'पर' में 'स्व' के दर्शन


एक साल हुए कुछ बीज बोये थे। अब उनमें फूल आ गये हैं। कितना चाहा कि फूल सीधे आ जाएं, पर फूल सीधे नहीं आते हैं। फूल लाना हो तो बीज बोने पड़ते हैं, पौधा सम्हालना पड़ता है और तब अंत में प्रतीक्षित का दर्शन होता है।
यह प्रक्रिया फूलों के संबंध में ही नहीं, जीवन के संबंध में भी सत्य है।
अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, सत्य, ब्रह्मंचर्य- ये सब जीवन-साधन के फूल हैं। कोई इन्हें सीधे नहीं ला सकता। इन्हें लाने के लिए आत्म- ज्ञान के बीज बोने पड़ते हैं। उसके आते ही ये सब अपने आप चले आते हैं।
आत्म-ज्ञान मूल है, शेष सब उसके परिणाम हैं।
जीवन के बाह्य आचार का कुरूप होना, आंतरिक सड़न का प्रतीक होता है और उसका सौंदर्य आंतरिक जीवन और संगीत की प्रतिध्वनि होती है।
इससे लक्षणों को बदलने और परिवर्तन करने से कुछ भी नहीं हो सकता है। मूलत: जहां विकार की जड़े हैं, वहीं बदलाहट करनी है।
आत्म-अज्ञान विकार की जड़ है। 'मैं कौन हूं?'- यह जानना है। यह जानते ही अभय और अद्वैत की उपलब्धि होती है। अद्वैत बोध- यह बोध कि जो मैं हूं, वही दूसरा भी है- समस्त हिंसा को जड़ से नष्ट कर देता है और परिणाम में आती है, अहिंसा। 'पर' को 'पर' जानना हिंसा है। 'पर' में 'स्व' के दर्शन अहिंसा है और अहिंसा है, धर्म की आत्मा।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)