स्वयं को जानना ही प्रभु को पाना है

रात्रि में घूमने निकला था। गाँव का ऊबड़-खाबड़ रास्ता था। साथ एक साधु थे। उन्होंने बहुत यात्रा की थी। शायद ही कोई ऐसा तीर्थ था, जहाँ वे नहीं हो आये थे। प्रभु को पाने के वे मार्ग खोज रहे थे।
उस रात्रि उन्होंने मुझ से भी पूछा था, 'प्रभु को पाने का मार्ग क्या है?'
यह प्रश्न उन्होंने औरों से भी पूछा था। मार्ग भी धीरे-धीरे उन्हें बहुत ज्ञात हो गए थे। पर प्रभु से जो दूरी थी, वह उतनी ही बनी थी। ऐसा भी नहीं था कि उन मार्गो पर वे चले नहीं थे। यथाशक्ति प्रयास भी किया था। पर हाथ आया था, केवल चलना ही। पहुंचना नहीं हुआ था। पर अभी मार्ग से ऊबे नहीं थे और नये की तलाश जारी थी।
जो मैं स्वयं हूँ, उसे पाने का कोई मार्ग नहीं है। मार्ग 'पर' को और 'दूर' को पाने के लिए होते हैं। जो निकट है; निकट ही नहीं, जो मैं ही हूँ- वह मार्ग से नहीं मिलता है। मार्ग के योग्य वहाँ अंतराल ही नहीं है।
फिर पाना उसे होता है, जिसे खोया हो। प्रभु को क्या खोया जा सकता है?
जो खोया जा सके वह स्वरूप नहीं हो सकता है। वह केवल विस्मृत है।
इसलिए कहीं जाना नहीं है। केवल स्मरण करना है। कुछ करना नहीं केवल जानना है।
और जानना ही पहुंचना है। जानना है कि यह मैं कौन हूँ? ओर यह ज्ञान ही प्रभु की उपलब्धि है।
एक दिन जब सारे प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं और कोई भी मार्ग कहीं ले जाता प्रतीत नहीं होता है, तब दिखता है कि जो भी मैं कर सकता हूँ, वह सत्य तक नहीं ले जाएगा। कोई क्रिया 'मैं' के रहस्य को नहीं खोलेगी, क्योंकि क्रिया मात्र बाहर ले जाती है।
कोई क्रिया सत्ता तक नहीं ले लाती है। जहाँ क्रिया का अभाव है, वहाँ सत्ता प्रकट होती है।
कोई क्रिया उसे नहीं देगी, क्योंकि वह क्रियाओं के भी पूर्व है।
कोई मार्ग 'वहां' के लिए नहीं है, क्योंकि वह तो 'यहां' है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)