प्रीति रूपांतरकारी रसायन


एक तत्व हमारे भीतर है, जिसको प्रीति कहें। यह जो तत्व हमारे भीतर है-प्रीति, इसी के आधार पर हम जीते हैं। चाहे हम गलत ही जीएं, तो भी हमारा आधार प्रीति ही होता है।
कोई आदमी धन कमाने में लगा है; धन तो ऊपर की बात है, भीतर तो प्रीति से ही जी रहा है--धन से उसकी प्रीति है। कोई आदमी पद के पीछे पागल है; पद तो गौण है, प्रतिष्ठा की प्रीति है। जहां भी खोजोगे, तो तुम प्रीति को ही पाओगे। कोई वेश्यालय चला गया है, और किसी ने किसी की हत्या कर दी है--पापी में और पुण्यात्मा में, तुम एक ही तत्व को एक साथ पाओगे, वह तत्व प्रीति है। फिर प्रीति किससे लग गई, उससे भेद पड़ता है। धन से लग गई तो तुम धन ही होकर रह जाते हो। ठीकरे हो जाते हो। कागज के सड़े-गले नोट होकर मरते हो।
जिससे प्रीति लगी, वही हो जाओगे।
यह बड़ा बुनियादी सत्य है; इसे हृदय में सम्हाल कर रखना। प्रीति महंगा सौदा है, हर किसी से मत लगा लेना। जिससे लगाई वैसे ही हो जाओगे। वैसा होना हो तो ही लगाना। प्रीति का अर्थ ही यही होता है कि मैं यह होना चाहता हूं। राजनेता गांव में आया और तुम भीड़ करके पहुंच गए, फूलमालाएं सजा कर-किस बात की खबर है? तुम गहरे में चाहते हो कि मेरे पास भी पद हो, प्रतिष्ठा हो; इसलिए पद और प्रतिष्ठा की पूजा है। कोई फकीर गांव में आया और तुम पहुंच गए; उससे भी तुम्हारी प्रीति की खबर मिलती है कि तड़फ रहे हो फकीर होने को-कि कब होगा वह मुक्ति का क्षण, जब सब छोड़-छाड़...जब किसी चीज पर मेरी कोई पकड़ न रह जाएगी। कोई संगीत सुनता है तो धीरे-धीरे उसकी चेतना में संगीत की छाया पड़ने लगती है। तुम जिससे प्रीति करोगे वैसे हो जाओगे; जिनसे प्रीति करोगे वैसे हो जाओगे। तो प्रीति का तत्व रूपांतरकारी है। प्रीति का तत्व भीतरी रसायन है। और बिना प्रीति के कोई भी नहीं रह सकता। प्रीति ऐसी अनिवार्य है जैसे श्वास। जैसे शरीर श्वास से जीता, आत्मा प्रीति से जीती। इसलिए अगर तुम्हारे जीवन में कोई प्रीति न हो, तो तुम आत्महत्या करने को उतारू हो जाओगे। या कभी तुम्हारी प्रीति का सेतु टूट जाए, तो आत्महत्या करने को उतारू हो जाओगे। घर में आग लग गई और सारा धन जल गया, और तुमने आत्महत्या कर ली; क्या तुम कह रहे हो? तुम यह कहते हो: यह घर ही मैं था, यह मेरी प्रीति थी। अब यही न रहा तो मेरे रहने का क्या अर्थ! तुम्हारी पत्नी मर गई और तुमने आत्महत्या कर ली; तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो: यह मेरी प्रीति का आधार था। जब मेरी प्रीति उजड़ गई, मेरा संसार उजड़ गया। अब मेरे रहने में कोई सार नहीं।
हम प्रीति के साथ अपना तादात्म्य कर लेते हैं। बिना प्रीति के कोई भी नहीं जी सकता। जैसे बिना श्वास लिए शरीर नहीं रहेगा, वैसे ही बिना प्रीति के आत्मा नहीं टिकेगी। प्रीति है तो आत्मा टिकी रहती है। फिर प्रीति गलत से भी हो तो भी आत्मा टिकी रहती है। मगर चाहिए, प्रीति तो चाहिए-गलत हो कि सही।
फिर प्रीति के बहुत ढंग हैं, वे समझ लेने चाहिए। एक प्रीति है जो तुम्हारी पत्नी में होती है, मित्रों में होती है, पति में होती है, भाई-बहन में होती है। उस प्रीति को हम प्रेम कहते हैं। प्रेम का अर्थ होता है: उसके साथ जो समतल है। तुमसे ऊपर भी नहीं, तुमसे नीचे भी नहीं; तुम्हारे जैसा है; जिससे आलिंगन हो सकता है; उसको प्रेम कहते हैं। समतुल व्यक्तियों में प्रीति होती है तो प्रेम कहते हैं।
फिर एक प्रीति होती है माता, पिता या गुरु में; उसे श्रद्धा कहते हैं। कोई तुमसे ऊपर है; प्रीति को पहाड़ चढ़ना पड़ता है। इसलिए श्रद्धा कठिन होती है। श्रद्धा में दांव लगाना पड़ता है। श्रद्धा में चढ़ाई है। इसलिए बहुत कम लोगों में वैसी प्रीति मिलेगी जिसको श्रद्धा कहें। माता-पिता से कौन प्रीति करता है! कर्तव्य निभाते हैं लोग। दिखाते हैं। उपचार। दिखाना पड़ता है। प्रीति कहां! अपने से ऊपर प्रीति करने में पहाड़ चढ़ने की हिम्मत होनी चाहिए। और ध्यान रखना, तुम अपने से ऊपर, जितने ऊपर प्रीति करोगे, उतने ही तुम ऊपर जाने लगोगे, तुम्हारी चेतना ऊर्ध्वगामी होगी। इसलिए तो हमने श्रद्धा को बड़ा मूल्य दिया है सदियों से, क्योंकि श्रद्धा आदमी को बदलती है, अपने से पार ले जाती है। तुम्हारे हाथ तुमसे ऊपर की तरफ उठने लगते हैं और तुम्हारे पैर किसी ऊर्ध्वगमन पर गतिमान होते हैं। तुम्हारी आंखें ऊंचे शिखरों से टकराती और चुनौती लेती हैं।


जिसके जीवन में श्रद्धा नहीं है, उसके जीवन में विकास नहीं है। विकास हो ही नहीं सकता। अपने से छोटे के प्रति जो प्रीति होती है उसका नाम स्नेह है। मेरे देखे, अपने से छोटे के प्रति सच्ची प्रीति और ठीक प्रीति तभी होती है जब अपने से बड़े के प्रति श्रद्धा हो; अन्यथा नहीं होती; अन्यथा झूठी होती है। जिस व्यक्ति के जीवन में अपने से बड़े के प्रति श्रद्धा है, सम्यक श्रद्धा है, उस व्यक्ति के जीवन में अपने से छोटे के प्रति सम्यक स्नेह होता है। और उस व्यक्ति के जीवन में एक और क्रांति घटती है-अपने से सम के प्रति सम्यक प्रेम होता है। उसके जीवन में प्रेम का छंद बंध जाता है। छोटे के प्रति सम्यक स्नेह होता है, धारा की तरह बहता है उसका प्रेम। बेशर्त। वह कोई शर्तबंदी नहीं करता कि तुम ऐसा करोगे तो मैं तुम्हें प्रेम करूंगा, कि तुम ऐसे होओगे तो मैं तुम्हें प्रेम करूंगा।


(सौजन्य से : ओशो  न्यूंज लेटर)