त्याग धीरे-धीरे नहीं


सत्य की ओर जीवन क्रांति अत्यंत द्रुत गति से होती है- सत्य की अंतदर्ृष्टिं भर हो, तो धीरे-धीरे नहीं, किंतु युगपत परिवर्तन घटित होते हैं। जहां स्वयं-बोध नहीं होता है, वही क्रम है, अन्यथा अक्रम में और छलांग में ही - विद्युत की चमक की भांति ही जीवन बदल जाता है।
कुछ लोग एक व्यक्ति को मेरे पास लाए थे। उन्हें कोई दुर्गुण पकड़ गया था। उसके प्रियजन चाहते थे कि वे उसे छोड़ दें। उस दुर्गुण के कारण उनका पूरा जीवन ही नष्ट हुआ जा रहा था। मैंने उनसे पूछा कि क्या विचार है? वे बोले, ''मैं धीरे-धीरे उसका त्याग कर दूंगा।'' यह सुन मैं हंसने लगा था और उनसे कहा था, ''धीरे-धीरे त्याग का कोई अर्थ नहीं होता है। कोई मनुष्य आग में गिर पड़ा हो, तो क्या वह उससे धीरे-धीरे निकलेगा? और, यदि वह कहे कि मैं धीरे-धीरे निकलने का प्रयास करूंगा, तो इसका क्या अर्थ होगा? क्या इसका स्पष्ट अर्थ नहीं होगा कि उसे स्वयं आग नहीं दिखाई पड़ रही है?''
फिर मैंने उनसे एक कहानी कही। परमहंस रामकृष्ण की सत्संगति से एक धनाढ्य युवक बहुत प्रभावित था। वह एक दिन परमहंस देव के पास एक हजार स्वर्ण मुद्राएं भेंट करने लाया। रामकृष्ण ने उससे कहा, ''इस कचरे को गंगा को भेंट कर आओ।'' अब वह क्या करे? उसे जाकर वे मुद्राएं गंगा को भेंट करनी पड़ीं। लेकिन वह बहुत देर से वापस लौटा , क्योंकि उसने एक-एक मुद्रा गिनकर गंगा में फेंकी! एक-दो- तीन- हजार - स्वभावत: बहुत देर उसे लगी। उसकी यह दशा सुनकर रामकृष्ण ने उससे कहा था, ''जिस जगह तू एक कदम उठाकर पहुंच सकता था, वहां पहुंचने के लिये तूने व्यर्थ ही हजार कदम उटाये।''
सत्य को जानो और अनुभव करो, तो किसी भी बात का त्याग धीरे-धीरे नहीं करना होता है। सत्य की अनुभूति ही त्याग बन जाती है। अज्ञान जहां हजार कदमों में नहीं पहुंचता, ज्ञान वहां एक ही कदम में पहुंच जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाडंडेशन)