'है' को हो जाने देना मोक्ष है


एक स्वप्न से जागा हूं। जागते ही एक सत्य दिखा है। स्वप्न में मैं भागीदार भी था और द्रष्टा भी । स्वप्न में जब तक था, द्रष्टा भूल गया था, भागीदार ही रह गया था। अब जागकर देखता हूं कि द्रष्टा ही था, भागीदार प्रक्षेप था।
स्वप्न जैसा है, संसार भी वैसा ही है। द्रष्टा, चैतन्य ही सत्य है, शेष सब कल्पित है। जिसे हमने 'मैं' जाना है, वह वास्तविक नहीं है। उसे भी जो जान रहा है, वास्तविक वही है।
यह सबका द्रष्टा तत्व सबसे मुक्त और सबसे अतीत है। उसने कभी कुछ किया है, न कभी कुछ हुआ है। वह बस 'है'।
असत्य 'मैं', स्वप्न 'मैं' शांत हो जाये, तो 'जो है', वह प्रकट हो जाता है। इस 'है' को हो जाने देना मोक्ष है, कैवल्य है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)