ज्ञान और शील

जीवन साधना में बीज क्या है और फल क्या है, यह जानना अत्यंत अनिवार्य है। प्रारंभ और परिणाम को पहचानना अनिवार्य है। कार्य और कारण को न जाने हुए जो चलता है, वह भूल करता है। केवल चलना ही पर्याप्त नहीं है। अकेले चलने से ही कोई नहीं पहुंचता है। दिशा और साधना-विधि का सम्यक होना जरूरी है।
साधना में केंद्रीय भी कुछ है, परिधिगत भी है। केंद्र पर प्रयास हो तो परिधि अपने से संभल जाती है। उसे पृथक संभालने का कारण नहीं है। वह केंद्र की ही अभिव्यक्ति है, वह फैल हुआ केंद्र है। इससे परिधि पर प्रयास व्यर्थ होते हैं। एक कहावत है- झाड़ी के आसपास पीटना! परिधि पर उलझना ऐसा ही है।
क्या है केंद्र, क्या है परिधि?
ज्ञान केंद्र है, शील परिधि है। ज्ञान प्रारंभ है, शील परिणाम है। ज्ञान बीज है, शील फल है। पर साधारणत: लोग का चलना विपरीत है। शील से चलकर वे ज्ञान पर पहुंचना चाहते हैं। शील को वे ज्ञान में परिणित करना चाहते हैं।
पर शील अज्ञान से पैदा नहीं किया जा सकता। शील पैदा ही नहीं किया जा सकता। पैदा किया हुआ शील, शील नहीं है। वह मिथ्या आवरण है, जिसके तले कुशील दब जाता है। चेष्टिंत शील वंचना है।
अंधेरे को दबाना-छिपाना नहीं है। उसे मिटाना है। कुशील पर शील के कागजी फूल नहीं चिपकाने हैं। उसे मिटाना है। जब वह नहीं है, तब जो आता है, वह शील है।
अज्ञान से जबरदस्ती लाया गया शील घातक है, क्योंकि उसमें जो नहीं है, वह ज्ञात होता है कि है। इस भांति जिसे लाना है, उसका आंख से ओझल हो जाना हो जाता है।
अज्ञान में सीधे शील लाने का कोई उपाय भी नहीं है, क्योंकि अज्ञान की अभिव्यक्ति ही कुशील है। कुशीलता अज्ञान ही है। बुद्ध ने कहा है, 'अण्णाणी किं काही?' जो अज्ञान में है, वह क्या कर सकता है?
शील नहीं, ज्ञान लाना है। ज्ञान ही शील बन जाता है।
ज्ञान सर्व को प्रकाशित करता है। उसके उदय से ही अज्ञान और मोह का नाश होता है। उससे ही राग और द्वेष का क्षय होता है। उससे ही मुक्ति दशा उपलब्ध होती है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)