धर्म, सम्राट बनाने की कला है 6






       सलिए दो बातें ध्यान में रखनी जरूरी हैं। बाहर की जिंदगी बेमानी है। बाहर की जिंदगी का बहुत अंतिम अर्थ नहीं है। रेत पर खींची गई लकीरों की तरह वह जिंदगी है। हवाएं आएंगी और सब रेत पुंछ जाएगी। कितने लोग हमसे पहले रहे हैं इस पृथ्वी पर! जहां हम बैठे हैं उस जमीन में नामालूम कितने लोगों की कब्र बन गई होगी। जिस रेत पर हम बैठे हैं वह रेत नामालूम कितने लोगों की जिंदगी की राख का हिस्सा है। कितने लोग इस पृथ्वी पर रहे हैं और कितने लोग खो गए हैं! आज कौन सा उनका निशान है? कौन सा उनका ठिकाना है? उन्होंने क्या नहीं सोचा होगा, क्या नहीं किया होगा! कितने-कितने... मैं सुनता हूं कि द्वारिका सात बार बनी और बिगड़ी। सात करोड़ बार बन-बिगड़ गई होगी। कुछ पता नहीं है। इतना अंतहीन है विस्तार यह सब, इसमें सब रोज बनता है और बिगड़ जाता है। लेकिन कितने सपने देखे होंगे उन लोगों ने! कितनी इच्छाएं की होंगी कि ये बनाएं, ये बनाएं। सब राख और रेत हो गया, सब खो गया। हम भी खो जाएंगे कल। हमारे भी बड़े सपने हैं। हम भी क्या-क्या नहीं कर लेना चाहते हैं! लेकिन समय की रेत पर सब पुंछ जाता है। हवाएं आती हैं और सब बह जाता है। 
बाहर की जिंदगी का बहुत अंतिम अर्थ नहीं है। बाहर की जिंदगी खेल से ज्यादा नहीं है। हां, ठीक से खेल लें, इतना काफी है। क्योंकि ठीक से खेलना भीतर ले जाने में सहयोगी बनता है। लेकिन बाहर की जिंदगी का कोई बहुत मूल्य नहीं है। तो कुछ लोग बाहर की जिंदगी में खोकर भटक जाते हैं। फिर कुछ लोग भीतर की तरफ चलते हैं तो वहां एक गलत रास्ता बनाया हुआ है। वहां धर्म के नाम पर दुकानें लगी हैं। वहां धर्म के नाम पर हिंदू, मुसलमान, ईसाइयों के पुरोहित बैठे हैं। वहां धर्म के नाम पर आदमी के बनाए हुए ईश्वर, आदमी के बनाए हुए देवता, आदमी की बनाई हुई किताबें बैठी हैं। वे भटका देती हैं। बाहर से किसी तरह आदमी बचता है--कुएं से बचता है और खाई में गिर जाता है। उस भटकन में चल पड़ता है। 
उस भटकन से कुछ लोगों को फायदा है। कुछ लोग शोषण कर रहे हैं। हजारों साल से कुछ लोग इसी का शोषण कर रहे हैं--आदमी की इस कमजोरी का, आदमी की इस नासमझी का, आदमी की इस असहाय अवस्था का--कि आदमी जब बाहर से भीतर की तरफ मुड़ता है तो वह अनजान होता है, उसे कुछ पता नहीं होता कि कहां जाऊं?
वहां गुरु खड़े हुए हैं। वे कहते हैं, आओ, हम तुम्हें रास्ता बताते हैं। हमारे पीछे चलो। हम जानते हैं।
और ध्यान रहे, जो आदमी कहता है, मैं जानता हूं, मेरे पीछे आओ, यह आदमी बेईमान है। क्योंकि धर्म की दुनिया में जो आदमी प्रविष्ट होता है उसका मैं ही मिट जाता है, वह यह भी कहने की हिम्मत नहीं कर सकता कि मैं जानता हूं। सच तो यह है कि वहां कोई जानने वाला नहीं बचता, वहां कुछ जाना जाने वाला नहीं होता। वहां जानने वाला भी मिट जाता है, जो जाना जाता है वह भी मिट जाता है। वहां न ज्ञाता होता है न ज्ञेय। इसलिए जो जान लेता है वह यह नहीं कहता कि मैं जानता हूं, आओ मैं तुम्हें ले चलूंगा। और जो जान लेता है वह यह भी जान लेता है कि कोई कभी किसी दूसरे को नहीं ले गया है। प्रत्येक को स्वयं जाना पड़ता है। धर्म की दुनिया में कोई गुरु नहीं होते। लेकिन वह जो पाखंड का धर्म है वहां गुरुओं के अड्डे हैं। इसलिए ध्यान रहे, जो गुरु के पीछे जाएगा वह कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचता। क्योंकि वे गुरुओं की दुकानें अपने पीछे ले जाती हैं और आदमी के बनाए हुए जाल में उलझा देती हैं। करोड़ों-करोड़ों लोग चींटियों की तरह यात्रा करते रहते हैं पीछे एक-दूसरे के।
यह सारी की सारी यात्रा व्यर्थ है। न कोई धर्म का तीर्थ है, न कोई धर्म का मंदिर है, न कोई धर्म की किताब है, न कोई धर्मगुरु है। और जब तक हम इन बातों में भटके रहेंगे, तब तक हम कभी भी धर्म को नहीं जान सकते। लेकिन आप कहेंगे, फिर हम क्या करें? अगर हम गुरु के पीछे न जाएं तो हम कहां जाएं? किसी के पीछे मत जाओ! ठहर जाओ! किसी के पीछे मत जाओ! और तुम वहां पहुंच जाओगे जहां पहुंचना जरूरी है। कुछ चीजें हैं जहां चल कर पहुंचा जाता है और कुछ चीजें ऐसी हैं जहां रुक कर पहुंचा जाता है। धर्म ऐसी ही चीज है, वहां चल कर नहीं पहुंचना पड़ता। 
यह कभी शायद सोचा नहीं होगा। 
मैं द्वारिका तक आया तो मुझे यात्रा करके आना पड़ा, क्योंकि मेरे और आपके बीच में फासला था। फासले को पूरा करना पड़ा। अगर मैं अभी उठ कर आपके पास आऊं तो मुझे चलना पड़ेगा, क्योंकि आपके और मेरे बीच में दूरी है, दूरी को पार करना पड़ेगा। लेकिन आदमी और परमात्मा के बीच में दूरी ही नहीं है। इसलिए चलने का सवाल नहीं है वहां। वहां जो चलेगा वह भटक जाएगा। वहां जो ठहर जाता है वह पहुंच जाता है। इसलिए पहली बात ठीक से समझ लेना: वहां चल कर नहीं पहुंचना है। इसलिए किसी गुरु की जरूरत नहीं है, किसी वाहन की जरूरत नहीं है, किसी यात्रा की जरूरत नहीं है। वहां तो वे पहुंचते हैं जो सब तरह से रुक जाते हैं और ठहर जाते हैं। 


जारी-----
(सौजन्‍य से – ओशो न्‍यूज लेटर)

धर्म, सम्राट बनाने की कला है -5







और हम? हम एक मंदिर बनाते हैं। वह मंदिर भी बनेगा और गिरेगा, क्योंकि जो भी बनता है वह मिटता है। हम एक मूर्ति बनाते हैं। जो भी बन गई है मूर्ति, वह कल गिरेगी और बिखर जाएगी। हम एक किताब रचते हैं। जो भी रचा जाता है वह नष्ट हो जाता है। जो भी बनता है, मिटता है, वह ईश्वर नहीं है। 

लेकिन आदमी ने अपने थोथे और झूठे धर्म खड़े कर रखे हैं। क्यों कर रखे हैं खड़े?
इसलिए खड़े कर रखे हैं कि आज नहीं कल हर आदमी बाहर से ऊबता है और भीतर की तरफ जाता है। और जब भीतर की तरफ जाता है तो वहां दो रास्ते हैं: एक झूठे धर्म का रास्ता है, एक सच्चे धर्म का रास्ता है। सच्चे धर्म के रास्ते पर आदमी चला जाए तो उसका शोषण नहीं किया जा सकता। उसे झूठे धर्म के रास्ते पर ले जाओ, तो पंडे हैं, पुरोहित हैं, पुजारी हैं, मौलवी हैं, वे सब उसका शोषण कर सकते हैं।

आदमी को भटकाने वाले लोग नास्तिक नहीं हैं उतने, जितने कि पंडे हैं, पुजारी हैं, साधु हैं, संन्यासी हैं। जो शोषण करते हैं धर्म का। जो धर्म के नाम पर जीते हैं। जिन्होंने धर्म को आजीविका बना रखा है। जिन्होंने धर्म को धंधा बना रखा है। जो लोग भगवान को भी बेचते हैं और भगवान के बेचने पर जीते हैं। उन लोगों ने एक झूठा, एक सब्स्टीटयूट रिलीजन, एक परिपूरक धर्म बना रखा है। इसके पहले कि कोई आदमी भीतर जाए, वे उस झूठे रास्ते पर उसे लगा देते हैं। उस रास्ते पर करोड़ों-करोड़ों लोग चल रहे हैं--हिंदुओं के नाम से, मुसलमानों के नाम से, ईसाइयों के नाम से। और वे करोड़ों-करोड़ों लोग कहीं भी नहीं पहुंचते। बाहर भी कहीं नहीं पहुंचता आदमी और भीतर भी गलत रास्ते को पकड़ कर कहीं भी नहीं पहुंचता।

कुछ थोड़े से लोग कभी भीड़ से चूक जाते हैं और उस रास्ते पर चले जाते हैं जो धर्म का रास्ता है। और ध्यान रहे, भीड़ कभी धर्म के रास्ते पर नहीं जाती। धर्म के रास्ते पर अकेले लोग जाते हैं। क्योंकि धर्म के रास्ते पर कोई राजपथ नहीं है, जिस पर करोड़ों लोग इकट्ठे चल सकें। धर्म का रास्ता पगडंडी की तरह है, जिस पर अकेला आदमी चलता है। दो आदमी भी साथ नहीं चल सकते।

और यह भी ध्यान रहे, धर्म का रास्ता कुछ रेडीमेड, बना-बनाया नहीं है, कि पहले से तैयार है, आप जाएंगे और चल पड़ेंगे। धर्म का रास्ता ऐसे ही है जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं। कोई रास्ता नहीं है बना हुआ, पक्षी उड़ता है और रास्ता बनता है, जितना उड़ता है उतना रास्ता बनता है। और ऐसा भी नहीं है कि एक पक्षी उड़े तो रास्ता बन जाए, तो दूसरा उसके पीछे उड़ जाए। फिर रास्ता मिट जाता है। उड़ा पक्षी, आगे बढ़ गया, आकाश में कोई निशान नहीं बनते।

ठीक धर्म के आकाश में भी एक-एक आदमी जाता है। बिना बंधे हुए रास्ते हैं। पाथलेस पाथ है। वहां कोई बंधा हुआ रास्ता नहीं है। पंथहीन पंथ है वहां। वहां कोई बंधी हुई पगडंडी नहीं है कि पहले से तैयार है, आप जाएंगे और चल पड़ेंगे। अगर ऐसा होता तो हम सारे लोगों को कभी का उस रास्ते पर ले गए होते। अज्ञात है, अनचार्टर्ड है, कोई नक्शा नहीं है पास में, कोई कुतुबनुमा नहीं है पास में जिससे पता चल जाए कि रास्ता कहां है। उस अनजान रास्ते पर अकेले उतरने की हिम्मत जिनकी है वे जरूर पहुंचते हैं परमात्मा तक। 

लेकिन हिंदू घर में पैदा हो गया लड़का, तो हिंदुओं की भीड़ में सम्मिलित हो जाता है। वह कहे काशी जाओ, तो काशी जाता है। कहे द्वारिका जाओ, तो द्वारिका जाता है। कहे कि यह भगवान है, इसको पूजो, तो उनको पूजता है। मुसलमानों की भीड़ में पैदा हो गया, कहे मक्का जाओ, तो मक्का जाता है। ईसाइयों की भीड़ में पैदा हो गया, कहा कि जेरुसलम जाओ, तो जेरुसलम जाता है। भीड़ के पीछे चलता है आदमी। और जो आदमी भीड़ के पीछे चलता है वह आदमी झूठे धर्म के रास्ते पर चलेगा। जो आदमी अकेला चलने की हिम्मत जुटाता है वह आदमी धर्म के रास्ते पर जा सकता है। 
जारी------
(सौजन्‍य से :  ओशो न्‍यूज  लेटर)