ज्ञान, बुद्धि और स्मृति

दोपहर ढलने को है। आकाश अभी खुला था, फिर जोर की हवाएं आयीं और अब काली बदलियों में वह ढका जा रहा है।
सूरज छिप गया है और हवाओं में ठंडक है।
एक फकीर द्वार पर आया है। उसके हाथ में एक तोता है। पिंजरा नहीं है, पर दिखता है कि तोता उड़ना भूल गया चुका है। आते ही फकीर नहीं, तोता ही बोला है, 'राम कहो, राम कहो, राम.. राम..राम।' मैंने कहा, 'तोता तो अच्छा बोलता है।' फकीर बोला, 'महाराज, यह तोता बड़ा पंडित है!' यह सुन मुझे हंसी आ गयी। मैंने कहा, 'होना चाहिए, क्योंकि सभी पंडित तोते ही होते हैं!'
यह मुझे बहुत स्पष्ट दिखता है कि ज्ञान सीखने से नहीं आता है और जो सीखने से आता है, वह ज्ञान नहीं है। ज्ञान बुद्धि की उपलब्धि नहीं है। बुद्धि स्मृति है और स्मृति से नहीं, स्मृति से हट जाने से ज्ञान आता है। जो सीख जाता है, वह तोता बन जाता है। इस तोता-रटन का नाम पांडित्य है।
पांडित्य मृत तथ्यों का संग्रह है। ये तथ्य सब आधार हैं। अनुभूति में इनकी कोई जड़े नहीं होती हैं। इन मृत तथ्यों से घिरा चित्त, उसके दर्शन नहीं कर पाता है, जो कि 'है'। ये तथ्य परदा बन जाते हैं। इस परदे को हटाने पर अज्ञात का उदघाटन होता है। यह दर्शन ही ज्ञान है। सीखना नहीं- दर्शन ही ज्ञान है। ग्रंथ नहीं, तथ्य नहीं- सत्य-दृष्टिं उस उपलब्धि का मार्ग है। सत्य-दर्शन जब हो जाता है, तब पाया जाता है कि ज्ञान तो था ही, केवल उसे देख पाने की दृष्टिं हमारे पास नहीं थी। और, इस दृष्टिं को पांडित्य के संग्रह से नहीं पाया जा सकता था।
इससे आत्म-प्रवंचना भर हो सकती थी। और कुछ भी नहीं। बिना जाने ही यह अहं-तृप्ति हो सकती थी कि मैं जानता हूं। इसलिए कहा है कि यह जानना कि 'मैं जानता हूं', अज्ञान है। क्यों? क्योंकि जानने पर पाया जाता है कि मैं हूं ही नहीं। केवल ज्ञान है- न ज्ञाता है, न ज्ञेय है।
यह अद्वैत दर्शन तब होता है, जब सब छोड़कर मैं शून्य हो जाता हूं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)