जीवन का पथ अंधकार पूर्ण है। लेकिन स्मरण रहे कि इस अंधकार में दूसरों का प्रकाश काम न आ सकता। प्रकाश अपना ही हो, तो ही साथी है। जो दूसरों के प्रकाश पर विश्वास कर लेते हैं, वे धोखे में पड़ जाते हैं।
मैंने सुना है- एक आचार्य ने अपने शिष्य से कहा, ''ज्ञान को उपलब्ध करो। उसके अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है।'' वह शिष्य बोला, ''मैं तो आचार साधना में संलग्न हूं। क्या आचार को पा लेने पर भी ज्ञान की आवश्यकता है?'' आचार्य ने कहा, ''प्रिय! क्या तुमने हाथी की चर्या देखी है? वह सरोवर में स्नान करता है और बाहर आते ही अपने शरीर पर धूल फेंकने लगता है। अज्ञानी भी ऐसा ही करते हैं। ज्ञान के अभाव में आचार की पवित्रता को ज्यादा देर नहीं साधा जा सकता है।'' तब शिष्य ने नम्र निवेदन किया, ''भगवन, रोगी तो वैद्य के पास ही जाता है, स्वयं चिकित्साशास्त्र के ज्ञान को पाने के चक्कर में नहीं पड़ता। आप मेरे मार्ग-दर्शक हैं। यह मैं जानता हूं कि आप मुझे अधम मार्ग में नहीं जाने देंगे। तब फिर मुझे स्वयं के ज्ञान की क्या आवश्यकता है?'' यह सुन आचार्य ने बहुत गंभीरता से कथा कही थी- एक वृद्ध ब्राह्मंण था। वह अंधा हो गया, तो उसके पुत्रों ने उसकी आंखों की शल्य चिकित्सा करनी चाही। लेकिन उसने अस्वीकार कर दिया। वह बोला, ''मुझे आंखों की क्या आवश्यकता? तुम आठ मेरे पुत्र हो,आठ कुलबधु हैं, तुम्हारी मां है, ऐसे चौंतीस आंखें मुझे प्राप्त हैं, फिर दो नहीं हें, तो क्या?'' पिता ने पुत्रों की सलाह नहीं मानी। फिर एक रात्रि अचानक घर में आग लग गई। सभी अपने-अपने प्राण लेकर भागे। वृद्ध की याद किसी को भी न रही। वह अग्नि में ही भस्म हो गया। इसलिए वत्स, अज्ञान का आग्रह मत करो। ज्ञान स्वयं का चक्षु है। उसके अतिरिक्त कोई शरण नहीं है।''
सत्य न तो शास्त्रों से मिल सकता है और न ही शास्ताओं से। उसे पाने का द्वार तो स्वयं में ही है। स्वयं में जो खोजते हैं, केवल वे ही उसे पाते हैं। स्वयं पर श्रद्धा ही असहाय मनुष्य का एकमात्र संबल है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
मैंने सुना है- एक आचार्य ने अपने शिष्य से कहा, ''ज्ञान को उपलब्ध करो। उसके अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है।'' वह शिष्य बोला, ''मैं तो आचार साधना में संलग्न हूं। क्या आचार को पा लेने पर भी ज्ञान की आवश्यकता है?'' आचार्य ने कहा, ''प्रिय! क्या तुमने हाथी की चर्या देखी है? वह सरोवर में स्नान करता है और बाहर आते ही अपने शरीर पर धूल फेंकने लगता है। अज्ञानी भी ऐसा ही करते हैं। ज्ञान के अभाव में आचार की पवित्रता को ज्यादा देर नहीं साधा जा सकता है।'' तब शिष्य ने नम्र निवेदन किया, ''भगवन, रोगी तो वैद्य के पास ही जाता है, स्वयं चिकित्साशास्त्र के ज्ञान को पाने के चक्कर में नहीं पड़ता। आप मेरे मार्ग-दर्शक हैं। यह मैं जानता हूं कि आप मुझे अधम मार्ग में नहीं जाने देंगे। तब फिर मुझे स्वयं के ज्ञान की क्या आवश्यकता है?'' यह सुन आचार्य ने बहुत गंभीरता से कथा कही थी- एक वृद्ध ब्राह्मंण था। वह अंधा हो गया, तो उसके पुत्रों ने उसकी आंखों की शल्य चिकित्सा करनी चाही। लेकिन उसने अस्वीकार कर दिया। वह बोला, ''मुझे आंखों की क्या आवश्यकता? तुम आठ मेरे पुत्र हो,आठ कुलबधु हैं, तुम्हारी मां है, ऐसे चौंतीस आंखें मुझे प्राप्त हैं, फिर दो नहीं हें, तो क्या?'' पिता ने पुत्रों की सलाह नहीं मानी। फिर एक रात्रि अचानक घर में आग लग गई। सभी अपने-अपने प्राण लेकर भागे। वृद्ध की याद किसी को भी न रही। वह अग्नि में ही भस्म हो गया। इसलिए वत्स, अज्ञान का आग्रह मत करो। ज्ञान स्वयं का चक्षु है। उसके अतिरिक्त कोई शरण नहीं है।''
सत्य न तो शास्त्रों से मिल सकता है और न ही शास्ताओं से। उसे पाने का द्वार तो स्वयं में ही है। स्वयं में जो खोजते हैं, केवल वे ही उसे पाते हैं। स्वयं पर श्रद्धा ही असहाय मनुष्य का एकमात्र संबल है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
2 comments:
achhi baaton ko batane ke liye aabhar.
जय हो!! जय ओशो!!
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