सिर्फ सेक्स तल पर मिलना आत्मीयता नहीं!




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सभी आत्मीयता से डरते हैं। यह बात और है कि इसके बारे में तुम सचेत हो या नहीं। आत्मीयता का मतलब होता है कि किसी अजनबी के सामने स्वयं को पूरी तरह से उघाड़ना। हम सभी अजनबी हैं--कोई भी किसी को नहीं जानता। हम स्वयं के प्रति भी अजनबी हैं, क्योंकि हम नहीं जानते कि हम हैं कौन। 

आत्मीयता तुम्हें अजनबी के करीब लाती है। तुम्हें अपने सारे सुरक्षा कवच गिराने हैं; सिर्फ तभी, आत्मीयता संभव है। और भय यह है कि यदि तुम अपने सारे सुरक्षा कवच, तुम्हारे सारे मुखौटे गिरा देते हो, तो कौन जाने कोई अजनबी तुम्हारे साथ क्या करने वाला है।

एक तरफ आत्मीयता अनिवार्य जरूरत है, इसलिए सभी यह चाहते हैं। लेकिन हर कोई चाहता है कि दूसरा व्यक्ति आत्मीय हो कि दूसरा व्यक्ति अपने बचाव गिरा दे, संवेदनशील हो जाए, अपने सारे घाव खोल दे, सारे मुखौटे और झूठा व्यक्तित्व गिरा दे, जैसा वह है वैसा नग्न खड़ा हो जाए। 

यदि तुम सामान्य जीवन जीते, प्राकृतिक जीवन जीते तो आत्मीयता से कोई भय नहीं होता, बल्कि बहुत आनंद होता-दो ज्योतियां इतनी पास आती हैं कि लगभग एक बन जाए। और यह मिलन बहुत बड़ी तृप्तिदायी, संतुष्टिदायी, संपूर्ण होती है। लेकिन इसके पहले कि तुम आत्मीयता पाओ, तुम्हें अपना घर पूरी तरह से साफ करना होगा। 

सिर्फ ध्यानी व्यक्ति ही आत्मीयता को घटने दे सकता है। आत्मीयता का सामान्य सा अर्थ यही होता है कि तुम्हारे लिए हृदय के सारे द्वार खुल गए, तुम्हारा भीतर स्वागत है और तुम मेहमान बन सकते हो। लेकिन यह तभी संभव है जब तुम्हारे पास हृदय हो और जो दमित कामुकता के कारण सिकुड़ नहीं गया हो, जो हर तरह के विकारों से उबल नहीं रहा हो, जो कि प्राकृतिक है, जैसे कि वृक्ष; जो इतना निर्दोष है जितना कि एक बच्चा। तब आत्मीयता का कोई भय नहीं होगा। 

विश्रांत होओ और समाज ने तुम्हारे भीतर जो विभाजन पैदा कर दिया है उसे समाप्त कर दो। वही कहो जो तुम कहना चाहते हो। बिना फल की चिंता किए अपनी सहजता के द्वारा कर्म करो। यह छोटा सा जीवन है और इसे यहां और वहां के फलों की चिंता करके नष्ट नहीं किया जाना चाहिए। 

आत्मीयता के द्वारा, प्रेम के द्वारा, दूसरें लोगों के प्रति खुल कर, तुम समृद्ध होते हो। और यदि तुम बहुत सारे लोगों के साथ गहन प्रेम में, गहन मित्रता में, गहन आत्मीयता में जी सको तो तुमने जीवन सही ढंग से जीया, और जहां कहीं तुम हो...तुमने कला सीख ली; तुम वहां भी प्रसन्नतापूर्वक जीओगे।

लेकिन इसके पहले कि तुम आत्मीयता के प्रति भयरहित होओ, तुम्हें सारे कचरे से मुक्त होना होगा जो धर्म तुम्हारे ऊपर डालते रहे हैं, सारा कबाड़ जो सदियों से तुम्हें दिया जाता रहा है। इस सब से मुक्त होओ, और शांति, मौन, आनंद, गीत और नृत्य का जीवन जीओ। और तुम रूपांतरित होओगे...जहां कहीं तुम हो, वह स्थान स्वर्ग हो जाएगा। 

अपने प्रेम को उत्सवपूर्ण बनाओ, इसे भागते दौडते किया हुआ कृत्य मत बनाओ। नाचो, गाओ, संगीत बजाओ-और सेक्स को मानसिक मत होने दो। मानसिक सेक्स प्रामाणिक नहीं होता है; सेक्स सहज होना चाहिए।

माहौल बनाओ। तुम्हारा सोने का कमरा ऐसा होना चाहिए जैसे कि मंदिर हो। अपने सोने के कमरे में और कुछ मत करो; गाओ और नाचो और खेलो, और यदि स्वतः प्रेम होता है, सहज घटना की तरह, तो तुम अत्यधिक आश्चर्यचकित होओगे कि जीवन ने तुम्हें ध्यान की झलक दे दी।

पुरुष और स्त्री के बीच रिश्ते में बहुत बड़ी क्रांति आने वाली है। पूरी दुनिया में विकसित देशों में ऐसे संस्थान हैं जो सिखाते हैं कि प्रेम कैसे करना। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जानवर भी जानते हैं कि प्रेम कैसे करना, और आदमी को सीखना पड़ता है। और उनके सिखाने में बुनियादी बात है संभोग के पहले की क्रीडा और उसके बाद की क्रीडा, फोरप्ले और ऑफ्टरप्ले। तब प्रेम पावन अनुभव हो जाता है।

इसमें क्या बुरा है यदि आदमी उत्तेजित हो जाए और कमरे से बाहर नंगा निकाल आए? दरवाजे को बंद रखो! सारे पड़ोसियों को जान लेने दो कि यह आदमी पागल है। लेकिन तुम्हें अपने चरमोत्कर्ष के अनुभव की संभावना को नियंत्रित नहीं करना है। चरमोत्कर्ष का अनुभव मिलने और मिटने का अनुभव है, अहंकारविहीनता, मनविहीनता, समयविहीनता का अनुभव है।

इसी कारण लोग कंपते हुए जीते हैं। भला वो छिपाएं; वे इसे ढंक लें, वे किसी को नहीं बताएं, लेकिन वे भय में जीते हैं। यही कारण है कि लोग किसी के साथ आत्मीय होने से डरते हैं। भय यह है कि हो सकता है कि यदि तुमने किसी को बहुत करीब आने दिया तो दूसरा तुम्हारे भीतर के काले धब्बे देख ना ले ।

इंटीमेसी (आत्मीयता) शब्द लातीन मूल के इंटीमम से आया है। इंटीमम का अर्थ होता है तुम्हारी अंतरंगता, तुम्हारा अंतरतम केंद्र। जब तक कि वहां कुछ न हो, तुम किसी के साथ आत्मीय नहीं हो सकते। तुम किसी को आत्मीय नहीं होने देते क्योंकि वह सब-कुछ देख लेगा, घाव और बाहर बहता हुआ पस। वह यह जान लेगा कि तुम यह नहीं जानते कि तुम हो कौन, कि तुम पागल आदमी हा; कि तुम नहीं जानते कि तुम कहां जा रहे हो कि तुमने अपना स्वयं का गीत ही नहीं सुना कि तुम्हारा जीवन अव्यवस्थित है, यह आनंद नहीं है। इसी कारण आत्मीयता का भय है। प्रेमी भी शायद ही कभी आत्मीय होते हैं। और सिर्फ सेक्स के तल पर किसी से मिलना आत्मीयता नहीं है। ऐंद्रिय चरमोत्कर्ष आत्मीयता नहीं है। यह तो इसकी सिर्फ परिधि है; आत्मीयता इसके साथ भी हो सकती है और इसके बगैर भी हो सकती है।
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(सौजन्‍य से ओशो इंटरनेश्‍नल फाउंडेशन)
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बच्चों को अंतर्मुखी कैसे बनाया जाए?



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गतांक से आगे---
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इसलिए भूल कर भी दबाव मत डालना, भूल कर भी जबरदस्ती मत करना, भूल कर भी हिंसा मत करना। बहुत प्रेम से, अपने जीवन के परिवर्तन से, बहुत शांति से, बहुत सरलता से बच्चे को सुझाना। आदेश मत देना, यह मत कहना कि ऐसा करो। क्योंकि जब भी कोई ऐसा कहता है, ऐसा करो! तभी भीतर यह ध्वनि पैदा होती है सुनने वाले के कि नहीं करेंगे। यह बिलकुल सहज है। उससे यह मत कहना कि ऐसा करो। उससे यही कहना कि मैंने ऐसा किया और आनंद पाया; अगर तुम्हें आनंद पाना हो तो इस दिशा में सोचना। उसे समझाना, उसे सुझाव देना; आदेश नहीं, उपदेश नहीं। उपदेश और आदेश बड़े खतरनाक सिद्ध होते हैं। उपदेश और आदेश बड़े अपमानजनक सिद्ध होते हैं।

छोटे बच्चे का बहुत आदर करना। क्योंकि जिसका हम आदर करते हैं उसको ही केवल हम अपने हृदय के निकट ला पाते हैं। यह हैरानी की बात मालूम पड़ेगी। हम तो चाहते हैं कि छोटे बच्चे बड़ों का आदर करें। हम उनका कैसे आदर करें! लेकिन अगर हम चाहते हैं कि छोटे बच्चे आदर करें मां-बाप का, तो आदर देना पड़ेगा। यह असंभव है कि मां-बाप अनादर दें और बच्चों से आदर पा लें, यह असंभव है। बच्चों को आदर देना जरूरी है और बहुत आदर देना जरूरी है। उगते हुए अंकुर हैं, उगता हुआ सूरज हैं। हम तो व्यर्थ हो गए, हम तो चुक गए। अभी उसमें जीवन का विकास होने को है। वह परमात्मा ने एक नये व्यक्तित्व को भेजा है, वह उभर रहा है। उसके प्रति बहुत सम्मान, बहुत आदर जरूरी है। आदरपूर्वक, प्रेमपूर्वक, खुद के व्यक्तित्व के परिवर्तन के द्वारा उस बच्चे के जीवन को भी परिवर्तित किया जा सकता है।

अंतर्मुखी बनाने के लिए पूछा है। अंतर्मुखी तभी कोई बन सकता है जब भीतर आनंद की ध्वनि गूंजने लगे। हमारा चित्त वहीं चला जाता है जहां आनंद होता है। अभी मैं यहां बोल रहा हूं। अगर कोई वहां एक वीणा बजाने लगे और गीत गाने लगे, तो फिर आपको अपने मन को वहां ले जाना थोड़े ही पड़ेगा, वह चला जाएगा। आप अचानक पाएंगे कि आपका मन मुझे नहीं सुन रहा है, वह वीणा सुनने लगा। मन तो वहां जाता है जहां सुख है, जहां संगीत है, जहां रस है।

बच्चे बहिर्मुखी इसलिए हो जाते हैं कि वे मां-बाप को देखते हैं दौड़ते हुए बाहर की तरफ। एक मां को वे देखते हैं बहुत अच्छे कपड़ों की तरफ दौड़ते हुए, देखते हैं गहनों की तरफ दौड़ते हुए, देखते हैं बड़े मकान की तरफ दौड़ते हुए, देखते हैं बाहर की तरफ दौड़ते हुए। उन बच्चों का भी जीवन बहिर्मुखी हो जाता है।

अगर वे देखें एक मां को आंख बंद किए हुए, और उसके चेहरे पर आनंद झरते हुए देखें, और वे देखें एक मां को प्रेम से भरे हुए, और वे देखें एक मां को छोटे मकान में भी प्रफुल्लित और आनंदित; और वे कभी-कभी देखें कि मां आंख बंद कर लेती है और किसी आनंद के लोक में चली जाती है। वे पूछेंगे कि यह क्या है? कहां चली जाती हो? वे अगर मां को ध्यान में और प्रार्थना में देखें, वे अगर किसी गहरी तल्लीनता में उसे डूबा हुआ देखें, वे अगर उसे बहुत गहरे प्रेम में देखें, तो वे जानना चाहेंगे कि कहां जाती हो? यह खुशी कहां से आती है? यह आंखों में शांति कहां से आती है? यह प्रफुल्लता चेहरे पर कहां से आती है? यह सौंदर्य, यह जीवन कहां से आ रहा है? 

वे पूछेंगे, वे जानना चाहेंगे। और वही जानना, वही पूछना, वही जिज्ञासा, फिर उन्हें मार्ग दिया जा सकता है।

तो पहली तो जरूरत है कि अंतर्मुखी होना खुद सीखें। अंतर्मुखी होने का अर्थ है: घड़ी दो घड़ी को चौबीस घंटे के जीवन में सब भांति चुप हो जाएं, मौन हो जाएं। भीतर से आनंद को उठने दें, भीतर से शांति को उठने दें। सब तरह से मौन और शांत होकर घड़ी दो घड़ी को बैठ जाएं।

जो मां-बाप चौबीस घंटे में घंटे दो घंटे को भी मौन होकर नहीं बैठते, उनके बच्चों के जीवन में मौन नहीं हो सकता। जो मां-बाप घंटे दो घंटे को घर में प्रार्थना में लीन नहीं हो जाते हैं, ध्यान में नहीं चले जाते हैं, उनके बच्चे कैसे अंतर्मुखी हो सकेंगे? 

बच्चे देखते हैं मां-बाप को कलह करते हुए, द्वंद्व करते हुए, संघर्ष करते हुए, लड़ते हुए, दुर्वचन बोलते हुए। बच्चे देखते हैं, मां-बाप के बीच कोई बहुत गहरा प्रेम का संबंध नहीं देखते, कोई शांति नहीं देखते, कोई आनंद नहीं देखते; उदासी, ऊब, घबड़ाहट, परेशानी देखते हैं। ठीक इसी तरह की जीवन की दिशा उनकी हो जाती है।

बच्चों को बदलना हो तो खुद को बदलना जरूरी है। अगर बच्चों से प्रेम हो तो खुद को बदल लेना एकदम जरूरी है। जब तक आपके कोई बच्चा नहीं था, तब तक आपकी कोई जिम्मेवारी नहीं थी। बच्चा होने के बाद एक अदभुत जिम्मेवारी आपके ऊपर आ गई। एक पूरा जीवन बनेगा या बिगड़ेगा। और वह आप पर निर्भर हो गया। अब आप जो भी करेंगी उसका परिणाम उस बच्चे पर होगा।

अगर वह बच्चा बिगड़ा, अगर वह गलत दिशाओं में गया, अगर दुख और पीड़ा में गया, तो उसका पाप किसके ऊपर होगा? बच्चे को पैदा करना आसान, लेकिन ठीक अर्थों में मां बनना बहुत कठिन है। बच्चे को पैदा करना तो बहुत आसान है। पशु-पक्षी भी करते हैं, मनुष्य भी करते हैं, भीड़ बढ़ती जाती है दुनिया में। लेकिन इस भीड़ से कोई हल नहीं है। मां होना बहुत कठिन है।

अगर दुनिया में कुछ स्त्रियां भी मां हो सकें तो सारी दुनिया दूसरी हो सकती है। मां होने का अर्थ है: इस बात का उत्तरदायित्व कि जिस जीवन को मैंने जन्म दिया है, अब उस जीवन को ऊंचे से ऊंचे स्तरों तक, परमात्मा तक पहुंचाने की दिशा पर ले जाना मेरा कर्तव्य है। और इस कर्तव्य की छाया में मुझे खुद को बदलना होगा। क्योंकि जो व्यक्ति भी दूसरे को बदलना चाहता हो उसे अपने को बदले बिना कोई रास्ता नहीं है।
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                समाप्‍त :::
            सौजन्‍य से – ओशो न्‍यूज लेटर


बच्चों को अंतर्मुखी कैसे बनाया जाए? 
गतांक से आगे::::
फ़्रायड एक बड़ा मनोवैज्ञानिक हुआ। अपनी पत्नी और अपने बच्चे के साथ एक दिन बगीचे में घूमने गया था। जब सांझ को वापस लौटने लगा, अंधेरा घिर गया, तो देखा दोनों ने कि बच्चा कहीं नदारद है। फ़्रायड की पत्नी घबड़ाई, उसने कहा कि बच्चा तो साथ नहीं है, कहां गया? बड़ा बगीचा था मीलों लंबा, अब रात को उसे कहां खोजेंगे? 

फ़्रायड ने क्या कहा? 

उसने कहा, तुमने उसे कहीं जाने को वर्जित तो नहीं किया था? कहीं जाने को मना तो नहीं किया था? 

उसकी स्त्री ने कहा, हां, मैंने मना किया था, फव्वारे पर मत जाना! 

तो उसने कहा, सबसे पहले फव्वारे पर चल कर देख लें। सौ में निन्यानबे मौके तो ये हैं कि वह वहीं मिल जाए, एक ही मौका है कि कहीं और हो। 

उसकी पत्नी चुप रही। जाकर देखा, वह फव्वारे पर पैर लटकाए हुए बैठा हुआ था। उसकी पत्नी ने पूछा कि यह आपने कैसे जाना?

उसने कहा, यह तो सीधा गणित है। मां-बाप जिन बातों की तरफ जाने से रोकते हैं, वे बातें आकर्षक हो जाती हैं। बच्चा उन बातों को जानने के लिए उत्सुकता से भर जाता है कि जाने। जिन बातों की तरफ मां-बाप ले जाना चाहते हैं, बच्चे की उत्सुकता समाप्त हो जाती है, उसका अहंकार जग जाता है, वह रुकावट डालता है, वह जाना नहीं चाहता। आप यह बात जान कर हैरान होंगी कि इस तथ्य ने आज तक मनुष्य के समाज को जितना नुकसान पहुंचाया है, किसी और ने नहीं। क्योंकि मां-बाप अच्छी बातों की तरफ ले जाना चाहते हैं, बच्चे का अहंकार अच्छी बातों के विरोध में हो जाता है। मां-बाप बुरी बातों से रोकते हैं, बच्चे की जिज्ञासा बुरी बातों की तरफ बढ़ जाती है। मां-बाप इस भांति अपने ही हाथों अपने बच्चों के शत्रु सिद्ध होते हैं।

इसलिए शायद कभी आपको यह खयाल न आया हो कि बहुत अच्छे घरों में बहुत अच्छे बच्चे पैदा नहीं होते। कभी नहीं होते। बहुत बड़े-बड़े लोगों के बच्चे तो बहुत निकम्मे साबित होते हैं। गांधी जैसे बड़े व्यक्ति का एक लड़का शराब पीया, मांस खाया, धर्म परिवर्तित किया। आश्चर्यजनक है! क्या हुआ यह? गांधी ने बहुत कोशिश की उसको अच्छा बनाने की, वह कोशिश दुश्मन बन गई।

तो एक बात तो यह समझ लें कि जिसको भी परिवर्तित करने का खयाल उठे, पहले तो स्वयं का जीवन उस दिशा में परिवर्तित हो जाना चाहिए। तो आपके जीवन की छाया, आपके जीवन का प्रभाव, बहुत अनजान रूप से बच्चे को प्रभावित करता है। आपकी बातें नहीं, आपके उपदेश नहीं। आपके जीवन की छाया बच्चे को परोक्ष रूप से प्रभावित करती है और उसके जीवन में परिवर्तन की बुनियाद बन जाती है।

और दूसरी बात, बच्चे को कभी भी दबाव डाल कर, आग्रह करके किसी अच्छी दिशा में ले जाने की कोशिश मत करना। वही बात अच्छी दिशा में जाने के लिए सबसे बड़ी दीवाल हो जाएगी। और हो भी सकता है, जब तक वह छोटा रहे, आपकी बात मान ले; क्योंकि कमजोर है और आप ताकतवर हैं, आप डरा सकते हैं, धमका सकते हैं, आप हिंसा कर सकते हैं उसके साथ। और यह मत सोचना कभी कि मां-बाप अपने बच्चों के साथ कैसे हिंसा करेंगे! मां-बाप ने इतनी हिंसा की है बच्चों के साथ जिसका कोई हिसाब नहीं है। दिखाई नहीं पड़ती। जब भी हम किसी को दबाते हैं तब हम हिंसा करते हैं। बच्चे के अहंकार को चोट लगती है। लेकिन वह कमजोर है, सहता है। आज नहीं कल जब वह बड़ा हो जाएगा और ताकत उसके हाथ में आएगी, तब तक आप बूढ़े हो जाएंगे, तब आप कमजोर हो जाएंगे, तब वह बदला लेगा। बूढ़े मां-बाप के साथ बच्चों का जो दुर्व्यवहार है उसका कारण मां-बाप ही हैं। बचपन में उन्होंने बच्चों के साथ जो किया है, बुढ़ापे में बच्चे उनके साथ करेंगे।
जारी-----
(सौजन्‍य से – ओशो न्‍यूज लेटर)