मैं कौन हूं?


एक मंदिर में बोलने गया था। बोलने के बाद एक युवक ने कहा, 'क्या मैं एक प्रश्न पूछ सकता हूं? यह प्रश्न मैं बहुतों से पूछ चुका हूं; पर जो उत्तर मिले, उनसे तृप्ति नहीं होती है। समस्त दर्शन कहते हैं : अपने को जानों। मैं भी अपने को जानना चाहता हूं। यही मेरा प्रश्न है। 'मैं कौन हूं?,' इसका उत्तर चाहता हूं।'
मैंने कहा, 'अभी आपने प्रश्न पूछा ही नहीं है, तो उत्तर कैसे पाते? प्रश्न पूछना उतना आसान नहीं है।'
उस युवक ने एक क्षण हैरानी से मुझे देखा। प्रकट था कि मेरी बात का अर्थ उसे नहीं दिखा था। वह बोला, 'यह आप क्या कहते हैं? मैंने प्रश्न ही नहीं पूछा है।'
मैंने कहा, 'रात्रि आ जायें।' वह रात्रि में आया भी। सोचा होगा, मैं कोई उत्तर दूंगा। उत्तर मैंने दिया भी, पर जो उत्तर दिया वह उसने नहीं सोचा था।
वह आया। बैठते ही मैंने प्रकाश बुझा दिया। वह बोला, 'यह क्या कर रहे हैं? क्या उत्तर आप अंधेरे में देते हैं?'
मैंने कहा, 'उत्तर नहीं देता, केवल प्रश्न पूछना सिखाता हूं। आत्मिक जीवन और सत्य के संबंध में कोई उत्तर बाहर नहीं है। ज्ञान बाह्य तथ्य नहीं है। वह सूचना नहीं है, अत: उसे आप में डाला नहीं जा सकता है। जैसे कुएं से पानी निकालते हैं, ऐसे ही उसे भी भीतर से ही निकालना होता है। वह नित्य। उसकी सतत् उपस्थिति है, केवल घड़ा उस तक पहुंचाना है। इस प्रक्रिया में एक ही बात स्मरणीय है कि घड़ा खाली हो। घड़ा खाली हो, तो भरकर लौट आता है और प्राप्ति हो जाती है।'
अंधेरे में थोड़ा- सा समय चुपचाप सरका। वह बोला,'अब मैं क्या करूं?' मैंने कहा, 'घड़ा खाली कर लें, शांत हो जाएं और पूछें : 'मैं कौन हूं?' एक बार, दो बार, तीन बार पूछें। समग्र शक्ति से पूछें : 'मैं कौन हूं?'ं प्रश्न पूरे व्यक्तित्व में गूंज उठे और तब शांत हो जाएं और मौन, विचार शून्य प्रतीक्षा करें। प्रश्न और फिर खामोशी, शून्य प्रतीक्षा। यही विधि है।'
वह थोड़ी देर बाद बोला, 'लेकिन मैं चुप नहीं हो पा रहा हूं। प्रश्न तो पूछ लिया पर शून्य प्रतीक्षा असंभव है और अब मैं देख पा रहा हूं कि मैंने वस्तुत: आज तक प्रश्न पूछा ही नहीं था।'
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)