त्याग : नश्वर का त्याग शाश्वत की प्राप्ति!




एक गांव में गया था। किसी ने कहा : धर्म त्याग है। त्याग बड़ी कठिन और कठोर साधना है।

मैं सुनाता
था तो एक स्मरण हो आया। छोटा था- बहुत बचपना की बात होगी। कुछ लोगों के साथ नदी-तट पर वन-भोज को गया था। नदी तो छोटी थी, पर रेत बहुत थी और रेत में चमकीले रंगों-भरे पत्थर बहुत थे। मैं तो जैसे खजाना पा गया था। सांझ तक इतने पत्थर बीन लिये थे कि उन्हें साथ लाना असंभव था। चलते क्षण जब उन्हें छोड़ना पड़ा तो मेरी आंखें भीग गयी थीं। साथ के लोगों की उन पत्थरों के प्रति विरक्ति देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ था। उस दिन वे मुझे बड़े त्यागी लगे थे।
आज सोचता हूं, तो दिखता है कि पत्थरों को पत्थर जान लेने पर त्याग का कोई प्रश्न ही नहीं है।
अज्ञान भोग है। ज्ञान त्याग है।
त्याग क्रिया नहीं है। वह करना नहीं होता है। वह हो जाता है। वह ज्ञान का सहज परिणाम है। भोग भी यांत्रिक है। वह भी कोई करता नहीं है। वह अज्ञान की सहज परिणति है।
फिर, त्याग के कठिन और कठोर होने की बात ही व्यर्थ है। एक तो वह क्रिया ही नहीं है। क्रियाएं ही कठिन और कठोर हो सकती हैं। वह तो परिणाम है। फिर उससे जो छूटता मालूम होता है, वह निर्मूल्य और जो पाया जाता है, वह अमूल्य होता है।
वस्तुत: त्याग जैसी कोई वस्तु ही नहीं है, क्योंकि जो हम छोड़ते हैं, उससे बहुत को पा लेते हैं।
सच तो यह है कि हम केवल बंधनों को छोड़ते हैं और पाते हैं, मुक्ति। छोड़ते हैं, कौड़ियां और पाते हैं, हीरे। छोड़ते हैं, मृत्यु और पाते हैं, अमृत। छोड़ते हैं, अंधेरा और पा लेते हैं, प्रकाश-शाश्वत और अनंत।
इसलिए, त्याग कहाँ है? न-कुछ को छोड़कर सब कुछ को पा लेना त्याग नहीं है!
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)