दुख की ईंटें हटाकर सुख की ईंटें रखिये

गतांश से आगे
यह भूल इसलिए हो गई कि हम शरीर के शत्रु हैं। सारी मनुष्यता अब तक शरीर की दुश्मन रही है। इंद्रियों के दुश्मन हैं। और इंद्रियां द्वार हैं जीवन के। इंद्रियों की दुश्मनी की जरूरत नहीं है। इंद्रियों की गुलामी न हो, इतना ही काफी है। इंद्रियों की मालकियत बहुत है। लेकिन इंद्रियों की मालकियत के लिए इंद्रियों से दुश्मनी करने की कोई जरूरत नहीं है।सच तो यह है कि जिसके हम दुश्मन हो जाएं उसके हम मालिक कभी भी नहीं हो पाते। मालिक तो हम सिर्फ उसी के हो पाते हैं जिसे हम प्रेम करते हैं।इंद्रियों और शरीर की दुश्मनी के कारण एक द्वैत आदमी में हमने पैदा किया है। हमने बताया है कि शरीर कुछ और, इंद्रियां कुछ और, तुम कुछ और; और तुम्हारे और शरीर के बीच सतत दुश्मनी है, लड़ाई है। अब हम अपने ही द्वार-दरवाजों से लड़ रहे हैं। जैसे कोई आदमी एक घर में रहता हो, और अपनी खिड़कियों का दुश्मन हो जाए, अपने दरवाजों का दुश्मन हो जाए, और खिड़कियों और अपने बीच दुश्मनी मान ले।
हम यहां जिस तरह की जिंदगी जीते हैं, आगे जो जिंदगी है हम उसके आधार यहीं रखते हैं, इसी पृथ्वी पर, इस पृथ्वी के विरोध में नहीं। अगर आत्मा की कोई जिंदगी है तो उसके आधार हम रखते हैं शरीर की जिंदगी में, शरीर के विरोध में नहीं। अगर अतींद्रिय कोई आनंद हैं तो उनके भी आधार हम रखते हैं इंद्रियों के आनंदों में, उसके विपरीत नहीं। जिंदगी विरोध नहीं, जिंदगी एक हार्मनी है। यहां किसी चीज में कोई विरोध नहीं है। न शरीर और आत्मा में विरोध है, न पदार्थ और परमात्मा में विरोध है। यहां किसी चीज में विरोध नहीं है, जिंदगी एक इकट्ठी चीज है। लेकिन मनुष्य ने अब तक विरोध मान रखा था।
तीसरे सूत्र में मैं आपसे कहना चाहता हूं क्षण, इंद्रिय, जीवन के सहज-सरल सुखों का विरोध नहीं। उन्हें सहज स्वीकार कर लेना। ताकि जीवन में इतना सुख भर जाए कि दुख देने की क्षमता नष्ट हो जाए। वह अपने से हो जाती है, वह अपने से समाप्त हो जाती है। और अगर एक बात हो जाए इस पृथ्वी पर कि आदमी दूसरे को दुख देने में उत्सुक न रह जाए तो नये समाज के जन्म होने में देर लग सकती है? 
नये समाज का मतलब क्या है? नये समाज की खोज का अर्थ क्या है? 
नये समाज की खोज का अर्थ है ऐसा समाज जहां कोई किसी के दुख के लिए उत्सुक नहीं है; जहां प्रत्येक प्रत्येक के सुख के लिए आतुर है। यह हो सकता है।


समाप्‍त

दुख की ईंटें हटाकर सुख की ईंटें रखिये

आज तक का समाज दुख से भरा हुआ समाज है, उसकी ईंट ही दुख की है, उसकी बुनियाद ही दुख की है। और जब दुखी समाज होगा तो समाज में हिंसा होगी, क्योंकि दुखी आदमी हिंसा करेगा। और जब समाज दुखी होगा और जीवन दुखी होगा तो आदमी क्रोधी होगा, दुखी आदमी क्रोध करेगा। और जब जिंदगी उदास होगी, दुखी होगी, तो युद्ध होंगे, संघर्ष होंगे, घृणा होगी। दुख सब चीज का मूल उदगम है।यदि नये समाज को जन्म देना हो तो दुख की ईंटों को हटा कर सुख की ईंटें रखनी जरूरी हैं। और वे ईंटें तभी रखी जा सकती हैं जब हम जीवन के सब सुखों को सहज स्वीकार कर लें और सब सुखों को सहज निमंत्रण दे सकें।
निश्चित ही, बूंद-बूंद सुख आते हैं; इकट्ठा सुख नहीं बरसता है। इकट्ठा पानी भी नहीं बरसता है; बूंद-बूंद सब बरस रहा है। उस बूंद-बूंद को स्वीकार कर लेना पड़ेगा। क्षण ही हमारे हाथ में आता है। एक क्षण से ज्यादा किसी के हाथ में नहीं है। उस क्षण में ही जीना है, उस क्षण में ही सुख को पूरा का पूरा पी लेना है। उस क्षण को खाली रिक्त जो छोड़ देगा और प्रतीक्षा करेगा कि शाश्वत को पाएंगे हम-क्षण भी छूट जाएगा, शाश्वत भी नहीं मिलेगा। क्षण को पीने की कला, सुख-सृजन की कला है।

और हम सब क्षण-विरोधी हैं।
आदमी सुखी हो सकता है अगर वह प्रतिपल, जो उसे मिल रहा है, उसे पूरे अनुग्रह से और पूरे आनंद से आलिंगन कर ले। सांझ फूल मुरझाएगा, अभी तो फूल जिंदा है! सांझ की चिंता अभी से क्या? जब तक फूल जिंदा है तब तक उसके सौंदर्य को जीया जा सकता है। और जिस व्यक्ति ने जिंदा फूल के सौंदर्य को जी लिया, वह जब फूल मुरझाता है और गिरता है, तब वह दिन भर के सौंदर्य से इतना भर जाता है कि फूल की संध्या और गिरती हुई पंखुड़ियां भी फिर उसे सुंदर मालूम पड़ती हैं। आंख में सौंदर्य भर जाए तो पंखुड़ियों का गिरना पंखुड़ियों के खिलने से कम सुंदर नहीं है। और आंख में सौंदर्य भर जाए तो बचपन से ज्यादा सौंदर्य बुढ़ापे का है। लेकिन जीवन भर दुख से गुजरता हो तो सांझ भी कुरूप हो जाती है। सांझ कुरूप हो ही जाएगी, वह जिंदगी भर का जोड़ है।
मैं समझ पाता हूं कि अगर एक नया मनुष्य पैदा करना है-जो कि नये समाज के लिए जरूरी है-तो हमें क्षण में सुख लेने की क्षमता और क्षण में सुख लेने का आदर और अनुग्रह और ग्रॅटीट्यूड पैदा करना पड़ेगा। हमें यह कहना बंद कर देना पड़ेगा कि सांझ फूल मुरझा जाएगा। सांझ तो सब मुरझा जाएंगे। सांझ तो आएगी, लेकिन सांझ का अपना सौंदर्य है, सुबह का अपना सौंदर्य है और सुबह के सौंदर्य को सांझ के सौंदर्य से तुलना करने की भी कोई जरूरत नहीं है। जिंदगी का अपना सौंदर्य है, मृत्यु का अपना सौंदर्य है। दीये के जलने का अपना सौंदर्य है, दीये के बुझ जाने का अपना सौंदर्य है। चांद की रात ही सुंदर नहीं होती, अंधेरी अमावस की रात का भी अपना सौंदर्य है। और जो देखने में समर्थ हो जाता है वह सब चीजों से सौंदर्य और सब चीजों से सुख पाना शुरू कर देता है।
लेकिन यह क्यों भूल हो गई कि आदमी इतना उदास और दुखी क्यों हमने निर्मित किया? 
यह भूल इसलिए हो गई कि हम शरीर के शत्रु हैं। सारी मनुष्यता अब तक शरीर की दुश्मन रही है। इंद्रियों के दुश्मन हैं। और इंद्रियां द्वार हैं जीवन के। इंद्रियों की दुश्मनी की जरूरत नहीं है। इंद्रियों की गुलामी न हो, इतना ही काफी है। इंद्रियों की मालकियत बहुत है। लेकिन इंद्रियों की मालकियत के लिए इंद्रियों से दुश्मनी करने की कोई जरूरत नहीं है।
जारी:::सौजन्‍य से : ओशो न्‍यूज  लेटर 

दिल दे दिया है, जान भी देंगे, सब्जी नहीं लायेंगे सनम

अमृत साधना

अभी मैं टैक्सी में बैठकर आ रही थी, टैक्सी ड्राइवर ने रेडियो मिर्ची चला रखा था। दोपहर का वक्त था इसलिए पुराने गाने बज रहे थे। यह गाना सुना: "दिल दे दिया है, जान भी देंगे, दगा नहीं देंगेे सनम।' मुझे हंसी आ गई। यह गाना कम से कम तीस साल पुराना होगा। न जाने कितनी बार युवक-युवतियों ने गुनगुनाया होगा, एक दूसरे को रोमांटिक पलों में सुनाया होगा। मन ही मन सोचा होगा कि हम इतना प्यार करते हैं कि उसके लिए जान भी दे देंगे। कहां गया वह प्यार? ये रोमानी "यालात दिल बहलाने के लिए अच्छे हैं लेकिन प्यार जब यथार्थ की कसौटी पर कसा जाता है तब सारा रोमांस रफूचक्कर हो जाता है।
यकीन नहीं होता? तो फिर घर-घर  जाकर  रोज होनेवाले डायलॉग सुनिये। प्रेमी के लिए "चांद और सूरज बीच गगन से इस धरती पर उतार दूं' कहनेवाला युवक पति बनने के बाद ऊपर रक्खा हुआ डिब्बा उतारने में झुंझलाता है, दफ्तर से आते हुए सब्जी ले आना उसे तौहीन लगती है। वह प्रेमिका को बादलों से पार तो ले जा सकता है लेकिन जुहू बीच घुमाने नहीं ले जा सकता। और प्रेमी की आंखों में डूबने की बातें करने वाली पत्नी पास बैठे हुए पति को देखने की बजाय  टीवी पर किसी हीरो को देखना ज्यादा पसंद करती है।
प्यार के साथ ये हादसे क्यों होते हैं? ये कोई आज के किस्से नहीं हैं , सदियों से होते चले आ रहे  हैं। जरा गौर करें, जिनके अमर प्रेम की कहानियां सुनाई जाती हैं वे सभी प्रेमी ऐसे हैं जिनका कभी मिलन नहीं हुआ: शीरीं-फरहाद, सोहनी-महिवाल, हीर-रांझा, रोमियो- जुलियेट, और भी बहुत सारे। इतिहास में उन प्रेमियों कि कोई  दास्तान नहीं है जो साथ रहने लगे।
क्यों? क्योंकि गृहस्थी की आग में तवे पर रोटी ही नहीं जलती, प्रेम भी जलकर राख हो जाता है-- वह प्रेम जो महज रूमानी कल्पनाओं और शेरो शायरी पर आधारित हो।
तथापि  मनुष्य को प्रेम बेहद जरूरत है। वह ऐसी अनबुझ प्यास है जिसे बुझाने का कोई उपाय मनुष्य के पास नहीं है। उसकी वजह यह है कि लोग प्रेम के स्वभाव को नहीं समझते। वे प्रेम के ऊपर अपनी धारणाओं और अपेक्षाओं को थोपते हैं। उनसे कुचलकर प्रेम जैसी नाजुक, अपार्थिव तरंग मर जाती है। क्या है प्रेम का स्वभाव?
ओशो ने इसे बहुत खूबसूरती से समझाया है। वे कहते हैं, ""लव इज़ इटर्नल, यू किल इट बाइ ट्राइंग टु मेक इट परमनेंट। प्रेम शाश्वत है लेकिन उसे स्थायी बनाने की कोशिश में तुम उसे मार डालते हो।''
शाश्वत का अर्थ है जो क्षण-क्षण मरे और जी उठे । प्रेम इतना अस्थायी है क्योंकि प्रेम दिव्यत्व का एक झोंका है, जैसे आकाश में बिजली कौंध गई और विदा हो गई। क्या उसे कोई दुबारा चमका सकता है? वह अपनी मर्जी की मालिक है। प्रेम ऐसा ही होता है, एक क्षण में इतना  गहन, इतना उत्कट कि लगता है कभी मरेगा नहीं, और दूसरे क्षण नदारद। हमारी चाहत कि यह सघन अनुभव कल भी मिले, प्रेम की हत्या कर देती है। फिर प्रेमी आहें भरते हैं कि  रास्ते वही, मुसाफिर भी वही, इक तारा न जाने कहां खो गया!  यह तारा प्रेम का तारा है, जो आ गया तो  ज़ेेहरे नसीब, और चला गया तो कहें अलविदा। इतनी स्वतंत्रता जहां हो वहीं प्रेम टिक सकता है।
प्रेम के साथ मृत्यु इस तरह जुड़ी है जैसे पदार्थ के साथ छाया। इसीलिए प्रेम में मर मिट जाने का जुनून सवार होता है। " मैं तुझ पर मरता हूं या मरती हूं," जैसे भाव पैदा होते हैं। वे उस पल झूठ नहीं होते, लेकिन उनकी उम" उतनी ही होती है जितनी कि प्रेम की: क्षणजीवि।   
फरवरी में आनेवाला वैलेंटाईन दिवस भी संत वैलेंटाईन की मृत्यु से शुरू हुआ था। वे अपने लिए नहीं बल्कि उन प्रेमी युगलों के लिए मरे जिनकी शादियां वे चोरी छुपे करवाते थे। सम"ाट ने इस अपराध के लिए उन्हें मृत्युदंड दिया।
प्रेम में अगर कोई मरने की कला सीख ले तो वैलेंटाइन दिवस के साथ शुरू होनेवाला प्रेम जिंदगी भर उनके साथ बना रहेगा। प्रेम में एक ही बाधा है-- न तो घर-परिवार, न ज़माना-- प्रेम में बाधा है तो अहंकार की। प्रेम "आइ लव यू " से शुरू होता है, और गुलाब, गुलशन और गुलबानो से गुजरता हुआ यह झरना अहंकार के रेगिस्तान में खो जाता है। फिर जरा-सी अनबन हुई नहीं कि सवाल खड़ा होता है, पहले कौन झुकेगा? अगर दोनों के बीच बातचीत बंद हो तो दोनों सोचते हैं, पहले कौन फोन करेगा? क्योंकि जो पहले फोन करे वह हार गया।
लेकिन, प्रेम का गणित उल्टा है, यहां जो जितना हारेगा वह जीतेगा। इसे ठीक से समझने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने एक नया शब्द गढ़ा है: लव-हेट रिलेशनशिप। यह मन का स्वभाव है, वह जिससे प्रेम करता है उसी से नफरत  भी करता है। शायद सुनकर धक्का लगे, लेकिन  यह सचाई है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है, अपराध बोध पालने की कोई बात नहीं है। जैसे पृथ्वी गोल-गोल घूमती रहती है और अंधेरे-उजाले का खेल रचती है वैसे ही मन भी घूमता रहता है और नफरत-प्यार का ताना-बाना बुनता है। यह उसका स्वभाव है। एक बार यह समझ आ गई तो प्रेम का खेल मजे से खेला जा सकता है। इस वैलेंटाइन पर अपने प्रेमी को " आइ लव-हेट यू' कहना शुरू करें। पहले उन्हें समझा जरूर दें , नहीं तो लेने के देने पड़ जायेंगे।



नीति मार्ग नहीं है- गतांक से आगे




तो मैं आपसे निवेदन करता हूं, नैतिक होने से कोई धार्मिक नहीं होता। नैतिक होने से वस्तुतः कोई नैतिक ही नहीं होता है, क्योंकि नैतिकता अहंकार को समाप्त ही नहीं कर6ती और बढ़ाती है। और अहंकार सबसे बड़ी अनैतिकता है।
धार्मिक होने से यह होता है। धार्मिक चित्त, रिलीजस माइंड एक अदभुत क्रांति है। सारा जीवन बदल जाता है। फिर चोरी से बचना नहीं पड़ता, चोरी का चित्त ही चला जाता है। फिर झूठ से बचना नहीं पड़ता, झूठ का चित्त ही चला जाता है। फिर क्रोध से बचना नहीं पड़ता, क्रोध का चित्त चला जाता है। बुद्ध एक गांव के पास से निकलते थे, कुछ लोग वहां इकट्ठे हुए और उन्होंने बुद्ध को बहुत गालियां दीं, बहुत अपमानजनक शब्द कहे। बुद्ध ने खड़े होकर सुना, और फिर बाद में उनसे कहा कि मित्रो, तुम्हारी बात पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव थोड़ा जल्दी पहुंचना है।
वे लोग थोड़े हैरान हुए, गाली देने वाला सबसे ज्यादा हैरान तभी होता है जब दूसरा आदमी उसकी गाली लेता नहीं। अगर ले ले तब तो हैरानी खतम हो जाती है। मामला बन जाता है। वह भी हमारे तल पर उतर आता है, हम भी उसके तल पर खड़े हो जाते हैं। बात सीधी और साफ हो जाती है। लेकिन बुद्ध ने कहा कि मुझे दूसरे गांव जल्दी जाना है। अगर तुम्हारी बातें पूरी हुई हों तो मैं जाऊं।
उन लोगों ने कहा: ये बातें थीं क्या? हमने इतनी गालियां दीं, इतना अपमान किया?
बुद्ध ने कहा: तुमने किया वह तो ठीक है, लेकिन इतनी आजादी तो मुझे दोगे कि मैं उसे लूं या न लूं? इतना हक तो मुझे दोगे? तुमने गाली दी वह ठीक लेकिन मैं न लूं, इतना हक तो मुझे है। कि मुझे मजबूरी है कि मुझे लेनी पड़ेगी? बुद्ध ने कहा, पहले मैं भी ले लेता था लोग जो भी देते थे, अब तो मैं चुन-चुन कर लेता हूं जो लेना होता है, जो नहीं लेता वह नहीं लेता।
पिछले गांव में कुछ लोग मिठाइयां लेकर आए थे और कहने लगे कि ले लो। मैंने कहा: पेट मेरा भरा है, और बोझ ढोना ठीक नहीं, दूसरे गांव में फिर कोई दे ही देगा। वे बेचारे वापस ले गए। मिठाइयां वापस ले गए। अब तुम क्या करोगे? तुम गालियां लेकर आए हो। तुम्हें वापस ले जाना पड़ेगा। तुम गड़बड़ आदमी के पास आए गए। मैं लेता नहीं हूं। और उन्होंने तो अपने बच्चों को बांट दी होंगी मिठाइयां, तुम अपनी गालियां का क्या करोगे? बड़ी मुसीबत में पड़ गए। और तुम पर मुझे बहुत दया आती है। अब मैं क्या करूं, तुम्हें किस भांति सहारा दूं? मैं किस भांति तुम्हें बोझ से हलका करूं? मैं बिलकुल मुश्किल में हूं, मैंने गालियां लेना बंद कर दीं। और गालियां लेनी मैंने इसलिए बंद नहीं कीं कि तुम पर मुझे कोई दया करनी है बल्कि इसलिए कि मुझे अपने पर दया आनी शुरू हो गई। जैसे-जैसे मैंने भीतर देखा मुझे अपने पर दया आने लगी और अपने से प्रेम हो गया। अब मैं अपने को इतना प्रेम करता हूं कि मैं गाली नहीं लेता। अब मैं अपने को इतना प्रेम करता हूं कि मैं क्रोधित नहीं होता। अब मैं अपने को इतना प्रेम करता हूं कि चोरी असंभव है।
बुद्ध ने यह कहा: जब भी कोई व्यक्ति अपने चित्त में धर्म को पाएगा, तो वह पाएगा कि क्रोध असंभव हो गया। गाली लेना असंभव हो गया। अपमान लेना असंभव हो गया। करना भी असंभव हो गया। जीवन एक बिलकुल ही नई दिशा में गति करना शुरू करता है। नैतिक व्यक्ति की दिशा का कोई भेद नहीं है वह अनैतिक के साथ ही खड़ा है। जिस तरफ अनैतिक आंख किए खड़ा है नैतिक व्यक्ति उस तरफ पीठ किए खड़ा है, लेकिन खड़ा वहीं है, उसके खड़े होने में कोई डायमेंशन का फर्क नहीं है, कोई दिशा का फर्क नहीं है, कोई आयाम का फर्क नहीं है। वह वहीं खड़ा है। उसकी पीठ फेर लेने में कोई दिक्कत नहीं है, जरा ही हाथ का धक्का दो उसकी पीठ फेरी जा सकती है। जरा ही उसको जोर से एक सुई चुभा दो, तो उसकी स्किनडीप जो मॉरेलिटी है, खतम हो जाएगी, वह अपने असली रूप में वापस लौट आएगा। यह तो रोज होता है।
एक आदमी को हम देखते हैं रोज मस्जिद जाता है, नमाज पड़ता है; एक आदमी को हम रोज देखते हैं गीता खोलता, पाठ करता है, तिलक लगाता है, चंदन लगाता है, सब करता है, और एक दिन हम अचानक पाते हैं कि हिंदू-मुसलमान लड़ गए। और वह नमाज पढ़ने वाला और गीता पढ़ने वाला छुरा लिए दौड़ा जा रहा है। बड़ा मुश्किल है। यह क्या हो गया इनको? ये तो बड़े नैतिक और भले आदमी थे, रोज नमाज पड़ते थे, गीता पड़ते थे, रामायण पड़ते थे, यह हो क्या गया? एक मंदिर तोड़ रहा है, दूसरा मस्जिद में आग लगा रहा है। यह हो क्या गया? इनकी नैतिकता गई कहां? इनका धर्म कहां गया? चमड़े से भी पतली नैतिकता थी वह, जरा उसको खरोंच दो खतम हो जाती है, उसमें कोई देर नहीं लगती। ऐसी नैतिकता का कोई मूल्य नहीं है। और ऐसी नैतिकता के भ्रम में मनुष्य आज तक रहा है।
मैं नीति को धर्म नहीं मानता, लेकिन धर्म को जरूर नीति मानता हूं।
समाप्‍त
(सौजन्‍य से : ओशो न्‍यूज लेटर)