संन्यास लाया नहीं, पाया जाता है

कल रात्रि पानी पड़ा है। मौसम गीला है और अभी-अभी फिर धीमी फुहार आनी शुरू हुई है। हवाएं नम हो गयी हैं और वृक्षों से गिरते पत्तों को द्वार तक ला रही हैं। लगता है, पतझड़ हो रही है और वसंत के आगमन की तैयारी है। रास्ते पत्तों से ढक रहे हैं और उन पर चलने में सूखे पत्ते मधुर आवाज करते हैं।मैं उन पत्तों को देर तक देखता रहा हूं, जो पक जाता है, वह गिर जाता है। पत्तों पर पत्ते सुबह से शाम तक गिर रहे हैं। पर उनके गिरने से वृक्षों को कोई पीड़ा नहीं हो रही है। इससे जीवन का एक अद्भुत नियम समझ में आता है। कुछ भी कच्चा तोड़ने में कष्ट है। पकने पर टूटना अपने से हो जाता है।एक संन्यासी आये हैं। त्याग उन्हें आनंद नहीं बन पाया है। वह कष्ट है और कठिनाई है। संन्यास अपने से नहीं आया, लाया गया है। मोह के, अज्ञान के, परिग्रह के अहंकार के पत्ते अभी कच्चे थे। जबरदस्ती की है- पत्ते तो टूट गये, पर पीड़ा पीछे छोड़ गये हैं। वह पीड़ा शांति नहीं आने देती है। सोचता हूं कि आज शाम जाकर पके पत्तों के टूटने का रहस्य उन्हें बताऊं। संन्यास पहले नहीं है। ज्ञान है, प्रथम। उसकी आंख में संसार पके पत्तों की भांति गिर जाता है। संन्यास लाया नहीं जाता है, पाया जाता है।ज्ञान की भांति क्रांति के बाद त्याग कष्ट नहीं, आनंद हो जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)