसके प्रति जागें, जागरूक हों। कोई निर्णय न लें, कोई नियंत्रण न करें, किसी संघर्ष में न पड़े। बस, मौन होकर देखें। देखना ही- यह साक्षी होना ही मुक्ति बन जाता है।'
साक्षी बनते ही चेतना दृश्य को छोड़ द्रष्टा पर स्थिर हो जाती है। इस स्थिति में अकंप प्रज्ञा की ज्योति उपलब्ध होती है और यही ज्योति मुक्ति है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
मैंने कह, 'अंधेरे के साथ कोई कुछ नहीं कर सकता। वह है ही नहीं। वह केवल प्रकाश का न होना है, इसलिए उससे लड़ना अज्ञान है। ऐसा ही मन है। वह भी नहीं है, उसकी भी कोई स्व-सत्ता नहीं है। वह आत्मबोध का अभाव है, ध्यान का अभाव है। इसलिए उसके साथ भी सीधे कुछ नहीं किया जा सकता। अंधेरा हटाना हो, तो प्रकाश लाना होता है और मन को हटाना हो, तो ध्यान लाना होता है। मन को नियंत्रित नहीं करना है, वरन् जानना है कि वह है ही नहीं। यह जानते ही उससे मुक्ति हो जाती है।'
उसने पूछा, 'यह जानना कैसे हो?'
'यह जानना साक्षी चैतन्य से होता है। मन के साक्षी बनें। जो है- उसके साक्षी बनें। कैसे होना चाहिए, इसकी चिंता छोड़ दें। जो है, जैसा है, उसके प्रति जागें, जागरूक हों। कोई निर्णय न लें, कोई नियंत्रण न करें, किसी संघर्ष में न पड़े। बस, मौन होकर देखें। देखना ही- यह साक्षी होना ही मुक्ति बन जाता है।'
साक्षी बनते ही चेतना दृश्य को छोड़ द्रष्टा पर स्थिर हो जाती है। इस स्थिति में अकंप प्रज्ञा की ज्योति उपलब्ध होती है और यही ज्योति मुक्ति है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
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