स्वयं का साक्षात करो

रात्रि अभी गयी नहीं है और विदा होते तारों से आकाश भरा है। नदी एक पतली चांदी की धार जैसी मालूम होती है। रेत, रात गिरी ओस से ठंडी हो गयी है और हवाओं में बहुत ठंडक है।
एक गहरा सन्नाटा है और बीच-बीच में पक्षियों की आवाज उसे और गहरा बना देती है।
एक मित्र को साथ ले कुछ जल्दी ही इस एकांत में चला आया हूं। वे मित्र कह रहे हैं कि एकांत में भय मालूम होता है और सन्नाटा काटता सा लगता है। किसी भांति अपने को भरे रहें तो ठीक, अन्यथा न मालूम कैसा संताप और उदासी घेर लेती है।
यह संताप प्रत्येक को घेरता है। कोई भी अपना साक्षात नहीं करना चाहता है। स्वयं में झांकने से घबराहट मालूम होती है। और एकांत स्वयं के साथ छोड़ देता है, इसलिए एकांत भयभीत करता है। 'पर' में उलझे हो, तो 'स्व' भूल जाता है। वह एक तरह की मूच्र्छा है और पलायन है। सारे जीवन मनुष्य इस पलायन में लगा रहता है। यह पलायन अस्थायी है और मनुष्य किसी भी भांति अपने आप से बच नहीं सकता। बचाव के लिए की गयीं उसकी सब चेष्टाएं व्यर्थ हो जाती हैं। क्योंकि वह जिससे बचना चाह रहा है, वह स्वयं तो वही है। अपने कैसे बचा जा सकता है और अपने से कैसे भागा जा सकता है!
हम सब भाग सकते हैं, पर स्वयं से नहीं भाग सकते हैं। जीवन भर भागकर हम अंत में पायेंगे कि कहीं भी नहीं पहुंचे हैं। इसलिए जो विवेकशील हैं, वे स्वयं से भागते नहीं, स्वयं का साक्षात करते हैं।
मनुष्य भीतर झांके तो शून्य का अनुभव होता है। वहां अनंत शून्य है। इसलिए घबड़ाकर वह बाहर भागता है। उस शून्य को भरने का वह अनंत प्रयास करता है। संसार में और संबंधों में उस शून्य को भरना चाहता है। वह शून्य किसी भी तरह भरा नहीं जा सकता है। उसे भरना असंभव है और यही उसका संताप है और असफलता है।
मृत्यु इस संताप को उघाड़कर उसके सामने कर देती है। मृत्यु उसे इसी शून्य में डाल देती है, जिससे वह जीवन भर बचता था और इसलिए मृत्यु का भय सर्वोपरि है।
मैं कहता हूं, स्वयं के शून्य से भागना अज्ञान है। उसके साक्षात से, उसमें प्रवेश से जीवन का समाधान उपलब्ध होता है। धर्म शून्य में प्रवेश है। मनुष्य नितांत एकांत में अपने साथ जो करता है, वही धर्म है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)