संध्या उतर आई है और सांध्य कुसुमों की गंध उड़ने लगी है।
एक कोयल दोपहर भर कूकती रही है और अब चुप हो गयी है। वह गाती थी, तो इतनी खयाल में नहीं थी, अब मौन क्या हुई है, कि खयाल में हो आयी है। मैं उसके फिर से स्वर उठने की प्रतीक्षा कर रहा हूं कि इसी बीच एक साधु आगमन हुआ है। बाल-ब्रह्मंचारी हैं-सूखी, कृश, अस्वस्थ-सी देह है। चेहरा बुझा-बुझा और निस्तेज है। आंखों का पानी उड़ गया है। उन्हें देख बहुत दया आयी है। शरीर पर अनाचार किया है। यह मैंने उनसे कहा है। वे तो कुछ चौंक से गये हैं। इसे ही वे त्याग मानते हैं। अस्वास्थ्य जैसे आध्यात्मिकता है! कुरूपता और विकृति जैसे योग है! असौंदर्य की साधना ही जैसे जैसे साधना है! काउंट कैसरलिंग ने लिखा है, 'स्वास्थ्य आध्यात्म-विरोधी आदर्श है।' उनकी पंक्ति में इसी अज्ञान की गूंज है। यह विचार प्रतिक्रिया-जन्य है। कुछ है, जो शरीर के पीछे है, शरीर ही उन्हें सब-कुछ है। यह एक अति है। फिर इसकी प्रतिक्रिया से दूसरी अति पैदा होती है। पर दोनों ही अतियां शरीरवादी हैं। शरीर को न तो उछालते फिरना है, न उसे तोड़ते फिरना है। वह तो कुल जमा आवास है। उसका स्वस्थ और अच्छा होना आवश्यक है।
आध्यात्मिक जीवन स्वास्थ्य-विरोधी नहीं है। वह तो परिपूर्ण स्वास्थ्य है। वह तो एक लययुक्त, संगीतपूर्ण सौंदर्य की स्थिति का ही पर्यायवाची है।
शरीर-दमन आध्यात्म नहीं है। वह तो केवल भोगवादी वृत्तियों का शीर्षासन है। वह तो भोग की प्रतिक्रिया मात्र है। उसमें ज्ञान नहीं, अज्ञान और आत्म-हिंसा है। वह वृत्ति हिंसक है। उसमें कोई कहीं नहीं पहुंचता है। शरीर का दमन नहीं करना है। वह तो बेचारा उपकरण है और अनुगामी है। वह तो, मैं जैसा हूं, वैसा हो जाता है। मैं वासना हूं, तो वह वहां साथ देता है। मैं साधना हो जाऊं, तो वह वहां साथी हो जाता है। वह मेरे पीछे है। परिवर्तन उसमें नहीं- वह जिसके पीछे है, उसमें करना है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
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