स्वयं को जाने बिना ज्ञान की प्यास नहीं मिटती

ज्ञान के लिए पिपासा है। कितनी प्यास है? प्रत्येक में देखता हूं। कुछ भीतर प्रज्ज्वलित है, जो शांत होना चाहता है और मनुष्य कितनी दिशाओं में खोजता है। शायद अनंत जन्मों से उसकी यह खोज चली आ रही है। पर हर चरण पर निराशा के अतिरिक्त और कुछ भी हाथ नहीं आता है। कोई रास्ता पहुंचता हुआ नहीं दिखता है। क्या रास्ते कहीं भी नहीं ले जाते हैं?
इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना है। जीवन स्वयं इसका उत्तर है। क्या अनंत मार्गो और दिशाओं में चलकर उत्तर नहीं मिल गया है?
बौद्धिक उत्तर खोजने में, उसके धुएं में, वास्तविक उत्तर खो जाता है। बुद्धि चुप हो तो अनुभूति बोलती है। विचार मौन हों तो विवेक जाग्रत होता है।
वस्तुत: जीवन के आधारभूत प्रश्नों के उत्तर नहीं होते हैं। समस्याएं हल नहीं होती हैं, गिर जाती हैं। केवल पूछने और शून्य हो जाने की बात है। बुद्धि केवल पूछ सकती है। समाधान उससे नहीं शून्य से आता है।
'समाधान शून्य से आता है,' इसी सत्य को जानते ही एक नये आयाम पर जीवन का उद्घाटन प्रारंभ हो जाता है। चित्त की इसी स्थिति का नाम समाधि है।
पूछें और चुप हो जाएं- बिलकुल चुप और समाधान को आने दें, उसे फलने दें। चित्त की इस निस्तरंग स्थिति में दर्शन होता है, उसका-जो है, जो मैं हूं।
स्वयं को जाने बिना ज्ञान की प्यास नहीं मिटती है।
सब मार्ग छोड़कर स्वयं पर पहुंचना होता है। चित्त जब किसी मार्ग पर नहीं है, तब स्वयं में है और स्वयं को जानना ज्ञान है। शेष सब जानकारी है, क्योंकि परोक्ष है। विज्ञान ज्ञान नहीं है। वह सत्य को नहीं, केवल उपयोगिता को जानना है। सत्य केवल अपरोक्ष ही जाना जा सकता है और ऐसी सत्ता केवल स्वयं की ही है, जो कि अपरोक्ष जानी जा सकती है।
चित्त जिस क्षण खोज की व्यर्थता को जानकर चुप और थिर रह जाता है, उसी क्षण अनंत के द्वार खुल जाते हैं।
दिशा-शून्य चेतना प्रभु में विराजमान हो जाती है और ज्ञान की प्यास का अंत केवल प्रभु में ही है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)