प्रकाश को पाना है।


अंधकार की चिंता छोड़ो और प्रकाश को प्रदीप्त करो। जो अंधकार का ही विचार करते रहते हैं, वे प्रकाश तक कभी नहीं पहुंच पाते हैं।

जीवन में बहुत अंधकार है। और अंधकार की ही भांति अशुभ और अनीति है। कुछ लोग इस अंधकार को स्वीकार कर लेते हैं और तब उनके भीतर जो प्रकाश तक पहुंचने और उसे पाने की आकांक्षा थी, वह क्रमश: क्षीण होती जाती है। मैं अंधकार की इस स्वीकृति को मनुष्य का सबसे बड़ा पाप मानता हूं। यह मनुष्य का स्वयं अपने ही प्रति किया गया अपराध है। उसके दूसरों के प्रति किये गये अपराधों का जन्म इस मूल-पाप से ही होता है। यह स्मरण रहे कि जो व्यक्ति अपने ही प्रति इस पाप को नहीं करता है, वह किसी के भी प्रति कोई पाप नहीं कर सकता है। किंतु, कुछ लोग अंधकार के स्वीकार से बचने के लिये उसके अस्वीकार में लग जाते हैं। उनका जीवन अंधकार के निषेध का ही सतत उपक्रम बन जाता है। यह भी भूल है। अंधकार को मान लेने वाला भी भूल में है। न अंधकार को मानना है, न उससे लड़ना है। जो जानता है, वह प्रकाश को जलाने की आयोजना करता है। अंधकार की अपनी सत्ता नहीं है। वह प्रकाश का अभाव मात्र है। प्रकाश के आते ही वह नहीं पाया जाता है। और ऐसा ही अशुभ है, ऐसी ही अनीति है, ऐसा ही अधर्म है। अशुभ को, अनीति को, अधर्म को मिटाना नहीं, शुभ का, नीति का, धर्म का दिया जलाना ही पर्याप्त है। धर्म की ज्योति ही अधर्म की मृत्यु है।

अंधकार से लड़ना अभाव से लड़ना है। वह विक्षिप्तता है। लड़ना है, तो प्रकाश पाने के लिये लड़ो- जो प्रकाश पा लेता है, वह अंधकार को मिटा ही देता है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)