ध्यान के लघु प्रयोग

पृथ्वी से संपर्क!
कभी एक छोटा सा प्रयोग करें, कहीं भी नग्न खड़े हो जाएं- नदी के किनारे, समुद्रतट पर, धूप में और उछलना- कूदना, भागना-दौड़ना, जागिंग शुरू कर दें और महसूस करें कि आपकी ऊर्जा आपके पैरों से पृथ्वी की ओर प्रवाहित हो रही है। कुछ मिनट इस प्रकार भागने के बाद, शांति से पृथ्वी में जड़ें जमा कर खड़े हो जाएं और अपने पैरों और पृथ्वी के बीच संवाद का अनुभव करें। अचानक आप बहुत ही स्थिर, शांत और अखंड अनुभव करेंगे। आप पाएंगे कि पृथ्वी भी कुछ कहती है, आपके पैर भी कुछ कहते हैं। आपके पैर और पृथ्वी के बीच एक संवाद घटता है।

श्वास को शिथिल करो!
जब भी आपको समय मिले, कुछ देर के लिए श्वास-प्रक्रिया को शिथिल कर दें। और कुछ नहीं करना है- पूरे शरीर को शिथिल करने की जरूरत नहीं है। रेलगाड़ी में, हवाई जहाज में या कार में बैठे हैं, किसी और को मालूम भी नहीं पड़ेगा कि आप कुछ कर रहे हैं। बस श्वास-प्रक्रिया को शिथिल कर दें। जैसे वह सहज चलती है, वैसे चलने दें। फिर आंखें बंद कर लें और श्वास को देखते रहें- भीतर गई, बाहर आई, भीतर गई।
एकाग्रता न करें। यदि आप एकाग्रता करेंगे तो मुश्किल में पड़ जाएंगे, क्योंकि तब सब कुछ बाधा बन जाएगा। यदि कार में बैठे हुए एकाग्रता करेंगे, तो कार की आवाज बाधा बन जाएगी, पास में बैठा हुआ व्यक्ति बाधा बन जाएगा।
ध्यान एकाग्रता नहीं है। ध्यान सिर्फ जागरूकता है। आप सिर्फ शिथिल रहें और श्वास को देखते रहें। उसे देखने में कुछ भी बहिष्कृत नहीं है। कार आवाज कर रही है- बिलकुल ठीक है, स्वीकार कर लें। सड़कों पर ट्रैफिक है- वह भी ठीक है, जीवन का अंग है। आपके पास में बैठा व्यक्ति खर्राटे ले रहा है- स्वीकार कर लें। कुछ भी अस्वीकृत नहीं है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

कल्पना ध्यान नहीं!


परमात्मा के नाम पर कल्पनाएं सिखाई जाती हैं। जबकि, सत्य के दर्शन कल्पनाओं से नहीं, वरन सब कल्पनाएं छोड़ देने पर ही होते हैं। जो कल्पना में है, वह स्वप्न में है। वह देख रहा है, जो कि देखना चाहता है- 'वह नहीं, जो कि है।'
एक सूफी साधु को किसी विद्यालय में ले जाया गया। उस विद्यालय में बालकों को एकाग्रता का विशेष अभ्यास कराया जाता था। कोई दस-बारह बच्चे उसके सामने लाए गए और उनमें से प्रत्येक को एक खाली सफेद परदे पर ध्यान एकाग्र करने का कहा गया और कहा गया कि मन की सारी शक्ति को इकट्ठा कर वे देखें कि उन्हें वहां क्या दिखाई पड़ता है। एक छोटा सा बच्चा देखता रहा और फिर बोला : ''गुलाब का फूल।'' उसकी आंखों से लगता था कि वह गुलाब का फूल देख रहा है। किसी दूसरे ने कुछ और कहा, तीसरे ने कुछ और। वे अपनी ही कल्पनाओं को देख रहे थे। और, कितने ऐसे बूढ़े हैं, जो कि उन बच्चों की भांति ही क्या अपनी कल्पनाओं को नहीं देखते रहते हैं? कल्पनाओं के ऊपर जो नहीं उठता, वह असल में अप्रौढ़ ही बना रहता है। प्रौढ़ता कल्पना-मुक्त दर्शन से ही उपलब्ध होती है। फिर, एक बच्चे ने बहुत देर देखने के बाद कहा, ''कुछ भी नहीं। मुझे तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता!'' उसे फिर देखने को कहा गया। किंतु, वह पुन: बोला, ''क्षमा करें। कुछ है ही नहीं, तो क्या करूं!'' उसके अध्यापकों ने उसे निराशा से दूर हटा दिया और कहा कि उसमें एकाग्रता की शक्ति नहीं है। वे उनसे प्रसन्न थे, जिन्हें कुछ दिखाई पड़ रहा था। जबकि जो उनकी दृष्टिं में असफल था, वही सत्य के ज्यादा निकट था। उसे, जो दिखाई पड़ रहा था, वही दिखाई पड़ रहा था।
सत्य मनुष्य की कल्पना नहीं है- न ही परमात्मा। कल्पना से जो देखता है, वह असत्य देखता है। कल्पना का नाम ध्यान नहीं है। वह तो ध्यान के बिलकुल ही विपरीत स्थिति है। कल्पना जहां शून्य होती है, ध्यान वहीं प्रारंभ होता है। और, कल्पना में नहीं, कल्पना-शून्य ध्यान में जो जाना जाता है, वही सत्य है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

निर्वाण और ब्रह्म!


जीवन का तनाव और द्वंद्व 'मैं' और 'न-मैं' के विरोध से पैदा होता है। यही मूल चिंता और दुख है। जो इस द्वंद्व को पार कर लेता है, वह प्रभु में प्रविष्ट हो जाता है।
एक युवक ने पूछा, ''परमात्मा को पाने के लिए मैं क्या करूं?'' मैंने कहा, '''मैं' को शून्य कर लो या पूर्ण कर लो।''
वह कुछ समझा नहीं और एक कहानी उससे कहनी पड़ी- किसी समय दो फकीरों का मिलन हुआ। उन दोनों के सैकड़ों शिष्य भी उनके साथ थे। और यह भी सर्वविदित था कि उनके विचार बिलकुल विरोधी हैं। पहले फकीर ने दूसरे से पूछा, ''मित्र, जीवन की खोज में क्या तुमने पाया? जहां तक मेरा सवाल है, मैंने तो 'मैं' को खो दिया है। वह धीरे-धीरे हारता गया और अब बिलकुल मिट गया है। उसकी अब कोई रेखा भी बाकी नहीं है। 'मैं' नहीं, अब तो 'वही' बाकी है। सब है- लेकिन 'मैं' नहीं हूं। सब 'उसकी' ही मर्जी है। और 'उसकी' धरा में मात्र बहे जाना- न-कुछ होकर मात्र जीए जाना- कैसा आनंद है! जो पाना था, वह मैंने पा लिया और जो होना था, वह मैं हो गया हूं। ओह! 'मैं' के मिट जाने में कितनी शक्ति है, कितनी शांति है और कितना सौंदर्य है।'' यह सुनकर दूसरा बोला, ''मित्र मैं तो 'मैं' हो गया हूं। मैं ही हूं अब और कुछ नहीं है। सब कुछ मैं ही हूं। 'मैं' के बाहर जो है, वह नहीं है। अहं ब्रह्मास्मि। चांद और तारे 'मैं' ही चलाता हूं, मैं ही सृष्टिं को बनाता और मिटाता हूं। सृष्टि का यह सारा खेल मेरा ही संकल्प है। और, मित्र, ' मैं ' की इस विजय में कितना आनंद है, कितनी शांति है, कितना सौंदर्य है!''
उन दोनों के शिष्य इन बातों को सुन बहुत हैरानी में पड़ गए। और उस समय तो उनकी उलझन का ठिकाना न रहा, जब बिदा होते वे दोनों फकीर एक दूसरे को बांहों में लेकर कह रहे थे, ''हम दोनों के अनुभव बिलकुल समान हैं। कितने विरोधी मार्गो से चलकर हम एक ही सत्य पर पहुंच गए हैं।''
'मैं' शून्य हो, तो पूर्ण हो जाता है। शून्य और पूर्ण एक ही हैं। जो शून्य से चलता है, वह निर्वाण पर पहुंचता है। और, जो पूर्ण से चलता है, वह ब्रह्म पर। लेकिन, निर्वाण और ब्रह्म क्या एक ही अवस्था के दो नाम नहीं हैं!
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

अपना-अपना आचरण!


स्मरण रहे कि तुम्हारे पास क्या है, उससे नहीं- वरन तुम क्या हो, उससे ही तुम्हारी पहचान है। वही, तुम्हारी संपदा है, वह सब सम्भाल लेता है।
एक अंधे फकीर की कहानी है, जो कि राजपथ के मध्य खड़ा था और देश के राजा की सवारी निकल रही थी। सबसे पहले वे सैनिक आए, जो कि आगे के मार्ग को निर्विघ्न कर रहे थे। उन्होंने उस बूढ़े को धक्का दिया और कहा, ''मूर्ख मार्ग से हट। अंधे! दिखता नहीं कि राजा की सवारी आ रही है।'' वह बूढ़ा हंसा और बोला, ''इसी कारण!'' लेकिन वह उसी जगह खड़ा रहा। और, तब घुड़सवार सैनिक आए उन्होंने कहा, ''मार्ग से हट जाओ, सवारी आ रही है।'' वह बूढ़ा वहीं खड़ा रहा और बोला, ''इसी कारण!'' फिर राजा के मंत्री आए। उन्होंने उस फकीर से कुछ भी नहीं कहा और वे उसे बचाकर अपने घोड़ों को ले गए। वह फकीर पुन: बोला, ''इसी कारण!'' और, तब राजा की सवारी आयी। वह नीचे उतरा और उसने उस बूढ़े के पैर छूये। वह फकीर हंसने लगा और बोला, ''क्या राजा आ गया? इसी कारण!'' फिर सवारी निकल गई। लेकिन, जिन लोगों ने उस बूढ़े फकीर का हंसना और बार-बार 'इसी कारण' कहना सुना था, उन्होंने उससे उसका कारण पूछा। वह बोला, ''जो जो है, वह अपने आचरण के कारण वैसा है।''
मैं क्या सोचता हूं, क्या बोलता हूं, क्या करता हूं- उस सब में 'मैं' प्रगट होता हूं। स्वयं के इन प्रकाशनों को जो सतत देखता और निरीक्षण करता है, वह क्रमश: ऊपर से ऊपर उठता जाता है। क्योंकि, कौन है, जो कि जानकर भी नीचे रहना चाहता है?

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

योग- अस्पर्श भाव!


'मैं जगत में हूं और जगत में नहीं भी हूं' - ऐसा जब कोई अनुभव कर पाता है, तभी जीवन का रहस्य उसे ज्ञात होता है। जगत में दिखाई पड़ना एक बात है, जगत में होना बिलकुल दूसरी। जगत में दिखलाई पड़ना शारीरिक घटना है, जगत में होना आत्मिक दुर्घटना। जब-तक जीवन है, तब तक शरीर जगत में होगा ही। लेकिन, जिसे 'उस' जीवन को जानना हो- जिसका कि कोई अंत नहीं आता है- उसे स्वयं को जगत के बाहर लेना होता है।
एक संन्यासी ने सुना कि देश का सम्राट परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया है। उस संन्यासी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। क्या यह संभव है कि जिसने कुछ भी नहीं त्यागा है, वह परमात्मा को पा सके? वह संन्यासी राजधानी पहुंचा और राजा का अतिथि बना। उसने राजा को बहुमूल्य वस्त्र पहने देखा, स्वर्ण पात्रों में स्वादिष्ट भोजन करते देखा- रात्रि में संगीत और नृत्य का आनंद लेते हुए भी। उसका संदेह अनंत होता जा रहा था। वह तो सर्वथा स्तब्ध ही हो गया था।
रात्रि किसी भांति बीती। संन्यासी संदेह और चिंता से सो भी नहीं सका। सुबह ही राजा ने नदी पर स्नान करने के लिए उसे आमंत्रित किया। राजा और संन्यासी नदी में उतरे। वे स्नान करते ही थे कि अचानक उस शांत, निस्तब्ध वातावरण को एक तीव्र कोलाहल ने भर दिया- आग, आग, आग! नदी तट पर खड़ा राजमहल धू-धूकर जल रहा था और उसकी लपटें तेजी से घाट की ओर बढ़ रही थीं। अपना कौपीन बचाने के लिए संन्यासी ने स्वयं को सीढि़यों की ओर भागते हुए पाया। उसे स्मरण ही न रहा कि साथ में सम्राट भी है। लेकिन लौटकर देखा, तो पाया कि राजा जल में ही खड़े हैं और कह रहे हैं : ''हे मुनि, यदि समस्त राज्य भी जल जावे, तो भी मेरा कुछ भी नहीं जलता है।'' सम्राट थे जनक और मुनि थे शुकदेव।
लोग मुझ से पूछते हैं : योग क्या है? मैं उनसे कहता हूं : अस्पर्श भाव। ऐसे जीओ कि जैसे तुम जहां हो, वहां नहीं हो। चेतना बाह्य अस्पर्शिता हो, तो स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाती है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

क्या तू मनुष्य है!


क्या तुम मनुष्य हो? प्रेम में तुम्हारी जितनी गहराई हो, मनुष्यता में उतनी ही ऊंचाई होगी। और, परिग्रह में जितनी ऊंचाई हो, मनुष्यता में उतनी ही निचाई होगी। प्रेम और परिग्रह जीवन की दो दिशाएं हैं। प्रेम पूर्ण है, तो परिग्रह शून्य हो जाता है। और, जिनके चित्त परिग्रह से घिरे रहते हैं, प्रेम वहां आवास नहीं करता है।
एक साम्राज्ञी ने अपनी मृत्यु उपरांत उसके कब्र के पत्थर पर निम्न पंक्तियां लिखने का आदेश दिया था : ''इस कब्र में अपार धनराशि गड़ी हुई है। जो व्यक्ति अत्यधिक निर्धन और अशक्त हो, वह उसे खोद कर प्राप्त कर सकता है।''
उस कब्र के पास से हजारों दरिद्र और भिखमंगे निकले, लेकिन उनमें से कोई भी इतना दरिद्र नहीं था कि धन के लिए किसी मरे हुए व्यक्ति की कब्र खोदे। एक अत्यंत बूढ़ा और दरिद्र भिखमंगा तो उस कब्र के पास ही वर्षो से रह रहा था और उधर से निकलने वाले प्रत्येक दरिद्र व्यक्ति को उस पत्थर की ओर इशारा कर देता था।
फिर अंतत: वह व्यक्ति भी आ पहुंचा, जिसकी दरिद्रता इतनी थी कि वह उस कब्र को खोदे बिना नहीं रह सका। वह व्यक्ति कौन था? वह स्वयं एक सम्राट था और उस कब्र वाले देश को अभी-अभी जीता था, उसने आते ही कब्र को खोदने का कार्य शुरू कर दिया। उसने थोड़ा भी समय खोना ठीक नहीं समझा। पर उस कब्र में उसे क्या मिला? अपार धनराशि की जगह मिला मात्र एक पत्थर, जिस पर खुदा हुआ था : ''मित्र, क्या तू मनुष्य है?''
निश्चय ही जो मनुष्य है, वह मृतक को सताने को कैसे तैयार हो सकता है! लेकिन जो धन के लिए जीवित को भी मृत बनाने को सहर्ष तैयार हो, उसे इससे क्या फर्क पड़ता है!
वह सम्राट जब निराश और अपमानित हो उस कब्र से लौटता था, तो उस कब्र के वासी बूढ़े भिखमंगे को लोगों ने जोर से हंसते हुए देखा था। वह भिखमंगा कह रहा था, ''मैं कितने वर्षो से प्रतीक्षा करता था, अंतत: आज पृथ्वी पर जो दरिद्रतम निर्धन और सर्वाधिक अशक्त व्यक्ति है, उसके भी दर्शन हो गए।''
प्रेम जिस हृदय में नहीं है, वही दरिद्र है, वही दीन है, वही अशक्त है। प्रेम शक्ति है, प्रेम संपदा है, प्रेम प्रभुता है। प्रेम के अतिरिक्त जो किसी और संपदा को खोजता है, एक दिन उसकी ही संपदा उससे पूछती है : ''क्या तू मनुष्य है!''
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

सत्य असीम है!


शब्दों या शास्त्रों की सीमा में सत्य नहीं है। असल में जहां सीमा है, वहीं सत्य नहीं है। सत्य तो असीम है। उसे जानने को बुद्धि और विचारों की परिधि को तोड़ना आवश्यक है। असीम होकर ही असीम को जाना जाता है। विचार के घेरे से मुक्त होते ही चेतना असीम हो जाती है। वैसे ही जैसे मिट्टी के घड़े को फोड़ दें, तो उसके भीतर का आकाश असीम आकाश से एक हो जाता है।
सूर्य आकाश के मध्य में आ गया था। एक सुंदर हंस एक सागर से दूसरे सागर की ओर उड़ा जा रहा था। लंबी यात्रा और धूप की थकान से वह भूमि पर उतरकर एक कुएं की पाट पर विश्राम करने लगा। वह बैठ भी नहीं पाया था कि कुएं के भीतर से एक मेंढक की आवाज आयी, ''मित्र, तुम कौन हो और कहां से आए हो?'' वह हंस बोला, ''मैं एक अत्यंत दरिद्र हंस हूं और सागर पर मेरा निवास है।'' मेंढक का सागर से परिचित व्यक्ति से पहला ही मिलन था। वह पूछने लगा, ''सागर कितना बड़ा है?'' हंस ने कहा, ''असीम।'' इस पर मेंढक ने पानी में एक छलांग लगाई और पूछा, ''क्या इतना बड़ा?'' वह हंस हंसने लगा और बोला, ''प्यारे मेंढक, नहीं। सागर इससे अनंत गुना बड़ा है।'' इस पर मेंढक ने एक और बड़ी छलांग लगाई और पूछा, ''क्या इतना बड़ा?'' उत्तर फिर भी नकारात्मक पाकर मेंढक ने कुएं की पूर्ण परिधि में कूदकर चक्कर लगाया और पूछा, ''अब तो ठीक है! सागर इससे बड़ा और क्या होगा?'' उसकी आंखों में विश्वास की झलक थी और इस बार उत्तर के नकारात्मक होने की उसे कोई आशा न थी। लेकिन, उस हंस ने पुन: कहा, ''नहीं मित्र! नहीं तुम्हारे कुएं से सागर को मापने का कोई उपाय नहीं है।'' इस पर, मेंढक तिरस्कार से हंसने लगा और बोला, ''महानुभाव, असत्य की भी सीमा होती है?'' मेरे संसार से बड़ा सागर कभी भी नहीं हो सकता!''
मैं सत्य के खोजियों से क्या कहता हूं! कहता हूं, ''सत्य के सागर को जानना है, तो अपनी बुद्धि के कुओं से बाहर आ जाओ। बुद्धि से सत्य को पाने का कोई उपाय नहीं। वह अमाप है। उसे तो वही पाता है, जो स्वयं के सब बांध तोड़ देता है। उनके कारण ही बाधा है। उनके मिटते ही सत्य जाना ही नहीं जाता वरन् उससे एक्य हो जाता है। उससे एक हो जाना ही उसे जानना है।''
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

ध्यान के लघु प्रयोग


अपने विचार लिखना!
किसी दिन इस छोटे से प्रयोग को करें। दरवाजे बंद करलें, अपने कमरे में बैठ जाएं और बस अपने विचार लिखना शुरू कर दें- जो भी आपके मन में आए। उसमें काट-छांट न करें, क्योंकि इस कागज को किसी को दिखाने की आवश्यकता नहीं है! दस मिनट तक बस लिखते रहें और फिर उसे पढ़ें। यही है जो आपके भीतर चलता रहता है। यदि आप उन्हें पढ़ेंगे तो आप सोचेंगे कि यह किस पागल का काम है। यदि आप उस कागज को अपने सबसे करीबी मित्र को दिखाएंगे तो वह भी आपको देखेगा और सोचेगा, ''तुम पागल तो नहीं हो गए?''

विनोदी चेहरा!
कई पुरानी ध्यान विधियां हैं, जो फनी फेसेज, विनोदी चेहरे बनाने में उपयोगी हैं। तिब्बत में यह प्राचीनतम परंपराओं में से एक है।
एक बड़ा दर्पण रख लें, उसके सामने नग्न खड़े हो जाएं और चेहरे बनाएं, विनोदी मुद्राएं बनाएं और देखें। पंद्रह-बीस मिनट तक चेहरे बनाते-बनाते और देखते-देखते आप चकित हो जाएंगे, आप महसूस करेंगे कि आप इससे अलग हैं। यदि आप अलग न होते तो ये सब चीजें कैसे कर पाते? तब शरीर आपके हाथ में है, आप मालिक हैं। आप इसके साथ जैसा चाहें खेल सकते हैं।
विनोदी चेहरा बनाने के, विनोदी मुद्राएं बनाने के नए-नए ढंग खोजें। जो भी दिल में आए करें। और आपको एक गहन मुक्ति का बोध होगा। और, आप स्वयं को शरीर की तरह नहीं, चेहरे की तरह नहीं, बल्कि चेतना के रूप में देखना शुरू करेंगे। यह विधि बहुत सहायक होगी।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

शांति की प्राप्ति!

'जीवन में सबसे बड़ा रहस्य सूत्र क्या है?' जब कोई मुझ से यह पूछता है, तो मैं कहता हूं, ''जीते जी मर जाना।''
किसी सम्राट ने एक युवक की असाधारण सेवाओं और वीरता से प्रसन्न होकर उसे सम्मानित करना चाहा। उस राज्य का जो सबसे बड़ा सम्मान और पद था, वह उसे देने की घोषणा की गई। लेकिन, ज्ञात हुआ कि वह युवक इससे प्रसन्न और संतुष्ट नहीं है। सम्राट ने उसे बुलाया और कहा, ''क्या चाहते हो? तुम जो भी चाहो, मैं उसे देने को तैयार हूं। तुम्हारी सेवाएं निश्चय ही सभी पुरस्कारों से बड़ी है।'' वह युवक बोला, ''महाराज, बहुत छोटी-सी मेरी मांग है। उसके लिए ही प्रार्थना करता हूं। धन मुझे नहीं चाहिए- न ही पद, न सम्मान, न प्रतिष्ठा। मैं चित्त की शांति चाहता हूं।'' राजा ने सुना तो थोड़ी देर को तो वह चुप रह गया। फिर बोला, ''जो मेरे पास ही नहीं है, उसे मैं कैसे दे सकता हूं!'' फिर वह सम्राट उस व्यक्ति को पहाड़ों में निवास करने वाले एक शांति को उपलब्ध साधु के पास लेकर स्वयं ही गया। उस व्यक्ति ने जाकर अपनी प्रार्थना साधु के समक्ष निवेदित की। वह साधु अलौकिक रूप से शांत और आनंदित था। लेकिन, सम्राट ने देखा कि उस युवक की प्रार्थना सुनकर वह भी वैसा ही मौन रह गया, जैसे कि स्वयं सम्राट रह गया था! सम्राट ने संन्यासी से कहा, ''मेरी भी प्रार्थना है, इस युवक को शांति दें। अपनी सेवाओं ओर समर्पण के लिए राजा की ओर से यही पुरस्कार उसने चाहा है। मैं तो स्वयं ही शांत नहीं हूं, इसलिए शांति कैसे दे सकता हूं? सो इसे आपके पास लेकर आया हूं।'' वह संन्यासी बोला, ''राजन शांति ऐसी संपदा नहीं है, जो कि किसी दूसरे से ली-दी जा सके। उसे तो स्वयं ही पाना होता है। जो दूसरों से मिल जाए वह दूसरों से छीनी भी जा सकती है। अंतत: मृत्यु तो उसे निश्चित ही छीन लेती है। जो संपत्ति किसी और से नहीं, स्वयं से ही पाई जाती है, उसे ही मृत्यु छीनने में असमर्थ है। शांति मृत्यु से बड़ी है, इसलिए उसे और कोई नहीं दे सकता है।''
एक संन्यासी ने ही यह कहानी मुझे सुनाई थी। सुनकर मैंने कहा, ''निश्चय ही मृत्यु शांति को नहीं छीन सकती है, क्योंकि, जो मृत्यु से पहले ही मरना जान लेते हैं, व ही ऐसी शांति को उपलब्ध कर पाते हैं।''
क्या तुम्हें मृत्यु का अनुभव है? यदि नहीं, तो तुम मृत्यु के चंगुल में हो। मृत्यु के हाथों में स्वयं को सदा अनुभव करने से छटपटाहट होती है, वही अशांति है। जो ऐसे जीने लगते हैं कि जैसे जीवित होते हुए भी जीवित न हों, वह मृत्यु को जान लेता है और जानकर मृत्यु के पार हो जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जीवन- मृत्यु से अभय


शरीर को ही जो स्वयं का होना मान लेते हैं, मृत्यु उसे ही भयभीत करती है। स्वयं में थोड़ा ही गहरा प्रवेश, उस भूमि पर खड़ा कर देता है, जहां कि कोई भी मृत्यु नहीं है। उस अमृत-भूमि को जानकर ही जीवन का ज्ञान होता है।
एक बार ऐसा हुआ कि एक युवा संन्यासी के शरीर पर कोई राजकुमारी मोहित हो गई। सम्राट ने उस भिक्षु को राजकुमारी से विवाह करने को कहा। भिक्षु बोला, ''मैं तो हूं ही नहीं, विवाह कौन करेगा?'' सम्राट ने इसे अपमान मान उसे तलवार से मार डालने का आदेश दिया। वह संन्यासी बोला, ''मेरे प्रिय, शरीर से आरंभ से ही मेरा कोई संबंध नहीं रहा है। आप भ्रम में हैं। जो अलग ही है, आपकी तलवार उन्हें और क्या अलग करेगी? मैं तैयार हूं और आपकी तलवार मेरे तथाकथित सिर को उसी प्रकार काटने के लिए आमंत्रित है, जैसे यह वसंत-वायु पेड़ों से उनके फूल गिरा रही है।'' सच ही उस समय वसंत था और वृक्षों से फूल गिर रहे थे। सम्राट ने उन गिरते फूलों को देखा और उस युवा भिक्षु के सम्मुख उपस्थित मृत्यु को जानते हुए भी उसकी आनंदित आंखों को। उसने एक क्षण सोचा और कहा, ''जो मृत्यु से भयभीत नहीं है और जो मृत्यु को भी जीवन की भांति ही स्वीकार करता है, उसे मारना व्यर्थ है। उसे तो मृत्यु भी नहीं मार सकती है।''
वह जीवन नहीं है, जिसका कि अंत आ जाता है। अग्नि जिसे जला दे और मृत्यु जिसे मिटा दे, वह जीवन नहीं है। जो उसे जीवन मान लेते हैं, वे जीवन को जान ही नहीं पाते। वे तो मृत्यु में ही जीते हैं और इसलिए मृत्यु का भय उन्हें सताता है। जीवन को जानने और उपलब्ध होने का लक्षण- मृत्यु से अभय है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

सत्य की एक बूंद!


सत्य की एक किरण मात्र को खोज लो, फिर वह किरण ही तुम्हें आमूल बदल देगी। जो उसकी एक झलक भी पा लेते हैं, वे फिर अपरिहार्य रूप से एक बड़ी क्रांति से गुजरते हैं।
गुस्ताव मेयरिन्क ने एक संस्मरण लिखा है। उनके किसी चीनी मित्र ने एक अत्यंत कलात्मक और सुंदर पेटी उपहार में भेजी। किंतु, साथ में यह आग्रह भी किया कि उसे कक्ष के पूर्व-पश्चिम दिशा में ही रखा जावे, क्योंकि उसका निर्माण ऐसे ही किया गया है कि वह पूर्वोन्मुख होकर ही सर्वाधिक सुंदर होती है। मेयरिन्क ने इस आग्रह को आदर दिया और कम्पास से देखकर उस पेटी को मेज पर पूर्व-पश्चिम जमाया। लेकिन वह कमरे की दूसरी चीजों के साथ ठीक नहीं जमी। पूरा कमरा ही बेमेल दिखने लगा तब और चीजों को भी बदलना पड़ा। मेज भी बाद में और चीजों से संगत दीखे इसलिए पूर्व-पश्चिम जमानी पड़ी।। इस भांति पूरा कक्ष ही पुन: आयोजित हुआ और समय के साथ ही उससे संगति बैठाने को पूरा मकान ही बदल गया। यहां तक कि मकान के बाहर की बगिया तक में उसके कारण परिवर्तन हो गये। यह घटना बहुत अर्थपूर्ण है। जीवन में भी यही होता है- सत्य या सुंदर या शुभ की एक अनुभूति ही सब-कुछ बदल देती है, फिर उसके अनुसार ही स्वयं को रूपांतरित होना पड़ता है।
अपने जीवन का एक अंश भी यदि शांत और सुंदर बनाने में कोई सफल हो जावे, तो वह शीघ्र ही पूरे जीवन को ही दूसरा होता अनुभव करेगा। क्योंकि, तब उसका ही श्रेष्ठतर अंश अश्रेष्ठ को बदलने में लग जाता है। श्रेष्ठ अश्रेष्ठ को बदल देता है- और स्मरण रहे कि सत्य की एक बूंद भी असत्य के पूरे सागर से ज्यादा शक्तिशाली होती है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

ज्ञान चक्षु


जीवन का पथ अंधकार पूर्ण है। लेकिन स्मरण रहे कि इस अंधकार में दूसरों का प्रकाश काम न आ सकता। प्रकाश अपना ही हो, तो ही साथी है। जो दूसरों के प्रकाश पर विश्वास कर लेते हैं, वे धोखे में पड़ जाते हैं।
मैंने सुना है- एक आचार्य ने अपने शिष्य से कहा, ''ज्ञान को उपलब्ध करो। उसके अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है।'' वह शिष्य बोला, ''मैं तो आचार साधना में संलग्न हूं। क्या आचार को पा लेने पर भी ज्ञान की आवश्यकता है?'' आचार्य ने कहा, ''प्रिय! क्या तुमने हाथी की चर्या देखी है? वह सरोवर में स्नान करता है और बाहर आते ही अपने शरीर पर धूल फेंकने लगता है। अज्ञानी भी ऐसा ही करते हैं। ज्ञान के अभाव में आचार की पवित्रता को ज्यादा देर नहीं साधा जा सकता है।'' तब शिष्य ने नम्र निवेदन किया, ''भगवन, रोगी तो वैद्य के पास ही जाता है, स्वयं चिकित्साशास्त्र के ज्ञान को पाने के चक्कर में नहीं पड़ता। आप मेरे मार्ग-दर्शक हैं। यह मैं जानता हूं कि आप मुझे अधम मार्ग में नहीं जाने देंगे। तब फिर मुझे स्वयं के ज्ञान की क्या आवश्यकता है?'' यह सुन आचार्य ने बहुत गंभीरता से कथा कही थी- एक वृद्ध ब्राह्मंण था। वह अंधा हो गया, तो उसके पुत्रों ने उसकी आंखों की शल्य चिकित्सा करनी चाही। लेकिन उसने अस्वीकार कर दिया। वह बोला, ''मुझे आंखों की क्या आवश्यकता? तुम आठ मेरे पुत्र हो,आठ कुलबधु हैं, तुम्हारी मां है, ऐसे चौंतीस आंखें मुझे प्राप्त हैं, फिर दो नहीं हें, तो क्या?'' पिता ने पुत्रों की सलाह नहीं मानी। फिर एक रात्रि अचानक घर में आग लग गई। सभी अपने-अपने प्राण लेकर भागे। वृद्ध की याद किसी को भी न रही। वह अग्नि में ही भस्म हो गया। इसलिए वत्स, अज्ञान का आग्रह मत करो। ज्ञान स्वयं का चक्षु है। उसके अतिरिक्त कोई शरण नहीं है।''
सत्य न तो शास्त्रों से मिल सकता है और न ही शास्ताओं से। उसे पाने का द्वार तो स्वयं में ही है। स्वयं में जो खोजते हैं, केवल वे ही उसे पाते हैं। स्वयं पर श्रद्धा ही असहाय मनुष्य का एकमात्र संबल है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जीवन- भाव, विचार और कर्म का समग्र जोड़!

जिस प्रभु को पाना है, उसे प्रतिक्षण उठते-बैठते भी यह स्मरण रखना चाहिए कि वह जो कर रहा है, वह कहीं प्रभु को पाने के मार्ग में बाधा तो नहीं बन जाएगा?
एक कहानी है। किसी सर्कस में एक बूढ़ा कलाकार है, जो लकड़ी के तख्ते के सामने अपनी पत्नी को खड़ा कर उस पर छुरे फेंकता है। हर बार छुरा पत्नी के कंठ, कंधे, बांह या पांव को बिलकुल छूता हुआ लकड़ी में धंस जाता है। आधा इंच इधर-उधर कि उसके प्राण गये। इस खेल को दिखाते-दिखाते उसे तीस साल हो गये। वह अपनी पत्नी से ऊब गया है और उसके दुष्ट और झगड़ालू स्वभाव के कारण उसके प्रति उसके मन में बहुत घृणा इकट्ठी हो गई है। एक दिन उसके व्यवहार से उसका मन इतना विषाक्त है कि वह उसकी हत्या के लिए निशाना लगाकर छुरा मारता है। उसने निशाना साध लिया है- ठीक हृदय और एक ही बार में सब समाप्त हो जाएगा- फिर, वह पूरी ताकत से छुरा फेंकता है। क्रोध और आवेश में उसकी आंखें बंद हो जाती हैं। वह बंद आंखों में ही देखता है कि छुरा छाती में छिद गया है और खून के फव्वारे फूट पड़े हैं। उसकी पत्नी एक आह भर कर गिर पड़ी है। वह डरते-डरते आंखें खोलता है। पर, पाता है कि पत्नी तो अछूती खड़ी मुस्करा रही है। छुरा सदा कि भांति बदन को छूता हुआ निकल गया है। वह शेष छुरे भी ऐसे ही फेंकता है- क्रोध में, प्रतिशोध में, हत्या के लिये- लेकिन हर बार छुरे सदा कि भांति ही तख्ते में छिद जाते हैं। वह अपने हाथों की ओर देखता है- असफलता में उसकी आंखों में आंसू आ जाते हैं और वह सोचता है कि इन हाथों को क्या हो गया? उसे पता नहीं कि वे इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि अपनी ही कला के सामने पराजित हैं!
हम भी ऐसे ही अभ्यस्त हो जाते हैं- असत के लिये, अशुभ के लिये तब चाहकर भी शुभ और सुंदर का जन्म मुश्किल हो जाता है- अपने ही हाथों से हम स्वयं को रोज जकड़ते जाते हैं। और, जितनी हमारी जकड़न होती है, उतना ही सत्य दूर हो जाता है।
हमारे प्रत्येक भाव, विचार और कर्म हमें निर्मित करते हैं। उन सबका समग्र जोड़ ही हमारा होना है। इसलिए, जिसे सत्य के शिखर को छूना है, उसे ध्यान देना होगा कि वह अपने साथ ऐसे पत्थर तो नहीं बांध रहा है, जो कि जीवन को ऊपर नहीं, नीचे ले जाते हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

सत्यम्-शिवम्- सुंदरम्


जीवन में सत्य, शिव और सुंदर के थोड़े से बीज बोओ। यह मत सोचना कि बीज थोड़े से हैं, तो उनसे क्या होगा! क्योंकि एक बीज अपने में हजारों बीज छुपाए हुए है। सदा स्मरण रखना कि एक बीज से पूरा उपवन पैदा हो सकता है।
आज किसी ने कहा है, ''मैंने बहुत थोड़ा समय देकर ही बहुत कुछ जाना है। थोड़े से क्षण मन की मुक्ति के लिए दिये और अलौकिक स्वतंत्रता का अनुभव किया। फूलों, झरनों और चांद-तारों के सौंदर्य-अनुभव में थोड़े-से क्षण बिताये और न केवल सौंदर्य को जाना, बल्कि स्वयं को सुंदर होता हुआ भी अनुभव किया। शुभ के लिए थोड़े-से क्षण दिये और जो आनंद पाया, उसे कहना कठिन है। तब से मैं कहने लगा कि प्रभु को तो सहज ही पाया जा सकता है। लेकिन हम उसकी ओर कुछ भी कदम न उठाने के लिए तैयार हों, तो दुर्भाग्य ही है।''
''स्वयं की शक्ति और समय का थोड़ा अंश सत्य के लिये, शांति के लिये, सौंदर्य के लिये, शुभ के लिये दो और फिर तुम देखोगे कि जीवन की ऊंचाइयां तुम्हारे निकट आती जा रही हैं। और, एक बिलकुल अभिनव जगत अपने द्वार खोल रहा है, जिसमें कि बहुत आध्यात्मिक शक्तियां अंतर्गर्भित हैं। सत्य और शांति की जो आकांक्षा करता है, वह क्रमश: पाता है कि सत्य और शांति उसके होते जा रही हैं। और, जो सौंदर्य और शुभ की ओर अनुप्रेरित होता है, वह पाता है कि उनका जन्म स्वयं उसके ही भीतर हो रहा है।''
सुबह उठकर आकांक्षा करो कि आज का दिवस सत्य, शिव और सुंदर की दिशा में कोई फल ला सके। और, रात्रि देखो कि कल से तुम जीवन की ऊंचाइयों के ज्यादा निकट हुए हो या नहीं। गहरी आकांक्षा स्वयं में गहरी आकांक्षा पैदा करता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

ध्यान- मैं यह नहीं हूं!

मन कचरा है! ऐसा नहीं है कि आपके पास कचरा है और दूसरों के पास नहीं है। मन ही कचरा है। और अगर आप कचरा बाहर भी फेंकते रहें, तो जितना चाहे फेंकते रह सकते हैं, लेकिन यह कभी खतम होने वाला नहीं है। यह खुद ही बढ़ने वाला कचरा है। यह मुर्दा नहीं है, यह सक्रिय है। यह बढ़ता रहता है और इसका अपना जीवन है, तो अगर हम इसे काटें तो इसमें नई पत्तियां प्रस्फुटित होने लगती हैं।
तो इसे बाहर निकालने का मतलब यह नहीं है कि हम खाली हो जाएंगे। इससे केवल इतना बोध होगा कि यह मन, जिसे हमने अपना होना समझ रखा था, जिससे हमने अब तक तक तादात्म्य बना रखा था, यह हम ही हैं। इस कचरे को बाहर निकालने से हम प्रथकता के प्रति सजग होंगे, एक खाई के प्रति, जो हमारे और इसके बीच है। कचरा रहेगा, लेकिन उसके साथ हमारा तादात्म्य नहीं रहेगा, बस। हम अलग हो जाएंगे, हम जानेंगे कि हम अलग हैं।
तो हमें सिर्फ एक चीज करनी है- न तो कचरे से लड़ने की कोशिश करें और न उसे बदलने की कोशिश करें- सिर्फ देखें! और, स्मरण रखें, 'मैं यह नहीं हूं।' इसे मंत्र बना लें : 'मैं यह नहीं हूं।' इसका स्मरण रखें और सजग रहें और देखें कि क्या होता है।
तत्क्षण एक बदलाहट होती है। कचरा अपनी जगह रहेगा, लेकिन अब वह हमारा हिस्सा नहीं रह जाता। यह स्मरण ही उसका छूटना हो जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

अहंकार!


अहंकार एकमात्र जटिलता है। जिन्हें सरल होना है, उन्हें इस सत्य का अनुभव करना होगा। उसकी अनुभूति होते ही सरलता वैसे ही आती है, जैसे कि हमारे पीछे हमारी छाया।
एक संन्यासी का आगमन हुआ था। वे मुझे मिलने आये थे, तो कहते थे कि उन्होंने अपनी सब आवश्यकताएं कम कर ली हैं। और उन्हें और भी कम करने में लगे हैं। जब उन्होंने यह कहा, तो उनकी आंखों में उपलब्धि का- कुछ पाने का, कुछ होने का वही भाव देखा जो कि कुछ दिन पहले एक युवक की आंखों में किसी पद पर पहुंच जाने से देखा था। उसी भाव को धनलोलुप धन पाने पर स्वयं में पाता है। वासना का कोई भी रूप परितृप्ति को निकट जान आंखों में उस चमक को डाल देता है। यह चमक अहंकार ही है। और, स्मरण रहे कि ऊपर से आवश्यकताएं कम कर लेना ही सरल जीवन को पाने के लिए पर्याप्त नहीं है। भीतर अहंकार कम हो, तो ही सरल जीवन के आधार रखे जाते हैं। वस्तुत: अहंकार जितना शून्य हो, आवश्यकताएं अपने आप ही सरल हो जाती हैं। जो इसके विपरीत करता है, वह आवश्यकताएं तो कम कर लेगा, लेकिन उसका अहंकार बढ़ जाएगा और परिणाम में सरलता नहीं और भी आंतरिक जटिलता उसमें पैदा होगी। उस भांति जटिलता मिटती नहीं है, केवल एक नया रूप और वेश ले लेती है। अहंकार कुछ भी पाने की दौड़ से तृप्त होता है। 'और अधिक' की उपलब्धि ही उसका प्राणरस है। जो वस्तुओं के संग्रह में लगे हैं, वे भी 'और अधिक' से पीडि़त होते हैं और जो उन्हें छोड़ने में लगते हें, वे भी उसी 'और अधिक' की दासता करते हैं। अंतत: ये दोनों ही दुख और विषाद को उपलब्ध होते हैं, क्योंकि अहंकार अत्यंत रिक्तता है। उसे तो किसी भी भांति भरा नहीं जा सकता। इस सत्य को जानकर, जो उसे भरना ही छोड़ देते हैं, वे ही वास्तविक सरलता और अपरिग्रह को पाते हैं।
अपरिग्रह को ऊपर से साधना घातक है। अहंकार भीतर न हो, तो बाहर, परिग्रह नहीं रह जाता है। लेकिन, इस भूल में कोई न पड़े कि बाहर परिग्रह न हो, तो भीतर अहंकार न रहेगा। परिग्रह अहंकार का नहीं- अहंकार ही परिग्रह का मूल कारण है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

स्वप्न की उपेक्षा नहीं!


एक गांव गया था। किसी ने पूछा कि आप क्या सिखाते हैं? मैंने कहा, ''मैं स्वप्न सिखाता हूं।'' जो मनुष्य सागर के दूसरे तट के स्वप्न नहीं देखता है, वह कभी इस तट से अपनी नौका को छोड़ने में समर्थ नहीं होगा। स्वप्न ही अनंत सागर में जाने का साहस देते हैं।
कुछ युवक आये थे। मैंने उनसे कहा, ''आजीविका ही नहीं, जीवन के लिए भी सोचो। सामयिक ही नहीं, शाश्वत भी कुछ है। उसे जो नहीं देखता है, वह असार में ही जीवन को खो देता है।'' वे कहने लगे, ''ऐसी बातों के लिए पास में समय कहां है? फिर, ये सब- सत्य और शाश्वत की बातें स्वप्न ही तो मालूम होती हैं?'' मैंने सुना और कहा, ''मित्रों, आज के स्वप्न ही कल के सत्य बन जाते हैं। स्वप्नों से डरो मत और स्वप्न कहकर कभी उनकी उपेक्षा मत करना। क्योंकि ऐसा कोई भी सत्य नहीं है, जिसका जन्म कभी न कभी स्वप्न की भांति न हुआ हो। स्वप्न के रूप में ही सत्य पैदा होता है। और वे लोग धन्य हैं, जो कि घाटियों में रहकर पर्वत शिखरों के स्वप्न देख पाते हैं, क्योंकि वे स्वप्न ही उन्हें आकांक्षा देंगे और वे स्वप्न। ही उन्हें ऊंचाइयां छूने के संकल्प और शक्ति से भरेंगे। इस बात पर मनन करना है। किसी एकांत क्षण में रुक कर इस पर विमर्श करना। और यह भी देखना कि आज ही केवल हमारे हाथों में है- अभी के क्षण पर केवल हमारा अधिकार है। और समझना कि जीवन का प्रत्येक क्षण बहुत संभावनाओं से गर्भित है और यह कभी पुन: वापस नहीं लौटता है। यह कहना कि स्वप्नों के लिए हमारे पास कोई समय नहीं है, बहुत आत्मघातक है। क्योंकि इसके कारण तुम व्यर्थ ही अपने पैरों को अपने हाथों ही बांध लोगे। इस भाव से तुम्हारा चित्त एक सीमा में बंध जावेगा और तुम उस अद्भुत स्वतंत्रता को खो दोगे, जो कि स्वप्न देखने में अंतर्निहित होती है। और, यह भी तो सोचो कि तुम्हारे समय का कितना अधिक हिस्सा ऐसे प्रयासों में व्यय हो रहा है, जो कि बिलकुल ही व्यर्थ हैं और जिनसे कोई भी परिणाम आने को नहीं है? क्षुद्रतम बातों पर लड़ने, अहंकार से उत्पन्न वाद-विवादों को करने, निंदाओं और आलोचनाओं में - कितना समय तुम नहीं खो रहे हो? और, शक्ति और समय अपव्यय के ऐसे बहुत से मार्ग हैं। यह बहुमूल्य समय ही जीवन-शिक्षण-चिंतन, मनन और निदिध्यासन में परिणत किया जा सकता है। इससे ही वे फूल उगाये जा सकते हैं, जिनकी सुगंध अलौकिक होती है और उस संगीत को सुना जा सकता है, जो कि इस जगत का नहीं है।''
अपने स्वप्नों का निरीक्षण करो और उनका विश्लेषण करो। क्योंकि, कल तुम जो बनोगे और होओगे, उस सबकी भविष्यवाणी अवश्य ही उनमें छिपी होगी।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

ईश्वर बाह्य सत्य नहीं!


सत्य की खोज में स्वयं को बदलना होगा। वह खोज कम, आत्म-परिवर्तन ही ज्यादा है। जो उसके लिए पूर्णरूपेण तैयार हो जाता है, सत्य स्वयं उन्हें खोजता आ जाता है।
मैंने सुना है कि फकीर इब्राहिम उनके जीवन में घटी एक घटना कहा करते थे। साधु होने के पूर्व वे बल्ख के राजा थे। एक बार जब वे आधी रात को अपने पलंग पर सोये हुए थे, तो उन्होंने सुना कि महल के छप्पर पर कोई चल रहा है। वे हैरान हुए और उन्होंने जोर से पूछा कि ऊपर कौन है? उत्तर आया कि कोई शत्रु नहीं। दुबारा उन्होंने पूछा कि वहां क्या कर रहे हो? उत्तर आया कि ऊंट खो गया है, उसे खोजता हूं। इब्राहिम को बहुत आश्चर्य हुआ और अज्ञात व्यक्ति की मूर्खता पर हंसी भी आई। वे बोले, ''अट्टालिका के छप्पर पर ऊंट खो जाने और खोजने की बात तो बड़ी ही विचित्र है। मित्र, तुम्हारा मस्तिष्क तो ठीक है?'' उत्तर में वह अज्ञात व्यक्ति भी बहुत हंसने लगा और बोला, ''हे निर्बोध, तू जिस चित्त दशा में ईश्वर को खोज रहा है, क्या वह अट्टालिका के छप्पर पर ऊंट खोजने से भी ज्यादा विचित्र नहीं है?''
रोज ऐसे लोगों को जानने का मुझे अवसर मिलता है, जो स्वयं को बदले बिना ईश्वर को पाना चाहते हैं। ऐसा होना बिलकुल ही असंभव है। ईश्वर कोई बाह्य सत्य नहीं है। वह तो स्वयं के ही परिष्कार की अंतिम चेतना-अवस्था है। उसे पाने का अर्थ स्वयं वही हो जाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

मन को जानों!


मनुष्य का मन ही सब कुछ है। यह मन सब कुछ जानना चाहता है। लेकिन, ज्ञान केवल उन्हें ही उपलब्ध होता है, जो कि इस मन को ही जान लेते हैं।
कोई पूछता था, ''सत्य को पाने के लिए मैं क्या करूं?'' मैंने कहा, ''स्वयं की सत्त में प्रवेश करो। और, यह होगा चित्त की जड़ पकड़ने से। उसके शाख-पल्लवों की चिंता व्यर्थ है। चित्त की जड़ को पकड़ने के लिए आंखों को बंद करो और शांति से विचारों के निरीक्षण में उतरो। किसी एक विचार को लो और उसके जन्म से मृत्यु तक का निरीक्षण करो।'' लुक्वान यू ने कहा है, ''विचारों को ऐसे पकड़ो, जैसे कि कोई बिल्ली चूहे की प्रतीक्षा करती और झपटती है।'' यह बिलकुल ठीक कहा। बिल्ली की भांति ही तीव्रता, उत्कटता और सजगता से प्रतीक्षा करो। एक पलक भी बेहोशी में न झपे और फिर जैसे ही कोई विचार उठे, झपटकर पकड़ लो। फिर उसका सम्यक निरीक्षण करो। वह कहां से पैदा हुआ और कहां अंत होता है- यह देखो। और, यह देखते-देखते ही तुम पाओगे कि वह तो पानी के बुलबुले की भांति विलीन हो गया है या कि स्वप्न की भांति तिरोहित। ऐसे ही क्रमश: जो विचार आवें, उनके साथ भी तुम्हारा यही व्यवहार हो। इस व्यवहार से विचार का आगमन क्षीण होता है और निरंतर इस भांति उन पर आक्रमण करने से वे आते ही नहीं हैं। विचार न हों, तो मन बिलकुल शांत हो जाता है। और, जहां मन शांत है, वहीं मन की जड़ है। इस जड़ को जो पकड़ लेता है, उसका स्वयं में प्रवेश होता है। स्वयं में प्रवेश पा लेना ही सत्य को पा लेना है।
सत्य जानने वाले में ही छिपा है। शेष कुछ भी जानने से वह नहीं उघड़ता। ज्ञाता को ही जो जान लेते हैं, ज्ञान उन्हें ही मिलता है। ज्ञेय के पीछे मत भागो। ज्ञान चाहिए, तो ज्ञाता के भी पीछे चलना आवश्यक है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जीवन और आदर्श

आदर्श-विहीन जीवन कैसा है? उस नाव की भांति जिसमें मल्लाह न हो या कि हो तो सोया हो। और यह स्मरण रहे कि जीवन के सागर पर तूफान सदा ही बने रहते हैं। आदर्श न हो तो जीवन की नौका को डूबने के सिवाय और कोई विकल्प ही नहीं रह जाता है।
श्वाइत्जर ने कहा है, ''आदर्शो की ताकत मापी नहीं जा सकती। पानी की बूंद में हमें कुछ भी ताकत दिखाई नहीं देती। लेकिन उसे किसी चट्टान की दरार में जम कर बर्फ बन जाने दीजिए, तो वह चट्टान को फोड़ देगी। इस जरा से परिवर्तन से बूंद को कुछ हो जाता है और उसमें प्रसुप्त शक्ति सक्रिय और परिणामकारी हो उठती है। ठीक यही बात आदर्शो की है। जब तक वे विचार रूप बने रहते हैं, उनकी शक्ति परिणामकारी नहीं होती। लेकिन जब वे किसी के व्यक्तित्व और आचरण में ठोस रूप लेते हैं, तब उनसे विराट शक्ति और महत परिणाम उत्पन्न होते हैं।''
आदर्श-अंधकार से सूर्य की ओर उठने की आकांक्षा है। जो उस आकांक्षा से पीडि़त नहीं होता है, वह अंधकार में पड़ा रह जाता है। लेकिन आदर्श आकांक्षा मात्र ही नहीं हैं। वह संकल्प भी है। क्योंकि, जिन आकांक्षाओं के पीछे संकल्प का बल नहीं, उनका होना या न होना बराबर ही है। और, आदर्श संकल्प मात्र भी नहीं है, वरन उसके लिए सतत श्रम भी है। क्योंकि , सतत श्रम के अभाव में कोई बीज कभी वृक्ष नहीं बनता है।
मैंने सुना है, ''जिस आदर्श में व्यवहार का प्रयत्न न हो, वह फिजूल है और जो व्यवहार आदर्श प्रेरित न हो वह भयंकर है।''
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

सकारात्मक दृष्टिंकोण!


रात्रि में एक वृद्ध व्यक्ति मिलने आए थे। उनका हृदय जीवन के प्रति शिकायतों ही शिकायतों से भर पड़ा था। मैंने उनसे कहा, ''जीवन-पथ पर कांटे हैं- यह सच है। लेकिन, वे केवल उन्हें ही दिखाई पड़ते हैं, जो कि फूलों को नहीं देख पाते। फूलों को देखना जिसे आता है, उसके लिए कांटे भी फूल बन जाते हैं।''
फरीदुद्दीन अत्तार अकसर लोगों से कहा करता था, ''ऐ खुदा के बंदों, जीवन की राह में अगर कभी कोई कड़वी बात हो जावे, तो उस प्यारे गुलाम को याद करना।'' लोग पूछते, कौन सा गुलाम? तो वह कहानी कहता, ''किसी राजा ने अपने एक गुलाम को एक अत्यंत दुर्लभ और सुंदर फल दिया था। गुलाम ने उसे चखा और कहा कि फल तो बहुत मीठा है। ऐसा फल न तो उसने कभी देखा ही था, न चखा ही। राजा का मन भी ललचाया उसने गुलाम से कहा कि टुकड़ा काट कर मुझे भी दो। लेकिन, गुलाम फल का एक टुकड़ा देने में भी संकोच कर रहा है, यह देख राजा का लालच और भी बढ़ा। अंतत: गुलाम को फल का टुकड़ा देना ही पड़ा। पर जब टुकड़ा राजा ने मुंह में रखा तो पाया कि फल तो बेहद कड़ुवा है। उसने विस्मय से गुलाम की ओर देखा! गुलाम ने उत्तर दिया- मेरे मालिक, आपसे मुझे कितने कीमती तोहफे मिलते रहे हैं। उनकी मिठास इस छोटे से फल की कड़ुवाहट को मिटा देने के लिए क्या काफी नहीं है? क्या इस छोटी सी बात के लिए मैं शिकायत करूं और दुखी होऊं? आपके मुझ पर इतने असंख्य उपकार किए हैं कि इस छोटी-सी कड़ुवाहट का विचार भी करना कृतघ्नता है।''
जीवन का स्वाद बहुत कुछ उसे हमारे देखने के ढंग पर निर्भर करता है। कोई चाहे तो दो अंधकार पूर्ण रातों के बीच एक छोटे-से दिन को देख सकता है। और, चाहे तो दो प्रकाशोज्ज्वल दिनों के बीच एक छोटी-सी रात्रि को। पहली दृष्टिं में वह छोटा-सा दिन भी अंधकार पूर्ण हो जाता है और दूसरी दृष्टिं में रात्रि भी रात्रि नहीं रह जाती है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

कभी, अचानक ऐसे हो जाएं जैसे नहीं हैं!


किसी वृक्ष के नीचे बैठे हुए, अतीत और भविष्य के बारे में न सोचते हुए, सिर्फ अभी और यहीं होते हुए, आप कहां हैं? 'मैं' कहां हूं? आप इस 'मैं' को अनुभव नहीं कर सकते, वह इस क्षण में नहीं है। अहंकार कभी वर्तमान में नहीं पाया जाता। अतीत अब नहीं है, भविष्य अभी आने को है; दोनों नहीं हैं। अतीत जा चुका है, भविष्य अभी आया नहीं- केवल वर्तमान ही है। और, वर्तमान में कभी भी अहंकार जैसी कोई चीज नहीं मिलती।
तिब्बत के कुछ मठों में बहुत ही प्राचीन ध्यान-विधियों में से एक विधि अभी भी प्रयोग की जाती है। यह ध्यान-विधि इसी सत्य पर आधारित है, जो मैं आपसे कह रहा हूं। वे सीखते हैं कि कभी-कभी आप अचानक गायब हो सकते हैं। बगीचे में बैठे हुए बस भाव करें कि आप गायब हो रहे हैं। बस देखें कि जब आप दुनिया से विदा हो जाते हैं, जब आप यहां मौजूद नहीं रहते, जब आप एकदम मिट जाते हैं, तो दुनिया कैसी लगती है। बस एक सेकेंड के लिए न होने का प्रयोग करके देखें।
अपने ही घर में ऐसे हो जाएं जैसे कि नहीं हैं। यह बहुत ही सुंदर ध्यान है। चौबीस घंटे में आप इसे कई बार कर सकते हैं- सिर्फ आधा सेकेंड भी काफी है। आधा सेकेंड के लिए एकदम खो जाएं- आप नहीं हैं और दुनिया चल रही है। जैसे-जैसे हम इस तथ्य के प्रति और-और सजग होते हैं, तो हम अपने अस्तित्व के एक और आयाम के प्रति सजग होते हैं, जो लंबे समय से, जन्मों-जन्मों से उपेक्षित रहा है। और वह आयाम है स्वीकार भाव का। हम चीजों को सहज होने देते हैं, एक द्वार बन जाते हैं। चीजें हमारे बिना भी होती हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)





अनंत को लक्ष्य बनाओ!


जीवन के तथाकथित सुखों की क्षणभंगुरता को देखो। उसका दर्शन ही, उनसे मुक्ति बन जाता है।
किसी ने कोई लोक कथा सुनाई थी- एक चिडि़या आकाश में मंडरा रही थी। उसके ऊपर ही दूर पर चमकता हुआ एक शुभ्र बादल था। उसने अपने आप से कहा,' मैं उड़ूं और शुभ्र बादल को छूऊं।' ऐसा विचार कर उस बादल को लक्ष्य बना कर, वह चिडि़या अपनी पूरी शक्ति से उस दिशा में उड़ी। लेकिन वह बादल कभी पूर्व में कभी पश्चिम में चला जाता। कभी वह अचानक रुक जाता और कभी चक्कर पर चक्कर खाने लगता। फिर वह अपने आपको फैलाने लगा। वह चिडि़या उस तक पहुंच भी नहीं पायी कि अचानक वह छंट गया और नजरों से बिलकुल ओझल हो गया। उस चिडि़या ने अथक प्रयत्न से वहां पहुंच कर पाया कि वहां तो कुछ भी नहीं है। यह देखकर उस चिडि़या ने स्वयं से कहा, 'मैं भूल में पड़ गयी। क्षणभंगुर बादलों को नहीं, लक्ष्य तो पर्वत की उन गर्वीली चोटियों को ही बनाना चाहिए जो कि अनादि और अनंत हैं।'
कितनी सत्य कथा है? और हममें से कितने हैं, जो कि क्षणभंगुर बादलों को जीवन का लक्ष्य बनाने के भ्रम में नहीं पड़ते हैं? लेकिन, देखो निकट ही अनादि और अनंत वे पर्वत भी हैं, जिन्हें जीवन का लक्ष्य बनाने से ही कृतार्थता और धन्यता उपलब्ध होती है।
रवीन्द्रनाथ ने कहीं कहा है, ''वर्षा बिंदु ने चमेली के कान में कहा, 'प्रिय, मुझे सदा अपने हृदय में रखना।' और चमेली कुछ कह भी नहीं पाई कि भूमि पर जा पड़ी।''
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जीवन को लक्ष्य दो, हृदय को महत्वाकांक्षा!


किसी ने पूछा, ''महत्वाकांक्षा के संबंध में आपका क्या विचार है?'' मैंने कहा, ''बहुत कम लोग होते हैं, जो कि सचमुच महत्वाकांक्षी होते हैं। क्षुद्र से तृप्त हो जाने वाले महत्वाकांक्षी नहीं हैं। विराट को जो चाहते हैं, वे ही महत्वाकांक्षी हैं। और फिर, हम सोचते हैं कि महत्वाकांक्षा अशुभ है। मैं कहता हूं, नहीं। वास्तविक महत्वाकांक्षा बुरी नहीं है, क्योंकि वही मनुष्य को प्रभु की ओर ले जाती है।''
बहुत दिन हुए एक युवक से मैंने कहा था, ''जीवन को लक्ष्य दो और हृदय को महत्वाकांक्षा। ऊंचाइयों के स्वप्नों से स्वयं को भर लो। बिना एक लक्ष्य के तुम व्यक्ति नहीं बन सकोगे, क्योंकि उसके अभाव में तुम्हारे भीतर एकता पैदा नहीं होगी और तुम्हारी शक्तियां बिखर जाएंगी। अपनी सारी शक्तियों को इकट्ठा कर जो किसी लक्ष्य के प्रति समर्पित हो जाता है, वही केवल व्यक्तित्व को उपलब्ध होता है। शेष सारे लोग तो अराजक भीड़ों की भांति होते हैं। उनके अंतस के स्वर स्व-विरोधी होते हैं और उनके जीवन से कभी कोई संगीत नहीं पैदा हो पाता। और, जो स्वयं में ही संगीत न हो, उसे शांति नहीं मिलती है और न शक्ति। शांति और शक्ति एक ही सत्य के दो नाम हैं।''
वह पूछने लगा, ''यह कैसे होगा?'' मैंने कहा, ''जमीन में दबे हुए बीज को देखो। वह किस भांति सारी शक्तियों को इकट्ठा कर भूमि के ऊपर उठता है। सूर्य के दर्शन की उसकी प्यास ही उसे अंकुर बनाती है। उस प्रबल इच्छा से ही वह स्वयं को तोड़ता है और क्षुद्र के बाहर आता है। वैसे ही बनो। बीज की भांति बनो। विराट को पाने को प्यासे हो जाओ और फिर सारी शक्तियों को इकट्ठा कर ऊपर की ओर उठो। और फिर एक क्षण आता है कि व्यक्ति स्वयं को तोड़कर, स्वयं को पा लेता है।''
जीवन के चरम लक्ष्य को - स्वयं को और सत्य को पाने को- जो स्मरण रखता है, वह कुछ भी पाकर तृप्त नहीं होता। ऐसी अतृप्ति सौभाग्य है, क्योंकि उससे गुजरकर ही कोई परम तृप्ति के राज्य को पाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

वासनाओं का पथ गोल !


जीवन या तो वासना के पीछे चलता है अथवा विवेक के। वासना तृप्ति को आश्वासन देती है, लेकिन अतृप्ति में ले जाती है। इसलिए, उसके अनुसरण के लिए आंखों का बंद होना आवश्यक है। जो आंखें खोलकर चलता है, वह विवेक को उपलब्ध हो जाता है। और, विवेक की अग्नि में समस्त अतृप्ति वैसे ही वाष्पिभूत हो जाती है, जैसे सूर्य के उत्ताप से ओसकण।
एक प्राणि-डाक्टर फेबरे ने किसी जाति विशेष के कीड़ों का उल्लेख किया है, जो कि सदा अपने नेता कीड़े का अनुगमन करते हैं। उसने एक बार इन कीड़ों के समूह को एक गोल थाली में रख दिया। उन्होंने चलना शुरू किया और फिर वे चलते गये- एक ही वृत्त में वे चक्कर काट रहे थे। मार्ग गोल था और इसलिए उसका कोई अंत नहीं था। किंतु उन्हें इसका पता नहीं था और वे उस समय तक चलते ही रहे जब तक कि थक कर गिर नहीं गये। उनकी मृत्यु ही केवल उन्हें रोक सकी। इसके पूर्व वे नहीं जान सके कि जिस मार्ग पर वे हैं, वह मार्ग नहीं, चक्कर है। मार्ग कहीं पहुंचता है। और जो चक्कर है, वह केवल घूमता है, पहुंचता नहीं। मैं देखता हूं, तो यही स्थिति मनुष्य की भी पाता हूं। वह भी चलता ही जाता है और नहीं विचार करता कि जिस मार्ग पर वह है, वह कहीं कोल्हू का चक्कर ही तो नहीं? वासनाओं का पथ गोल है। हम फिर उन्हीं-उन्हीं वासनाओं पर वापस आ जाते हैं। इसलिए ही वासनाएं दुष्पूर हैं। उन पर चलकर कोई कभी कहीं पहुंच नहीं सकता है। उस मार्ग से परितृप्ति असंभव है। लेकिन, बहुत कम ऐसे भाग्यशाली हैं, जो कि मृत्यु के पूर्व इस अज्ञान पूर्ण और व्यर्थ के भ्रमण से जाग पाते हैं।
मैं जिन्हें वासनाओं के मार्ग पर देखता हूं, उनके लिये मेरे हृदय में आंसू भर आते हैं। क्योंकि, वे एक ऐसी राह पर हैं, जो कि कहीं पहुंचाती नहीं। उसमें वे पाएंगे कि उन्होंने स्वप्न मृगों के पीछे सारा जीवन खो दिया है। मुहम्मद ने कहा है - उस आदमी से बढ़कर रास्ते से भटका हुआ कौन है, जो कि वासनाओं के पीछे चलता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

प्रेम अभय है!


प्रेम से बड़ी कोई शक्ति है? नहीं! क्योंकि जो प्रेम को उपलब्ध होता है, वह भय से मुक्त हो जाता है।
एक युवक अपनी नववधु के साथ समुद्र-यात्रा पर था। सूर्यास्त हुआ, रात्रि का घना अंधकार छा गया और फिर एकाएक जोरों का तूफान उठा। यात्री भय से व्याकुल हो उठे। प्राण संकट में थे और जहाज अब डूबा, तब डूबा होने लगा। किंतु वह युवक जरा भी नहीं घबड़ाया। उसकी पत्नी ने आकुलता से पूछा, ''तुम निश्चिंत क्यों बैठे हो? देखते नहीं कि जीवन बचने की संभावना क्षीण होती जा रही है!'' उस युवक ने अपनी म्यान से तलवार निकाली और पत्नी की गर्दन पर रखकर कहा, ''क्या तुम्हें डर लगता है?'' वह युवती हंसने लगी और बोली, ''तुमने यह कैसा ढोंग रचा? तुम्हारे हाथ में तलवार हो, तो भय कैसा!'' वह युवक बोला, ''परमात्मा के होने की जब से मुझे गंध मिली है, तब से ऐसा ही भाव मेरा उसके प्रति भी है, तो भय रह ही नहीं जाता है।''
प्रेम अभय है। अप्रेम भय है। जिसे भय से ऊपर उठना हो, उसे समस्त के प्रति प्रेम से भर जाना होगा। चेतना के इस द्वार से प्रेम भीतर आता है, तो उस द्वार से भय बाहर हो जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

रुको मत- चले चलो!


किसी भी मनुष्य ने जो ऊंचाइयां और गहराइयां छुई हैं, वह कोई भी अन्य मनुष्य कभी भी छू सकता है। और, जो ऊंचाइयां और गहराइयां अभी तक किसी न भी स्पर्श नहीं की हैं, उन्हें अभी भी मनुष्य स्पर्श कर सकेगा। स्मरण रखना कि मनुष्य की शक्तियां अनंत हैं।
मैं प्रत्येक मनुष्य के भीतर अनंत शक्तियों को प्रसुप्त देखता हूं। इन शक्तियों में से अधिक शक्तियां सोई ही रह जाती हैं और हमारे जीवन के सोने की अंतिम रात्रि आ जाती है। हम इन शक्तियों और संभावनाओं को जगा ही नहीं पाते। इस भांति हम में से अधिकतम लोग आधे ही जीते हैं या उससे से भी कम। हमारी बहुत-सी शारीरिक और मानसिक शक्तियां अधूरी ही उपयोग में आती हैं और आध्यात्मिक शक्तियां तो उपयोग में आती ही नहीं। हम स्वयं में छिपे शक्ति-स्रोतों को न्यूनतम ही खोदते हैं और यही हमारी आंतरिक दरिद्रता का मूल कारण है। विलियम जेम्स ने कहा है, ''मनुष्य की अग्नि बुझी-बुझी जलती है और इसलिए वह स्वयं की आत्मा के ही समक्ष भी अत्यंत हीनता में जीता है।''
इस हीनता से ऊपर उठना अत्यंत आवश्यक है। अपने ही हाथों दीन-हीन बने रहने से बड़ा कोई पाप नहीं। भूमि खोदने से जल-स्रोत मिलते हैं, ऐसे ही जो स्वयं में खोदना सीख जाते हैं, वे स्वयं में ही छिपे अनंत शक्ति-स्रोतों को उपलब्ध होते हैं। किंतु उसके लिए सक्रिय और स्रजनात्मक होना होगा। जिसे स्वयं की पूर्णता को पाना है, वह- जबकि दूसरे विचार ही करते रहते हैं- विधायक रूप में सक्रिय हो जाता है। वह जो थोड़ा सा जानता है, उसे ही पहले क्रिया में परिणत कर लेता है। वह बहुत जानने को नहीं रुकता। और, इस भांति एक-एक कुदाली चलाकर वह स्वयं में शक्ति का कुंआ खोद लेता है, जबकि मात्र विचार करने वाले बैठे ही रह जाते हैं। विधायक सक्रियता और स्रजनात्मक से ही सोई शक्तियां जाग्रत होती हैं और व्यक्ति अधिक से अधिक जीवित बनता है। जो व्यक्ति अपनी पूर्ण संभावित शक्तियों को सक्रिय कर लेता है, वही पूरे जीवन का अनुभव कर पाता है और वही आत्मा का भी अनुभव करता है। क्योंकि, स्वयं की समस्त संभावनाओं के वास्तविक बन जाने पर जो अनुभूति होती है, वही आत्मा है।
विचार पर ही मत रुके रहो। चलो- और कुछ करो। हजार मील चलने के विचार करने से एक कदम चलना भी ज्यादा मूल्यवान है, क्योंकि वह कहीं तो पहुंचता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

सेवा प्रेम का सहज प्रस्फुटन है!


जैसा आप चाहते हो कि दूसरे हों, वैसा अपने को बनावें। उनको बदलने के लिए स्वयं को बदलना आवश्यक है। अपनी बदल से ही आप उनकी बदलाहट का प्रारंभ कर सकते हैं।
जो स्वयं जाग्रत है, वही केवल अन्य का सहायक हो सकता है। जो स्वयं निद्रित है, वह दूसरों को कैसे जगाएगा? और, जिसके भीतर स्वयं ही अंधकार का आवास है, वह दूसरों के लिए प्रकाश का स्रोत कैसे हो सकता है? निश्चय ही दूसरों की सेवा स्वयं के सृजन से ही प्रारंभ हो सकती है। पर-हित स्व-हित के पूर्व असंभव है। कोई मुझसे पूछता था, ''मैं सेवा करना चाहता हूं।'' मैंने उससे कहा, ''पहले साधना तब सेवा। क्योंकि, जो तुम्हारे पास नहीं है, उसे तुम किसी को कैसे दोगे? साधना से पाओ, तभी सेवा से बांटना हो सकता है।'' सेवा की इच्छा बहुतों में है, पर स्व-साधना और आत्म-सृजन की नहीं। यह तो वैसा ही है कि जैसे कोई बीज तो न बोना चाहे, लेकिन फसल काटना चाहे! ऐसे कुछ भी नहीं हो सकता है। किसी अत्यंत दुर्बल और दरिद्र व्यक्ति ने बुद्ध से कहा, ''प्रभु, मैं मानवता की सहायता के लिए क्या करूं?'' वह दुर्बल शरीर से नहीं, आत्मा से था और दरिद्र धन से नहीं, जीवन से था। बुद्ध ने एक क्षण प्रगाढ़ करुणा से उसे देखा। उनकी आंखें दया‌र्द्र हो आई। वे बोले- केवल एक छोटा-सा वचन, पर कितनी करुणा और कितना अर्थ उसमें था! उन्होंने कहा, ''क्या कर सकोगे तुम?'' 'क्या कर सकोगे तुम?' इसे हम अपने मन में दुहरावें। वह हमसे ही कहा गया है। सब करना स्वयं पर और स्वयं से ही प्रारंभ होता है। स्वयं के पूर्व जो दूसरों के लिए कुछ करना चाहता है, वह भूल में है। स्वयं को जो निर्मित कर लेता है, स्वयं जो स्वस्थ हो जाता है, उसका वैसा होना ही सेवा है।
सेवा की नहीं जाती। वह तो प्रेम से सहज ही निकलती है। और, प्रेम? प्रेम आनंद का स्फुरण है। अंतस में जो आनंद है, आचरण में वही प्रेम बन जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

ध्यान- शांत प्रतीक्षा!


कई बार ऐसा होता है कि ध्यान पास ही होता है, पर हम दूसरी चीजों में व्यस्त होते हैं। वह सूक्ष्म आवाज हमारे भीतर ही है, लेकिन हम निरंतर शोर से, व्यस्तताओं से, जिम्मेवारियों से, कोलाहल से भरे हुए हैं। और ध्यान आता है, एक फुसफुसाहट की तरह, वह नारे लगाते हुए नहीं आता, वह बहुत ही चुपचाप आता है। वह कोई शोरगुल नहीं करता। उसके कदमों की आहट भी सुनाई नहीं पड़ती। यदि हम व्यस्त हैं, तो वह प्रतीक्षा करता है और लौट जाता है।
तो एक बात तय कर लें कि कम से कम एक घंटा रोज शांत बैठें और उसकी प्रतीक्षा करें। कुछ मत करें, बस आंखें बंद करके शांत बैठ जाएं- गहन प्रतीक्षा में, एक प्रतीक्षारत् हृदय के साथ, एक खुले हृदय के साथ। सिर्फ प्रतीक्षा करें कि यदि कुछ घटे तो हम उसका स्वागत करने के लिए तैयार हों। यदि कुछ न घटे तो निराश न हों। कुछ न घटे तो भी एक घंटा बैठना अपने आप में विश्रामदायी है। वह हमें शांत करता है, स्वस्थ करता है, तरोताजा करता है और हमें जड़ों से जोड़ता है।
लेकिन धीरे-धीरे झलकें मिलने लगती हैं और एक तालमेल बैठने लगता है। हम किसी विशेष स्थिति में, विशेष कमरे में, विशेष स्थिति में प्रतीक्षा करते हैं, तो झलकें ज्यादा-ज्यादा आती हैं। वे कहीं बाहर से नहीं आती हैं, वे तुम्हारे अंतर्तम केंद्र से आती हैं। लेकिन जब अंतर्चेतना जानती है कि बाह्य चेतना उसके लिए प्रतीक्षारत है, तो मिलन की संभावना बढ़ जाती है।
किसी वृक्ष के नीचे बस बैठ जाएं। हवा चल रही है और वृक्ष के पत्तों में सरसराहट हो रही है। हवा आपको छू रही है, आपके आसपास बह रही है, आपको छूकर गुजर रही है। लेकिन हवा को सिर्फ अपने आसपास ही मत गुजरने दें, उसे अपने भीतर से होकर भी गुजरने दें, अपने भीतर से बहने दें। अपनी आंखें बंद कर लें और महसूस करें कि जैसे हवा वृक्षों से होकर गुजरती है और पत्तों की सरसराहट होती है, वैसे ही आप भी एक वृक्ष की भांति हैं, खुले और हवा आपसे होकर बह रही है- आसपास से नहीं बल्कि सीधे आपसे होकर बह रही है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)




आत्म-गहराई!


सुबह कुछ लोग आए थे। उनसे मैंने कहा, ''सदा स्वयं के भीतर गहरे से गहरे होने का प्रयास करते रहो। भीतर इतनी गहराई हो कि कोई तुम्हारी थाह न ले सके। अथाह जिसकी गहराई है, अगोचर उसकी ऊंचाई हो जाती है।''
जीवन जितना ही ऊंचा हो जाता है, जितना कि गहरा हो। जो ऊंचा तो होना चाहते हैं, लेकिन गहरे नहीं, उनकी असफलता सुनिश्चित है। गहराई के आधार पर ही ऊंचाई के शिखर संभलते हैं। दूसरा और कोई रास्ता नहीं। गहराई असली चीज है। उसे जो पा लेता है, उन्हें ऊंचाई तो अनायास ही मिल जाती है। सागर से जो स्वयं में गहरे होते हैं, हिम शिखरों की ऊंचाई केवल उन्हें ही मिलती है। गहराई मूल्य है, जो ऊंचा होने के लिए चुकाना ही पड़ता है। और, स्मरण रहे कि जीवन में बिना मूल्य कुछ भी नहीं मिलता है।
स्वामी राम कहा करते थे कि उन्होंने जापान में तीन-तीन सौ, चार-चार सौ साल के चीड़ और देवदार के दरख्त देखे, जो केवल एक-एक बालिश्त के बराबर ऊंचे थे! आप ख्याल करें कि देवदार के दरख्त कितने बड़े होते हैं! मगर कौन और कैसे इन दरख्तों को बढ़ाने से रोक देता है? जब उन्होंने दर्याफ्त किया, तो लोगों ने कहा हम इन दरख्तों के पत्तों और टहनियों को बिलकुल नहीं छेड़ते, बल्कि जड़ें काटते रहते हैं, नीचे बढ़ने नहीं देते। और, कायदा है कि जब जड़ें नीचे नहीं जाएंगी, तो वृक्ष ऊपर नहीं बढ़ेगा। ऊपर और नीचे दोनों में इस किस्म का संबंध है कि जो लोग ऊपर बढ़ना चाहते हैं, उन्हें अपनी आत्मा में जड़े बढ़ानी चाहिए। भीतर जड़े नहीं बढ़ेंगी, तो जीवन कभी ऊपर नहीं उठ सकता है।
लेकिन, हम इस सूत्र को भूल गए हैं और परिणाम में जो जीवन देवदार के दरख्तों की भांति ऊंचे हो सकते थे, वे जमीन से बालिश्त भर ऊंचे नहीं उठ पाते हैं! मनुष्य छोटे से छोटा होता जा रहा है, क्योंकि स्वयं की आत्मा में उसकी जड़ें कम से कम गहरी होती जाती हैं।
शरीर सतह है, आत्मा गहराई। शरीर में जो जीता है, वह गहरा कैसे हो सकेगा? शरीर में नहीं, आत्मा में जीओ। सदैव यह स्मरण रखो कि मैं जो भी सोचूं, बोलूं और करूं, उसकी परिसमाप्ति शरीर पर ही न हो जावे। शरीर से भिन्न और ऊपर भी कुछ सोचो, बोलो और करो। उससे ही क्रमश: आत्मा में जड़े मिलती हैं और गहराई उपलब्ध होती है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

'मैं' का बंधन!


'मैं' को भूल जाना और 'मैं' से ऊपर उठ जाना सबसे बड़ी कला है। उसके अतिक्रमण से ही मनुष्य मनुष्यता को पार कर द्वियता से संबंधित हो जाता है। जो 'मैं' से घिरे रहते हैं, वे भगवान को नहीं जान पाते। उस घेरे के अतिरिक्त मनुष्यता और भगवत्ता के बीच और कोई बाधा नहीं है।
च्वांग-त्सु किसी बढ़ई की एक कथा कहता था। वह बढ़ई अलौकिक रूप से कुशल था। उसके द्वारा निर्मित वस्तुएं इतनी सुंदर होती थीं कि लोग कहते थे कि जैसे उन्हें किसी मनुष्य ने नहीं, वरन देवताओं ने बनाया हो। किसी राज ने उस बढ़ई से पूछा, ''तुम्हारी कला में यह क्या माया है?'' वह बढ़ई बोला, ''कोई माया-वाया नहीं है, महाराज! बहुत छोटी सी बात है। वह यही है कि जो भी मैं बनाता हूं, उसे बनाते समय अपने 'मैं' को मिटा देता हूं। सबसे पहले मैं अपनी प्राण-शक्ति के अपव्यय को रोकता हूं और चित्त को पूर्णत: शांत बनाता हूं। तीन दिन इस स्थिति में रहने पर, उस वस्तु से होने वाले मुनाफे, कमाई आदि की बात मुझे भूल जाती है। फिर, पांच दिनों बाद उससे मिलने वाले यश का भी ख्याल नहीं रहता। सात दिन और, और मुझे अपनी काया का विस्मरण हो जाता है- सभी बाह्य-अंतर विघ्न और विकल्प तिरोहित हो जाते हैं। फिर, जो मैं बनाता हूं, उससे परे और कुछ भी नहीं रहता। 'मैं' भी नहीं रहता हूं। और, इसलिए वे कृतियां दिव्य प्रतीत होने लगती हैं।''
जीवन में दिव्यता को उतारने का रहस्य सूत्र यही है। मैं को विसर्जित कर दो- और चित्त को किसी सृजन में तल्लीन। अपनी सृष्टिं में ऐसे मिट जाओ और एक हो जाओ जैसे कि परमात्मा उसकी सृष्टिं में हो गया है।
कल कोई पूछता था, ''मैं क्या करूं?'' मैंने कहा, ''क्या करते हो, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि कैसे करते हो! स्वयं को खोकर कुछ करो, तो उससे ही स्वयं को पाने का मार्ग मिल जाता है।''
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)