प्रत्येक मुक्त है


एक प्रबोध कथा है।
एक युवक ने किसी साधु से पूछा था, 'मोक्ष की विधि क्या है?' उस साधु ने कहा, 'तुम्हें बांधा किसने है?' वह युवक एक क्षण रुका, फिर बोला, 'बांधा किसी ने भी नहीं है।'
तब उस साधु ने पूछा, 'फिर मुक्ति क्यों खोजते हो?'
'मुक्ति क्यों खोजते हो?' यही कल मैंने भी एक व्यक्ति से पूछा है। यही प्रत्येक को अपने से पूछना है। बंधन है कहां? जो है, उसके प्रति जागो। जो है, उसको बदलने की फिक्र छोड़ो। आदर्श कि पीछे मत दौड़ो। जो भविष्य में है, वह नहीं, जो वर्तमान है, वही तुम हो। और वर्तमान में कोई बंधन नहीं है। वर्तमान के प्रति जागते ही बंधन नहीं पाये जाते हैं।
आकांक्षा- कुछ होने और कुछ पाने की आकांक्षा ही बंधन है, वही तनाव है, वही दौड़ है, वही संसार है। यही आकांक्षा मोक्ष का निर्माण करती है। मोक्ष पाने के मूल में वही है। और बंधन मूल में हो, तो परिणाम में मोक्ष कैसे हो सकता है?
मोक्ष की शुरुआत मुक्त होने से करनी होती है। वह अंत नहीं, वही प्रारंभ है।
मोक्ष पाना नहीं है, वरन् दर्शन करना है कि मैं मोक्ष में ही खड़ा हूं। मैं मुक्त हूं, यह बोध शांत जाग्रत चेतना में सहज ही उपलब्ध हो जाता है। प्रत्येक मुक्त है- केवल इस सत्य के प्रति जागना मात्र है।
मैं जैसे ही दौड़ छोड़ता हूं- कुछ होने की दौड़ जैसे ही जाती है कि मैं हो आता हूं और 'हो आना' - पूरे अर्थो में हो आना ही मुक्ति है।
तथाकथित धार्मिक इस 'हो आने' को नहीं पाता है, क्योंकि वह दौड़ में है- मोक्ष पाने की, आत्मा को पाने की, ईश्वर को पाने की। और जो दौड़ में है, चाहे उस दौड़ का रूप कुछ भी क्यों न हो, वह अपने में नहीं है। धार्मिक होना आस्था की बात नहीं, किसी प्रयास की बात नहीं, किसी क्रिया की बात नहीं। धार्मिक होना तो अपने में होने की बात है। और यह मुक्ति एक क्षणमात्र में आ सकती है। यह सत्य के प्रति सजग होते ही, जागते ही कि बंधन दौड़ में है, आकांक्षा में है, आदर्श में है, अंधेरा गिर जाता है। और जो दिखता है, उसमें बंधन पाये ही नहीं जाते हैं।
सत्य एक क्षण में क्रांति कर देता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)