आंखों से सत्य देखो!

सूर्य की ओर जैसे कोई आंखें बंद किये रहे, ऐसे ही हम जीवन की ओर किये हैं। और, तब हमारे चरणों का गड्ढों में चले जाना, क्या आश्चर्यजनक है? आंखें बंद रखने के अतिरिक्त न कोई पाप है, न अपराध है। आंखें खोलते ही सब अंधकार विलीन हो जाता है।
एक साधु का स्मरण आता है। उसे बहुत यातनाएं दी गई, किंतु उसकी शांति को नहीं तोड़ा जा सका था। और, उसे बहुत कष्ट दिये गये थे, लेकिन उसकी आनंद मुद्रा नष्ट नहीं की जा सकी थी। यातनाओं के बीच भी वह प्रसन्न था और गालियों के उत्तर में उसकी वाणी मिठास से भरी थी। किसी ने उससे पूछा, ''आप में इतनी अलौकिक शक्ति कैसे आई?'' वह बोला, ''अलौकिक? कहां? इसमें तो कुछ भी अलौकिक नहीं है। बस, मैंने अपनी आंखों का उपयोग करना सीख लिया है।'' उसने कहा, ''मैं आंखें होते अंधा नहीं हूं।'' लेकिन , आंखों से शांति का और साधुता का और सहनशीलता का क्या संबंध? जिससे ये शब्द कहे गये थे, वह नहीं समझ सका था। उसे समझाने के लिये साधु ने पुन: कहा, ''मैं ऊपर आकाश की ओर देखता हूं, तो पाता हूं कि यह पृथ्वी का जीवन अत्यंत क्षणिक और स्वप्नवत् है। और, स्वप्न में किया हुआ व्यवहार मुझे कैसे छू सकता है? और अपने भीतर देखता हूं, तो उसे पाता हूं, जो कि अविनश्वर है- उसका तो कोई भी कुछ भी बिगाड़ने में समर्थ नहीं है! और, जब मैं अपने चारों ओर देखता हूं, तो पाता हूं कि कितने हृदय हैं, जो मुझ पर दया करते और प्रेम करते हैं, जबकि उनके प्रेम को पाने की पात्रता भी मुझ में नहीं। यह देख मन में अत्यंत आनंद और कृतज्ञता का बोध होता है। और, अपने पीछे देखता हूं, तो कितने ही प्राणियों को इतने दुख और पीड़ा में पाता हूं कि मेरा हृदय करुणा और प्रेम से भर आता है। इस भांति मैं शांत हूं और कृतज्ञ हूं, आनंदित हूं और प्रेम से भर गया हूं। मैंने आंखों का उपयोग सीख लिया है। मित्र, मैं अंधा नहीं हूं।''
और, अंधा न होना कितनी बड़ी शक्ति है? आंखों का उपयोग ही साधुता है। वही धर्म है। आंखें सत्य को देखने के लिये हैं। जागो- और देखो। जो आंखें होते हुए भी उन्हें बंद किये हैं, वह स्वयं अपना दुर्भाग्य बोता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाडंडेशन)