अंध-जीवेषणा


मैंने सुना है कि क्राइस्ट ने लोगों को कब्रों से उठाया और उन्हें जीवन दिया। जो स्वयं को शरीर जानता हे, वह कब्र में ही है। शरीर के ऊपर आत्मा को जानकर ही कोई कब्र से उठता और जीवित होता है।
मिश्र के किसी प्राचीन आश्रम में किसी साधु की मृत्यु हो गई थी। उसे भूमि-गर्भ में निर्मित विशाल मुर्दाघर में उतार दिया गया। लेकिन सौभाग्य या दुर्भाग्य से वह मरा नहीं और कुछ समय बाद मृतकों की उस बस्ती में होश में आ गया। उसकी मानसिक पीड़ा और संताप की कल्पना करना भी कठिन है। उस दुर्गध और मृत्यु से भरी अंधेरी बस्ती में, जहां सैकड़ों मुरदे सड़ रहे थे, वह जीवित था! बाहर पहुंचने का कोई मार्ग नहीं, आवाज बाहर पहुंच सके, इस तक की कोई संभावना नहीं। उसने क्या किया होगा? क्या वह भूखा और प्यासा मर गया? क्या उसने उस मृत-जीवन का मोह छोड़कर स्वयं को बचाने की कोई कोशिश नहीं की? नहीं, मित्र, जीवन-आसक्ति बहुत गहरी और घनी है। वह साधु वहीं जीने लगा। कीड़े-मकोड़े उसका भोजन बन गये। मृत्यु-गृह की दीवारों से रिसता गंदा पानी वह पी लेता और कीड़ों पर निर्वाह करता। मुरदों के कपड़े निकाल कर उसने अपने सोने और पहनने की व्यवस्था कर ली थी। और, वह निरंतर अपने किसी साथी की मृत्यु के लिये प्रार्थना करता रहता। क्योंकि, किसी के मरने पर ही उस अंध-गृह के द्वार खुल सकते थे। वर्ष पर वर्ष बीते उसे तो समय की भी पता नहीं पड़ता था। फिर एक दिन कोई मरा, तो द्वार खुले और लोगों ने उसे जीवित पाया। उसकी दाढ़ी सफेद हो गयी थी और जमीन को छूती थी। और, जब लोग उसे बाहर निकाल रहे थे, तब वह मुरदों से उतारे गये कपड़े और उनके कपड़ों में से इकट्ठे किये गये रुपये-पैसे साथ ले लेना नहीं भूला था!
यह अतीत में घटी कोई घटना है या कि स्वयं हमारे जीवन का प्रतिबिंब? क्या यह घटना हम सबके जीवन में अभी और यहीं नहीं घट रही है? मैं देखता हूं, तो पाता हूं कि हममें से प्रत्येक एक दूसरे की मृत्यु के लिए प्रार्थना कर रहा है। और, हम सब मुरदों की बस्ती में हैं, जहां से बाहर निकलने के लिए कोई द्वार नहीं मालूम होता है। और, हम भी दूसरे मुरदों के कपड़े और पैसे छीन रहे हैं। और हमारा निर्वाह भी कीड़े-मकोड़ों पर ही है। और, यह सब हो रहा है, अंधी जीवन-आसक्ति-जीवेषणा के कारण।
अंध-जीवेषणा से परिचालित व्यक्ति वास्तविक जीवन को अनुभव नहीं कर पाता। उसकी धुंध से जो मुक्त होता है, वही जीवन को जानता है। उससे प्रभावित चेतना कब्र में ही है, ऐसा ही जानना।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाडंडेशन)