दिव्य प्यास

कल एक जगह बोला हूं।
कहा मैं तुम्हें असंतुष्ट करना चाहता हूं। एक दिव्य प्यास, एक अलौकिक अतृप्ति सब में पैदा हो, यही मेरी कामन है। मनुष्य जो है, उसमें तृप्त रह जाना मृत्यु है। मनुष्य विकास का अंत नहीं है। एक विकास-सोपान है। जो उसमें प्रकट है, वह अप्रकट की तुलना में कुछ भी नहीं है। जो वह है, वह उसकी तुलना में जो कि वह हो सकता है, कुछ न होने के बराबर ही है।
धर्म, तृप्ति की मृत्यु से, प्रत्येक को अतृप्ति के जीवन में जगाना चाहता है। क्योंकि उस अतृप्ति से ही उस बिंदु तक पहुंचना हो सकता है, जहां कि वास्तविक संतृप्ति है।
मनुष्य को मनुष्यता का अतिक्रमण करना है।
यह अतिक्रमण ही उसे दिव्यता में प्रवेश देता है।
यह अतिक्रमण कैसा होगा? एक परिभाषा को समझें, तो अतिक्रमण की प्रतिक्रिया भी समझ में आ जाती है।
पशुता- विचार-प्रकिया के पूर्व की स्थिति।
मनुष्यता- विचार-प्रक्रिया की स्थिति।
दिव्यता - विचार-प्रक्रिया के अतीत की स्थिति।
विचार-प्रक्रिया के घेरे के पार चलें, तो चेतना दिव्यता में पहुंच जाती है।
विचार-प्रक्रिया को पार करना मनुष्यता का अतिक्रमण कर जाना है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)