ईर्ष्या से इतनी पीड़ा क्यों होती है?

 ईर्ष्या तुलना है। और हमें तुलना करना सिखाया गया हैहमनें तुलना करना सीख लिया हैहमेशा तुलना करते हैं। किसी और के पास ज्यादा अच्छा मकान हैकिसी और के पास ज्यादा सुंदर शरीर हैकिसी और के पास अधिक पैसा हैकिसी और के पास करिश्माई व्यक्तित्व है। जो भी तुम्हारे आस-पास से गुजरता है उससे अपनी तुलना करते रहोजिसका परिणाम होगाबहुत अधिक ईर्ष्या की उत्पत्तियह ईर्ष्या तुलनात्मक जीवन जीने का बाइ प्रोडक्ट है।
अन्यथा यदि तुम तुलना करना छोड़ देते हो तो ईर्ष्या गायब हो जाती है। तब बस तुम जानते हो कि तुम तुम हो, तुम कुछ और नहीं हो, और कोई जरूरत भी नहीं है। अच्छा है तुम अपनी तुलना पेड़ों के साथ नहीं करते हो, अन्यथा तुम ईर्ष्या करना शुरू कर दोगे कि तुम हरे क्यों नहीं हो? और अस्तित्व तुम्हारे लिए इतना कठोर क्यों है? तुम्हारे फूल क्यों नहीं हैं? यह अच्छा है कि तुम अपनी तुलना पक्षियों, नदियों, पहाड़ों से नहीं करते हो, अन्यथा तुम्हें दुख भोगना होगा। तुम सिर्फ इंसानों के साथ तुलना करते हो, क्योंकि तुमने इंसानों के साथ तुलना करना सीखा है; तुम मोरों और तोतों के साथ तुलना नहीं करते हो। अन्यथा तुम्हारी ईर्ष्या और भी ज्यादा होगी: तुम ईर्ष्या से इतना दबे होओगे कि तुम थोड़ा भी नहीं जी पाओगे।
 
तुलना बहुत ही मूर्खतापूर्ण वृत्ति है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अनुपम और अतुलनीय है। एक बार यह समझ तुम में आ जाए, ईर्ष्या गायब हो जाएगी। प्रत्येक अनुपम और अतुलनीय है। तुम सिर्फ तुम हो: कोई भी कभी भी तुम्हारे जैसा नहीं हुआ, और कोई भी कभी भी तुम्हारे जैसा नहीं होगा। और न ही तुम्हें भी किसी और के जैसा होने की जरुरत है।
अस्तित्व केवल मौलिक सृजन करता है; यह नकलों में, कार्बन कापी में भरोसा नहीं करता।
मैदान में चूजों के एक झुंड के बीच में तारों के ऊपर से एक गेंद आकर गिरी। एक मुर्गा डगमग-डगमग चलता हुआ आया, उसका निरीक्षण किया, तब वह बोला, लड़कियों मैं शिकायत नहीं कर रहा हूं, लेकिन देखो पड़ोस में वे कैसी पैदाइश कर रहे हैं।
 
अगले दरवाजे पर महान घटनाएं घट रही हैं: घास ज्यादा हरी है, गुलाब ज्यादा खिले हैं। तुम्हारे अलावा सब लोग इतना खुश दिखाई देते हैं। तुम हमेशा तुलना कर रहे हो। और यही दूसरों के साथ भी हो रहा है, वे भी तुलना कर रहे हैं। हो सकता है वे भी सोच रहे हों कि तुम्हारे मैदान की घास ज्यादा हरी है, दूर से यह हमेशा हरी दिखाई देती है कि तुम्हारी पत्नी ज्यादा सुंदर है...तुम थके हो, तुम्हें विश्वास नहीं कि तुम इस स्त्री के साथ क्यों फंस गए, तुम नहीं जानते कि इससे कैसे छुटकारा पाया जाए और पड़ोसी तुमसे ईर्ष्या कर रहे हो सकते हैं कि तुम्हारी पत्नी इतनी सुंदर है! और तुम उनसे ईर्ष्या कर रहे हो...
 
हर कोई दूसरे से ईर्ष्या कर रहा है। और इसी ईर्ष्या से हम ऐसा नरक बना रहे हैं, और ईर्ष्या से ही हम इतने ओछे हो गए हैं।
 
एक बूढा किसान बाढ़ के प्रकोपों के बारे में बड़े दुख से बता रहा था। हीरम! पड़ोसी चिल्लाया, तुम्हारे सारे सूअर नदी में बह गए।
 
किसान ने पूछा: थामसन के सुअरों का क्या हुआ?
वे भी बह गए।
और लारसन के?
हां।
अच्छा! किसान खुश होते हुए बोल उठा, यह इतना भी बुरा नहीं था जितना मैं सोचता था।

यदि हम सब दुखी हैं तो अच्छा लगता है, यदि सभी हार रहे हों तो भी अच्छा लगता है। यदि सब खुश और सफल हो रहे हों तो उसका स्वाद बड़ा कड़वा है।  
 
पर तुम्हारे मन में दूसरे का विचार आता ही क्यों है? मैं तुम्हें फिर याद दिला दूं: तुमने अपने रस को प्रवाहित होने का मौका नहीं दिया है; तुमने अपने आनंद को फलने का मौका नहीं दिया है, तुमने खुद के होने को भी नहीं खिलने दिया। इसीलिए तुम अंदर से खालीपन महसूस करते हो, और तुम सभी के बाहरीपन को देखते हो क्योंकि केवल बाहर ही देखा जा सकता है।
 
तुम्हें अपने भीतर का पता है, और तुम दूसरों को बाहरी रूप से जानते हो। वे तुम्हारी बाहरीपन को जानते हैं, और वे अपने को भीतर से जानते हैं: यही ईर्ष्या पैदा करता है। कोई भी तुम्हें भीतर से नहीं जानता। तुम जानते हो कि तुम कुछ भी नहीं हो, दो कौड़ी के। और दूसरे बाहर से इतने मुस्कुराते हुए दिखते हैं। उनकी मुस्कुराहट नकली हो सकती है, पर तुम कैसे जान सकते हो कि वे नकली हैं। हो सकता है उनके दिल भी मुस्कुरा रहे हों। तुम जानते हो तुम्हारी मुस्कुराहट नकली है, क्योंकि तुम्हारा दिल थोड़ा भी नहीं मुस्कुरा रहा है, यह चीख रहा और रो रहा हो सकता है।
 
तुम अपने भीतर को जानते हो, और यह केवल तुम ही जानते हो, कोई और नहीं। और तुम सबको बाहर से जानते हो, और बाहर से लोगों ने अपने को सुंदर बनाया हुआ है। बाहरी आवरण दिखावा है और वह बहुत धोखेबाज हैं।

जारी....सौजन्‍य से – ओशो  इंटरनेश्‍नल न्‍यूज लेटर)


अकेलेपन का आनंद




केले होकर स्वयं का सामना करना भयावह और दुखदाई है, और प्रत्येक को इसका कष्ट भोगना पड़ता है। इससे बचने के लिए कुछ भी नहीं करना चाहिए, मन को वहां से हटाने के लिए कुछ भी नहीं करना चाहिए , और इससे बचने के लिए भी कुछ नहीं करना चाहिए। हर एक को इस पीड़ा को भोगना होगा और इससे गुजरना होगा। यह कष्ट और यह पीड़ा एक अच्छा संकेत है कि तुम एक नये जन्म के नजदीक हो, क्योंकि हर जन्म के पूर्व पीड़ा अवश्यंभावी है। इससे बचा नहीं जा सकता और इससे बचने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए क्योंकि यह तुम्हारे विकास का एक आवश्यक अंग है। लेकिन यह पीड़ा क्यों होती है?
इसे समझ लेना चाहिए क्योंकि समझ इससे गुजरने में मददगार होगी, और यदि तुम इसे जानते हुए इससे गुज़र सके तब तुम अधिक आसानी से और अधिक शीघ्रता से इसके बाहर आ सकते हो।
जब तुम अकेले होते हो तो पीड़ा क्यों होती है? पहली बात यह है कि तुम्हारा अहंकार बीमार हो जाता है। तुम्हारा अहंकार तभी रह सकता है जब तक दूसरे हैं। यह संबंधों में विकसित हुआ है, यह अकेले में जी नहीं सकता। इसलिए यदि ऐसी स्थिति आ जाए जिसमें यह जी ही नहीं सकता, तो यह घुटन महसूस करने लगता है, उसे लगता है कि यह मृत्यु के कगार पर है। यह सबसे गहरी पीड़ा है। तुम ऐसा महसूस करते हो जैसे तुम मर रहे हो। लेकिन यह तुम नहीं हो जो मर रहे हो, यह केवल तुम्हारा अहंकार है, जिसे तुमने स्वयं होना मान लिया है, जिसके साथ तुम्हारा तादात्म्य हो गया है। यह जिंदा नहीं रह सकता क्योंकि यह तुम्हें दूसरों के द्वारा दिया हुआ है। यह एक योगदान है। जब तुम दूसरों को छोड़ देते हो तब तुम इसे ढो नहीं सकते।
 
इसलिए अकेलेपन में, तुम जो भी अपने बारे में जानते हो, सब गिर जाएगा; धीरे-धीरे वह विदा हो जाएगा। तुम अपने अहंकार को कुछ समय के लिए लम्बा खींच सकते हो -- और वह भी केवल तुम्हें अपनी कल्पना द्वारा करना होगा -- लेकिन तुम इसे बहुत लम्बे समय तक नहीं खींच  सकते। समाज के बिना तुम्हारी जड़ें उखड़ जाती हैं; जमीन नहीं मिलती जहां से जड़ों को भोजन मिल सके। यही मूल पीड़ा है।
 
तुम्हें यह भी निश्चित नहीं रहता कि तुम कौन हो: तुम एक फैलते हुए व्यक्तित्व मात्र रह गए हो, एक पिघलते हुए व्यक्तित्व। लेकिन यह अच्छा है, क्योंकि जब तक तुम्हार झूठा  व्यक्तित्व समाप्त नहीं होता, वास्तविक प्रकट नहीं हो सकता। जब तक तुम फिर से पूरी तरह धुल नहीं जाते और स्वच्छ नहीं हो जाते, वास्तविकता प्रकट नहीं हो सकती।
इस झूठ ने सिंघासन पर कब्जा जमा लिया है। इसे वहां से हटाना होगा। एकांत में रहने से, जो भी झूठ है सब समाप्त हो जाता है। और जो भी समाज द्वारा दिया गया है, सब झूठ है। वास्तव में, जो भी दिया गया है, सब झूठ है; और जो भी जन्म के साथ आया है, सत्य है। जो भी तुम स्वयं अपने तईं जो हो,  जो किसी दूसरे द्वारा दिया नहीं गया है, वास्तविक है, प्रामाणिक है। लेकिन झूठ को जाना चाहिए और झूठ में तुम्हारा बहुत अधिक निवेश है। इसमें तुमने इतना अधिक निवेश कर रखा है, तुम इसकी इतनी देख-भाल करते हो: तुम्हारी सारी आशाएं इसी पर टगीं हैं इसलिए जब यह घुलने लगता है, तुम भयभीत हो जाते हो, डर जाते हो और कांपने लगते हो: "तुम स्वयं के साथ क्या कर रहे हो? तुम अपना सारा जीवन, सारे जीवन का ढाचा नष्ट कर रहे हो।'
भय लगेगा। लेकिन तुम्हें इस भय से गुजरना होगा: तभी तुम निडर हो सकते हो। मैं नही कहता कि तुम बहादुर हो जाओगे, नहीं, मैं कहता हूं तुम निडर हो जाओगे।
बहादुरी भी भय का ही एक हिस्सा है। तुम कितने ही बहादुर हो, भय पीछे छिपा ही रहता है। मैं कहता हूं, "निडर'। तुम बहादुर नहीं हो जाते; जब भय न हो, बहादुर होने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। बहादुरी और भय दोनों अप्रसांगिक हो जाते हैं। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए तुम्हारे बहादुर आदमी सिवाय इसके कि तुम सिर के बल खड़े हो और कुछ नहीं हैं। तुम्हारी बहादुरी तुम्हारे भीतर छिपी है और तुम्हारा भय सतह पर है; उनका भय भीतर छिपा हुआ है और उनकी बहादुरी सतह पर है। इसलिए जब तुम अकेले होते हो, तुम बहुत बहादुर होते हो। जब तुम किसी चीज के विषय में सोचते रहते हो, तुम बहुत बहादुर होते हो, परंतु जब वास्तविक स्थिति आती है, तुम भयभीत हो जाते हो।
 
कोई निडर केवल तभी हो सकता है जब सभी गहरे भयों से गुजर चुका हो -- अहंकार को विसर्जित कर चुका हो, अपनी छवि को विसर्जित कर चुका हो, अपना व्यक्तित्व विसर्जित कर चुका हो। यह मृत्यु है क्योंकि तुम नहीं जानते कि इससे कोई नया जीवन उभरने वाला है। इस प्रक्रिया के दौरान तो तुम्हें केवल मृत्यु का अनुभव होगा। वह तो तुम जैसे हो--एक झूठे व्यक्तित्व की तरह, मर जाओगे, केवल तभी जान पाओगे कि मृत्यु तो मात्र अमरत्व के लिए एक द्वार थी। लेकिन यह अंत में घटेगा, प्रक्रिया के दौरान तो तुम केवल मरने का अनुभव करोगे।
वह हर वस्तु जिसको तुमने इतना प्यार किया है, तुमसे दूर कर दी जाएंगी -- तुम्हारा व्यक्तित्व, तुम्हारी धारणाएं, वह सब जो तुमने सोचा था कि सुंदर है। सब कुछ तुम्हें छोड़ जाएगा। तुम पूर्ण रूप से उघाड़ दिए जाओगे। तुम्हारी सभी भूमिकाएं और तुम्हारे सभी आवरण छीन लिए जाएंगे। इस प्रक्रिया में भय होगा, लेकिन यह भय मूल है, आवश्यक और अपरिहार्य है -- हर एक को इससे गुजरना पड़ता है। तुम्हें इसे समझना चाहिए परंतु इससे बचने का प्रयास नहीं करना चाहिए, इससे भागने का प्रयत्न मत करो क्योंकि भागने का हर प्रयास तुम्हें फिर वापस ले आएगा। तुम फिर व्यक्तित्व में वापस लौट जाओगे।

(सौजन्‍य से : आोशे इंटरनेशनल न्‍यूज लेटर)

प्रतिबद्धता का भय- अंतिम



संबंधों में शांति पूर्वक रहना बहुत कठिन है। लेकिन वही चुनौती है। यदि तुम उससे बचते हो तो तुम परिपक्वता से वंचित रह जाओगे। यदि तुम समूची पीड़ा के साथ उसमें उतरोगे, और फिर भी उसमें जाते रहोगे तो धीरे-धीरे वह पीड़ा एक आशीष बन जाती है, अभिशाप वरदान बन जाता है। धीरे-धीरे संघर्ष के द्वारा, घर्षण के द्वारा केंद्रीकरण होता है।उस संघ के द्वारा तुम अधिक सजग, अधिक सावचेत हो जाते हो।दूसरा व्यक्ति तुम्हारे लिए आईना बन जाता है। तुम अपनी कुरूपता दूसरे में प्रतिफलित हुाई देख सकते हो। दूसरा तुम्हारे अचेतन को उकसाता है, उसे सतह पर लाता है। तुम्हें अपने अंतरतम के सभी छुपे हुए हिस्सों को जानना होगा, और उसका सबसे आसान तरीका है प्रतिफलित होना, संबंध के दर्पण में झांकना। मैं इसे सरल कहता हूं क्योंकि इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है लेकिन है यह बहुत दूभर, कठिन क्योंकि इसके द्वारा खुद को बदलना होगा।

जब तुम सद्गुरु के पास आते हो तब तो इससे भी बड़ी चुनौती खड़ी होती है, तुम्हें निर्णय लेना होता है; और निर्णय अज्ञात के पक्ष में लेना होता है और निर्णय समग्र और अंतिम होता है, अपरिवर्तनीय होता है। यह बच्चों का खेल नहीं है, यह वापिस न लौटने का बिंदु है।इतना संघर्ष होता है। लेकिन लगातार बदलते मत रहो क्योंकि यह खुद से बचने का उपाय है। और तुम कोमल रहोगे, तुम बचकाने रहोगे, परिपक्व नहीं होओगे। केवल अज्ञात ही तुम्हें आकर्षित करे क्योंकि उसे तुमने अभी तक जीया नहीं हैउस क्षेत्र में तुम गए नहीं हो। वहां जाओ! वहां कुछ नया घट सकता है। हमेशा नए के हक में निर्णय लो-- चाहे जो भी जोखिम हो, और तुम सतत विकसित होओगे। और ज्ञात के पक्ष में निर्णय लो तो तुम अतीत के साथ एक वर्तुल में घूमते रहोगे। तुम दोहराते रहोगे, तुम एक ग्रामोफोन रिकार्ड बन गए हो।
और निर्णय लो। जितने जल्दी निर्णय ले सको उतना अच्छा। स्थगित करना बिलकुल मूढ़ता है। कल भी तुम्हें निर्णय लेना ही होगा, तो आज ही क्यों नहीं? और क्या तुम ऐसा सोचते हो कि कल तुम आज से ज्यादा समझदार होओगे?क्या तुम सोचते हो कि कल तुम आज से ज्यादा जीवंत होओगे? क्या तुम सोचते हो कि कल तुम आज से अधिक जवान और ताज़ा होओगे? कल तुम ज्यादा बूढ़े हो ओगे, तुम्हारा साहस कम होगा, तुम अधिक अनुभवी हो ओगे, तुम्हारी चालाकी अधिक होगी। कल मौत अधिक पास आएगी, तुम कंपना शुरू करोगे और भयभीत होओगे।
कल के लिए कभ स्थगित मत करना। किसे पता, कल आए न आए! अगर निर्णय लेना ही है तो अभी लेना होगा।

(सौजन्‍य से: ओशो इंटरनेश्‍नल न्‍यूज लेटर)


प्रतिबद्धता का भय



केवल निर्णय लेने से ही तुम अधिक से अधिक सजग हो सकते हो, केवल निर्णय लेने से ही तुम अधिक से अधिक स्पष्ट हो सकते है, केवल निर्णय लेने से ही तुम तीक्ष्ण बुद्धि के बन सकते हो, अन्यथा तुम सुस्त रह जाओगे|
लोग एक गुरु से दूसरे गुरु के पास जाते है, एक सतगुरु से दूसरे सतगुरु के पास जाते है, एक मंदिर से दूसरे में, इसलिए नहीं कि वे एक महान खोजी है, पर इसलिए कि वे निर्णय लेने में असमर्थ होते है| इसलिए वे एक को छोड़ कर दूसरे की ओर जाते है| यह उनका प्रतिबद्धता से बचने का मार्ग है|

कुछ ऐसा ही अन्य मानवीय संबंधों में भी होता है : पुरुष एक स्त्री से दूसरी स्त्री की ओर जाता है, और बदलता ही चला जाता है| लोग समझते है कि वह एक महान प्रेमी है; लेकिन वह कोई प्रेमी नहीं है, वह केवल बच रहा है, वह किन्हीं गहरे संबंधों से बचने की कोशिश कर रहा है| क्योंकि गहरे संबंधों में समस्याओं का सामना करना पड़ता है| और इसमें बहुत पीड़ा से गुज़रना पड़ता है| इसलिए व्यक्ति केवल सुरक्षित रहना चाहता है; लोग कोशिश करते हैं कि किसी के भीतर गहरे न उतरें। अगर तुम ज्यादा गहरे गए तो हो सकता है तुम आसानी से वापिस न आओ। और तुम किसी के भीतर गहरे उतरो तो कोई और भी तुम्हारे भीतर गहरे उतरेगा–– उसी अनुपात में। अगर मैं तुम्हारे भीतर गहरे जाऊं तो इसका रास्ता यही है कि मैं भी तुम्हें अपने भीतर गहरे प्रवेश करने दूं। यह लेन-देन है, साझेदारी है। फिर हो सकता है व्यक्ति अत्यधिक उलझ जाए, और भागना मुश्किल हो जाए और असहनीय पीड़ा हो। इसलिए लोग सुरक्षित रहना पसंद करते हैं कि सिर्फ सतहों को मिलने दो। छिछले प्रेम संबंध! इससे पहले कि तुम फंसो, भाग खड़े होओ।
आधुनिक जीवन में ऐसा ही हो रहा है। लोग बचकाने हो गए हैं, इतने बचकाने कि उनकी सारी परिपक्वता खो गई है। परिपक्वता तभी आती है जब तुम आंतरिक पीड़ा से गुज़रने के लिए तैयार होते हो। प्रौढ़ता तभी आती है जब तुम यह चुनौती स्वीकारने के लिए तैयार होते हो। और प्रेम से बढ़कर कोई चुनौती नहीं है।  दूसरे व्यक्ति के साथ प्रसन्नता पूर्वक रहना दुनिया में से बड़ी से बड़ी चुनौती है । अकेले शांति पूर्वक जीना बहुत आसान है, किसी दूसरे के साथ शांति पूर्वक जीना महा कठिन है क्योंकि दो संसार टकराते हैं, दो दुनियाएं मिलती हैं–– सर्वथा भिन्न दुनियाएं। वे एक दूसरे से आकर्षित कैसे होते हैं? क्योंकि वे एक  दूसरे से बिलकुल अलग हैं, लगभग विपरीत धृव हैं।

जारी----
(सौजन्‍य से: ओशो इंटरनेश्‍नल न्‍यूज लेटर)

प्रेम और सेक्स में विरोध-अन्तिम





 जीवन को प्रेम से भरें
आप कहेंगे, हम सब प्रेम करते हैं। मैं आपसे कहूं, आप शायद ही प्रेम करते हों; आप प्रेम चाहते होंगे। और इन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। प्रेम करना और प्रेम चाहना, ये बड़ी अलग बातें हैं। हममें से अधिक लोग बच्चे ही रहकर मर जाते हैं। क्योंकि हरेक आदमी प्रेम चाहता है। प्रेम करना बड़ी अदभुत बात है। प्रेम चाहना बिलकुल बच्चों जैसी बात है।
छोटे-छोटे बच्चे प्रेम चाहते हैं। मां उनको प्रेम देती है। फिर वे बड़े होते हैं। वे और लोगों से भी प्रेम चाहते हैं, परिवार उनको प्रेम देता है। फिर वे और बड़े होते हैं। अगर वे पति हुए, तो अपनी पत्नियों से प्रेम चाहते हैं। अगर वे पत्नियां हुईं, तो वे अपने पतियों से प्रेम चाहती हैं। और जो भी प्रेम चाहता है, वह दुख झेलता है। क्योंकि प्रेम चाहा नहीं जा सकता, प्रेम केवल किया जाता है। चाहने में पक्का नहीं है, मिलेगा या नहीं मिलेगा। और जिससे तुम चाह रहे हो, वह भी तुमसे चाहेगा। तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। दोनों भिखारी मिल जाएंगे और भीख मांगेंगे। दुनिया में जितना पति-पत्नियों का संघर्ष है, 
उसका केवल एक ही कारण है कि वे दोनों एक-दूसरे से प्रेम चाह रहे हैं और देने में कोई भी समर्थ नहीं है।
इसे थोड़ा विचार करके देखना आप अपने मन के भीतर। आपकी आकांक्षा प्रेम चाहने की है हमेशा। चाहते हैं, कोई प्रेम करे। और जब कोई प्रेम करता है, तो अच्छा लगता है। लेकिन आपको पता नहीं है, वह दूसरा भी प्रेम करना केवल वैसे ही है जैसे कि कोई मछलियों को मारने वाला आटा फेंकता है। आटा वह मछलियों के लिए नहीं फेंक रहा है। आटा वह मछलियों को फांसने के लिए फेंक रहा है। वह आटा मछलियों को दे नहीं रहा है, वह मछलियों को चाहता है, इसलिए आटा फेंक रहा है। 
इस दुनिया में जितने लोग प्रेम करते हुए दिखायी पड़ते हैं, वे केवल प्रेम पाना चाहने के लिए आटा फेंक रहे हैं। थोड़ी देर वे आटा खिलाएंगे, फिर... और दूसरा व्यक्ति भी जो उनमें उत्सुक होगा, वह इसलिए उत्सुक होगा कि शायद इस आदमी से प्रेम मिलेगा। वह भी थोड़ा प्रेम प्रदर्शित करेगा। थोड़ी देर बाद पता चलेगा, वे दोनों भिखमंगे हैं और भूल में थे; एक-दूसरे को बादशाह समझ रहे थे! और थोड़ी देर बाद उनको पता चलेगा कि कोई किसी को प्रेम नहीं दे रहा है और तब संघर्ष की शुरुआत हो जाएगी।
दुनिया में दाम्पत्य जीवन नर्क बना हुआ है, क्योंकि हम सब प्रेम मांगते हैं, देना कोई भी जानता नहीं है।
झगड़े का बुनियादी कारण
सारे झगड़े के पीछे बुनियादी कारण इतना ही है। और कितना ही परिवर्तन हो, किसी तरह के विवाह हों, किसी तरह की समाज व्यवस्था बने, जब तक जो मैं कह रहा हूं अगर नहीं होगा, तो दुनिया में स्त्री और पुरुषों के संबंध अच्छे नहीं हो सकते। उनके अच्छे होने का एक ही रास्ता है कि हम यह समझें कि प्रेम दिया जाता है, प्रेम मांगा नहीं जाता, सिर्फ दिया जाता है। जो मिलता है, वह प्रसाद है, वह उसका मूल्य नहीं है। प्रेम दिया जाता है। जो मिलता है, वह उसका प्रसाद है, वह उसका मूल्य नहीं है। नहीं मिलेगा, तो भी देने वाले का आनंद होगा कि उसने दिया। अगर पति-पत्नी एक-दूसरे को प्रेम देना शुरू कर दें और मांगना बंद कर दें, तो जीवन स्वर्ग बन सकता है। और जितना वे प्रेम देंगे और मांगना बंद कर देंगे, उतना ही--अदभुत जगत की व्यवस्था है--उन्हें प्रेम मिलेगा। और उतना ही वे अदभुत 
अनुभव करेंगे--जितना वे प्रेम देंगे, उतना ही सेक्स उनका विलीन होता चला जाएगा।

(सौजन्‍य से : ओशो इंटर नेशनल न्‍यूज  लेटर)

प्रेम और सेक्स में विरोध







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आप जानकर हैरान होंगे, प्रेम और काम, प्रेम और सेक्स विरोधी चीजें हैं। जितना प्रेम विकसित होता है, सेक्स क्षीण हो जाता है। और जितना प्रेम कम होता है, उतना सेक्स ज्यादा हो जाता है। जिस आदमी में जितना ज्यादा प्रेम होगा, उतना उसमें सेक्स विलीन हो जाएगा। अगर आप परिपूर्ण प्रेम से भर जाएंगे, आपके भीतर सेक्स जैसी कोई चीज नहीं रह जाएगी। और अगर आपके भीतर कोई प्रेम नहीं है, तो आपके भीतर सब सेक्स है।
सेक्स की जो शक्ति है, उसका परिवर्तन, उसका उदात्तीकरण प्रेम में होता है। इसलिए अगर सेक्स से मुक्त होना है, तो सेक्स को दबाने से कुछ भी न होगा। उसे दबाकर कोई पागल हो सकता है। और दुनिया में जितने पागल हैं, उसमें से सौ में से नब्बे संख्या उन लोगों की है, जिन्होंने सेक्स की शक्ति को दबाने की कोशिश की है। और यह भी शायद आपको पता होगा कि सभ्यता जितनी विकसित होती है, उतने पागल बढ़ते जाते हैं, क्योंकि सभ्यता सबसे ज्यादा दमन सेक्स का करवाती है। 
सभ्यता सबसे ज्यादा दमन, सप्रेशन सेक्स का करवाती है! और इसलिए हर आदमी अपने सेक्स को दबाता है, सिकोड़ता है। वह दबा हुआ सेक्स विक्षिप्तता पैदा करता है, अनेक बीमारियां पैदा करता है, अनेक मानसिक रोग पैदा करता है। सेक्स को दबाने की जो भी चेष्टा है, वह पागलपन है। ढेर साधु पागल होते पाए जाते हैं। उसका कोई कारण नहीं है सिवाय इसके कि वे सेक्स को दबाने में लगे हुए हैं। और उनको पता नहीं है, सेक्स को दबाया नहीं जाता। प्रेम के द्वार खोलें, तो जो शक्ति सेक्स के मार्ग से बहती थी, वह प्रेम के प्रकाश में परिणत हो जाएगी। जो सेक्स की लपटें मालूम होती थीं, वे प्रेम का प्रकाश बन जाएंगी। प्रेम को विस्तीर्ण करें। प्रेम सेक्स का क्रिएटिव उपयोग है, उसका सृजनात्मक उपयोग है।
जारी---
(सौजन्‍य से : ओशो इंटर नेशनल न्‍यूज  लेटर)

आंसुओं से भयभीत मत होना






आंसुओं से कभी भी भयभीत मत होना। तथाकथित सभ्यता ने तुम्हें आंसुओं से अत्यंत भयभीत कर दिया है। इसने तुम्हारे भीतर एक तरह का अपराध भाव पैदा कर दिया है। जब आंसू आते हैं तो तुम शर्मिंदा महसूस करते हो। तुम्हें लगता है कि लोग क्या सोचते होंगे? मैं पुरुष होकर रो रहा हूं!यह कितना स्त्रैण और बचकाना लगता है। ऐसा नहीं होना चाहिये। तुम उन आंसुओं को रोक लेते होऔर तुम उसकी हत्या कर देते हो जो तुम्हारे भीतर पनप रहा होता है।

जो भी तुम्हारे पास है, आंसू उनमें सबसे अनूठी बात है, क्योंकि आंसू तुम्हारे अंतस के छलकने का परिणाम हैं। आंसू अनिवार्यत: दुख के ही द्योतक नहीं हैं; कई बार वे भावातिरेक से भी आते हैं, कई बार वे अपार शांति के कारण आते हैं, और कई बार वे आते हैं प्रेम व आनंद से। वास्तव में उनका दुख या सुख से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ भी जो तुमारी ह्रदय को छू जाये, कुछ भी जो तुम्हें अपने में आविष्ट कर ले, कुछ भी जो अतिरेक में हो, जिसे तुम समाहित न कर सको, बहने लगता है, आंसुओं के रूप में ।

इन्हें अत्यंत अहोभाव से स्वीकार करो, इन्हें जीयो, उनका पोषण करो, इनका स्वागत करो, और आंसुओं से ही तुम जान पाओगे प्रार्थना करने की कला।
(सौजन्‍य से- ओशो न्‍यमज  लेटर)