जीवन- मृत्यु से अभय


शरीर को ही जो स्वयं का होना मान लेते हैं, मृत्यु उसे ही भयभीत करती है। स्वयं में थोड़ा ही गहरा प्रवेश, उस भूमि पर खड़ा कर देता है, जहां कि कोई भी मृत्यु नहीं है। उस अमृत-भूमि को जानकर ही जीवन का ज्ञान होता है।
एक बार ऐसा हुआ कि एक युवा संन्यासी के शरीर पर कोई राजकुमारी मोहित हो गई। सम्राट ने उस भिक्षु को राजकुमारी से विवाह करने को कहा। भिक्षु बोला, ''मैं तो हूं ही नहीं, विवाह कौन करेगा?'' सम्राट ने इसे अपमान मान उसे तलवार से मार डालने का आदेश दिया। वह संन्यासी बोला, ''मेरे प्रिय, शरीर से आरंभ से ही मेरा कोई संबंध नहीं रहा है। आप भ्रम में हैं। जो अलग ही है, आपकी तलवार उन्हें और क्या अलग करेगी? मैं तैयार हूं और आपकी तलवार मेरे तथाकथित सिर को उसी प्रकार काटने के लिए आमंत्रित है, जैसे यह वसंत-वायु पेड़ों से उनके फूल गिरा रही है।'' सच ही उस समय वसंत था और वृक्षों से फूल गिर रहे थे। सम्राट ने उन गिरते फूलों को देखा और उस युवा भिक्षु के सम्मुख उपस्थित मृत्यु को जानते हुए भी उसकी आनंदित आंखों को। उसने एक क्षण सोचा और कहा, ''जो मृत्यु से भयभीत नहीं है और जो मृत्यु को भी जीवन की भांति ही स्वीकार करता है, उसे मारना व्यर्थ है। उसे तो मृत्यु भी नहीं मार सकती है।''
वह जीवन नहीं है, जिसका कि अंत आ जाता है। अग्नि जिसे जला दे और मृत्यु जिसे मिटा दे, वह जीवन नहीं है। जो उसे जीवन मान लेते हैं, वे जीवन को जान ही नहीं पाते। वे तो मृत्यु में ही जीते हैं और इसलिए मृत्यु का भय उन्हें सताता है। जीवन को जानने और उपलब्ध होने का लक्षण- मृत्यु से अभय है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

3 comments:

meltyourfat said...

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योगेन्द्र मौदगिल said...

अद्भुत-प्रेरक उद्धरण..
आपकी प्रस्तुति को नमन.

Udan Tashtari said...

जय हो!! जय ओशो! जय हो!!