दर्पण नहीं, स्वयं को बदलो


सुबह हो गयी है। सूरज बदलियों में है और फुहार पड़ रही है। वर्षा ने सब गीला-गीला कर दिया है।
एक साधु पानी में भीगते मिलने आये हैं। कोई पंद्रह-बीस वर्ष हुए, तब उन्होंने आत्म-उपलब्धि के लिए गृह-त्याग किया था। त्याग तो हुआ, पर उपलब्धि नहीं हुई। इससे दुखी हैं। समाज और संबंध आत्म-लाभ में बाधा समझे जाते हैं। ऐसी मान्यता ने व्यर्थ में अनेकों को जीवन से तोड़ दिया है।
एक कहानी उनसे मैंने कही। एक पागल स्त्री थी। उसे पूर्ण विश्वास था कि उसका शरीर स्थूल, भौतिक नहीं है। वह अपने शरीर को दिव्य-काया मानती थी। कहती थी कि उसकी काया से और सुंदर काया पृथ्वी पर दूसरी नहीं है। एक दिन उस स्त्री को बड़े आदमकद आईने के सामने लाया गया। उसने अपने शरीर को उस दर्पण में देखा और देखते ही उसके क्रोध की सीमा न रही। उसने पास रखी कुर्सी उठाकर दर्पण पर फेंकी। दर्पण टुकड़े-टुकड़े हो गया, तो उसने सुख की सांस ली। दर्पण फोड़ने का कारण पूछा तो बोली थी कि वह मेरे शरीर को भौतिक किये दे रहा है। मेरे सौंदर्य को वह विकृत कर रहा था।
समाज और संबंध दर्पण से ज्यादा नहीं हैं। जो हममें होता है, वे केवल उसे ही प्रतिबिंबित कर देते हैं। दर्पण तोड़ना जैसे व्यर्थ है, संबंध छोड़ना भी वैसे ही व्यर्थ है। दर्पण को नहीं अपने को बदलना है। जो जहां है, वहीं यह बदलाहट हो सकती है। यह क्रांति केंद्र से शुरू होती है। परिधि पर काम करना व्यर्थ ही समय खोना है।
स्व पर सीधे ही काम शुरू कर देना है। समाज और संबंध कहीं भी बाधा नहीं हैं। बाधाएं कोई हैं, तो स्वयं में है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)