वासनाओं का पथ गोल !


जीवन या तो वासना के पीछे चलता है अथवा विवेक के। वासना तृप्ति को आश्वासन देती है, लेकिन अतृप्ति में ले जाती है। इसलिए, उसके अनुसरण के लिए आंखों का बंद होना आवश्यक है। जो आंखें खोलकर चलता है, वह विवेक को उपलब्ध हो जाता है। और, विवेक की अग्नि में समस्त अतृप्ति वैसे ही वाष्पिभूत हो जाती है, जैसे सूर्य के उत्ताप से ओसकण।
एक प्राणि-डाक्टर फेबरे ने किसी जाति विशेष के कीड़ों का उल्लेख किया है, जो कि सदा अपने नेता कीड़े का अनुगमन करते हैं। उसने एक बार इन कीड़ों के समूह को एक गोल थाली में रख दिया। उन्होंने चलना शुरू किया और फिर वे चलते गये- एक ही वृत्त में वे चक्कर काट रहे थे। मार्ग गोल था और इसलिए उसका कोई अंत नहीं था। किंतु उन्हें इसका पता नहीं था और वे उस समय तक चलते ही रहे जब तक कि थक कर गिर नहीं गये। उनकी मृत्यु ही केवल उन्हें रोक सकी। इसके पूर्व वे नहीं जान सके कि जिस मार्ग पर वे हैं, वह मार्ग नहीं, चक्कर है। मार्ग कहीं पहुंचता है। और जो चक्कर है, वह केवल घूमता है, पहुंचता नहीं। मैं देखता हूं, तो यही स्थिति मनुष्य की भी पाता हूं। वह भी चलता ही जाता है और नहीं विचार करता कि जिस मार्ग पर वह है, वह कहीं कोल्हू का चक्कर ही तो नहीं? वासनाओं का पथ गोल है। हम फिर उन्हीं-उन्हीं वासनाओं पर वापस आ जाते हैं। इसलिए ही वासनाएं दुष्पूर हैं। उन पर चलकर कोई कभी कहीं पहुंच नहीं सकता है। उस मार्ग से परितृप्ति असंभव है। लेकिन, बहुत कम ऐसे भाग्यशाली हैं, जो कि मृत्यु के पूर्व इस अज्ञान पूर्ण और व्यर्थ के भ्रमण से जाग पाते हैं।
मैं जिन्हें वासनाओं के मार्ग पर देखता हूं, उनके लिये मेरे हृदय में आंसू भर आते हैं। क्योंकि, वे एक ऐसी राह पर हैं, जो कि कहीं पहुंचाती नहीं। उसमें वे पाएंगे कि उन्होंने स्वप्न मृगों के पीछे सारा जीवन खो दिया है। मुहम्मद ने कहा है - उस आदमी से बढ़कर रास्ते से भटका हुआ कौन है, जो कि वासनाओं के पीछे चलता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)