भीतर की यात्रा


सत्य स्वयं के भीतर है। उसे पहचान लेना भी कठिन नहीं, लेकिन उसके लिए अपने भीतर यात्रा करनी होगी। जब कोई अपने भीतर जाता है, तो अपने ही प्राणों के प्राण में वह सत्य को भी पा जाता है और स्वयं को भी।

पहले महायुद्ध की बात है, एक फ्रांसीसी सैनिक को किसी रेलवे स्टेशन के पास क्षत-विक्षत स्थिति में पाया गया था। उसका चेहरा इतने घावों से भरा था कि उसे पहचानना कठिन था कि वह कौन है। उसे पहचानना और भी कठिन इसलिए हो गया कि उसके मस्तिष्क पर चोट आ जाने से वह स्वयं भी स्वयं को भूल गया था। उसकी स्मृति चली गई थी। पूछे जाने पर वह कहता था, ''मैं नहीं जानता कि मैं कौन हूं और कहां से हूं?'' और यह बताते ही उसकी आंखों से आंसुओं की धार लग जाती थी। अंतत: तीन परिवारों ने उसे अपने परिवार से संबंधित होने का दावा किया। वह तीनों परिवारों से हो यह तो संभव नहीं था, इसलिए उसे क्रमश: तीनों गांवों में ले जाकर छोड़ा गया। दो गांवों में तो वह किंकर्तव्यविमूढ़ की भांति जाकर खड़ा हो गया। किंतु तीसरे गांव में प्रविष्ट होते ही उसकी फीकी आंखें एक नई चमक से भर गई। और उसके भाव-शून्य चेहरे पर किन्हीं भावों के दर्शन होने लगे। वह स्वयं ही एक छोटी गली में गया और फिर एक घर को देखकर दौड़ने लगा। उसके सोये-से प्राणों में कोई शक्ति जैसे जग गई हो, वह पहचान गया था। उसका घर उसकी स्मृति में आ गया था। उसने आनंद से विभोर होकर कहा था, ''यही मेरा घर है और मुझे स्मरण आ गया है कि मैं कौन हूं!''

ऐसे ही हममें से प्रत्येक साथ हुआ है। हम भूल गये हैं कि कौन हैं, क्योंकि हम भूल गये हैं कि हमारा घर कहां है। अपना घर दीख जावे, तो स्वयं को पहचान लेना सहज ही हो जाता है।

जो व्यक्ति बाहर ही यात्रा करता रहता है, वह कभी उस गांव में नहीं पहुंचता, जहां कि उसका वास्तविक घर है। और वह न पहुंचने से वह स्वयं तक ही नहीं पहुंच पाता है। बाहर ही नहीं, भीतर भी एक यात्रा होती है, जो स्वयं तक और सत्य तक ले जाती है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)