आत्मज्ञान ही मोक्ष है

मैं तुम्हें देखता हूं : तुम्हारे पार जो है, उसे भी देखता हूं।
शरीर पर जो रुक जाएं वे आंखें देखती ही नहीं हैं। शरीर कितना पारदर्शी है! सच ही, देह कितनी ही ठोस क्यों न हो, उसे तो नहीं ही छिपा पाती है, जो कि पीछे है।
पर, आंखें ही न हों, तो दूसरी बात है। फिर तो सूरज भी नहीं है। सब खेल आंखों का है। विचार और तर्क से कोई प्रकाश को नहीं जानता है।
वास्तविक आंख की पूर्ति किसी अन्य साधन से नहीं हो सकती है। आंख चाहिए। आत्मिक को देखने के लिए भी आंख चाहिए, एक अंतर्दृष्टि चाहिए। वह है, तो सब है। अन्यथा, न प्रकाश है, न प्रभु है।
जो दूसरे की देह के पार की सत्ता को देखना चाहे, उसे पहले अपनी पार्थिव सत्ता के अतीत झांकना होता है।
जहां तक मैं अपने गहरे में देखता हूं, वहीं तक अन्य देहें भी पारदर्शी हो जाती हैं।
जितनी दूर तक मैं अपनी जड़ता में चैतन्य का आविष्कार कर लेता हूं, उतनी ही दूर तक समस्त जड़ जगत मेरे लिए चैतन्य से भर जाता है। जो मैं हूं, जगत भी वही है। जिस दिन मैं समग्रता में अपने चैतन्य को जान लूं, उसी दिन जगत नहीं रह जाता है।
स्व-अज्ञान संसार है; आत्मज्ञान मोक्ष है।
यही रोज कह रहा हूं, यही प्रत्येक से कह रहा हूं : एक बार देखो कि कौन तुम्हारे भीतर बैठा हुआ है? इस हड्डी-मांस की देह में कौन आच्छादित है? कौन है, आबद्ध तुम्हारे इस बाह्य रूप में?
इस क्षुद्र में कौन विराट विराजमान है?
कौन है, यह चैतन्य? क्या है, यह चैतन्य?
यह पूछे बिना, यह जाने बिना जीवन सार्थक नहीं है। मैं सब कुछ जान लूं, स्वयं को छोड़कर, तो उस ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है।
जिस शक्ति से 'पर' जाना जाता है, वह शक्ति स्वयं को भी जानने में समर्थ है। जो अन्य को जान सकती है, वह 'स्वयं' को कैसे नहीं जानेगी!
केवल दिशा-परिवर्तन की बात है।
जो दिख रहा है, उससे उस पर चलना है, जो कि देख रहा है। दृश्य से दृष्टा पर ध्यान परिवर्तन आत्म-ज्ञान की कुंजी है।
विचार प्रवाह में से उस पर जागो, जो उनका भी साक्षी है।
तब एक क्रांति घटित हो जाती है। कोई अवरुद्ध झरना जैसे फूट पड़ा हो, ऐसे ही चैतन्य की धारा जीवन से समस्त जड़ता को बहा ले जाती है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

'मैं' अपरिवर्तनीय है!

सुबह थी, फिर दोपहर आयी, अब सूरज डूबने को है। एक सुंदर सूर्यास्त पश्चिम पर फैल रहा है।
मैं रोज दिन को उगते देखता हूं, दिन को छाते देखता हूं, दिन को डूबते देखता हूं और फिर यह देखता हूं कि न तो मैं उगा, न मैंने दोपहर पायी और न ही मैं अस्त पाता हूं।
कल यात्रा से लौटा तो देख रहा था। सब यात्राओं में ऐसा ही अनुभव होता है। राह बदलती है, पर राही नहीं बदलता है।। यात्रा तो परिवर्तन है, पर यात्री अपरिवर्तित मालूम होता है।
कल कहां था, आज कहां हूं, कभी क्या था, अब क्या है- पर जो मैं कल था, वही आज भी हूं, जो मैं कभी था, वही अब भी हूं।
शरीर वही नहीं है, मन वही नहीं है, पर मैं वही हूं।
दिक् और काल में परिवर्तन है, पर 'मैं' में परिवर्तन नहीं है। सब प्रवाह है, पर 'मैं' प्रवाह का अंग नहीं है। यह उनमें होकर भी उनसे बाहर और उनके अतीत है।
यह नित्य-यात्री, यह चिर नूतन, चिर-परिचित यात्री ही आत्मा है। परिवर्तन के जगत में इस अपरिवर्तित के प्रति जाग जाना ही मुक्ति है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

साधना का साध्य

मैं साधकों को देखता हूं, तो पाता हूं कि वे सब मन को साधने में लगे हैं। मन को साधने से सत्य नहीं मिलता है; विपरीत, वही तो सत्य के अनुभव में अवरोध है। मन को साधना नहीं विसर्जित करना है। मन को छोड़ो तब द्वार मिलता है। धर्म मन में या मन से उपलब्ध नहीं होता है। वह अ-मन की स्थिति में उपलब्ध होता है।
मात्सु साधना में था। वह अपने गुरु-आश्रम के एक एकांत झोपड़े में रहता और अहर्निश मन को साधने का अभ्यास करता। जो उससे मिलने भी जाते, उनकी ओर भी वह कभी कोई ध्यान नहीं देता था।
उसका गुरु एक दिन उसके झोपड़े पर गया। मात्सु ने उसकी ओर भी कोई ध्यान नहीं दिया। पर उसका गुरु दिन भर वहीं बैठा रहा और एक ईट पत्थर पर घिसता रहा। मात्सु से अंतत: नहीं रहा गया और उसने पूछा, आप क्या कर रहे हैं? गुरु ने कहा, 'इस ईट का दर्पण बनाना है।' मात्सु ने कहा- ईट का दर्पण! पागल हुए हैं- जीवन भर घिसने पर भी नहीं बनेगी। यह सुन गुरु हंसने लगा और उसने मात्सु से पूछा, 'तब तुम क्या कर रहे हो? ईट दर्पण नहीं बनेगी, तो क्या मन दर्पण बन सकता है? ईट भी दर्पण नहीं बनेगी, मन भी दर्पण नहीं बनेगा। मन ही तो धूल है, जिसने दर्पण को ढंका है। उसे छोड़ो और अलग करो, तब सत्य उपलब्ध होता है।'
विचार संग्रह मन है और विचार बाहर से आये धूलिकण हैं। उन्हें अलग करना है। उनके हटने पर जो शेष रह जाता है, वह निर्दोष चैतन्य सदा से ही निर्दोष है। निर्विचार में, इस अ-मन की स्थिति में, उस सनातन सत्य के दर्शन होते हैं, जो कि विचारों के धुएं में छिप गया होता है।
विचारों का धुआं न हो तो फिर चेतना की निर्धूम ज्योति-शिखा ही शेष रह जाती है। वही पाना है, वही होना है। साधना का साध्य वही है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

शून्यता में ही सागर उतर कर पूर्ण करता है!

मैं मनुष्य को इतना भरा हुआ देखता हूं कि उन पर मुझे बहुत दया आती है। उनमें किंचित भी अवकाश नहीं है, थोड़ा सा भी आकाश नहीं है। जिसमें आकाश नहीं है, वह मुक्त कैसे हो सकता है? मुक्ति के लिए बाहर नहीं, भीतर आकाश चाहिए। जिसमें भीतर आकाश होता है, वह बाहर के आकाश से एक हो जाता है और अंतस आकाश जब विश्व के आकाश से एक होता है- वह सम्मिलन, वह संगम, वह संपरिवर्तन ही मुक्ति है। वही ईश्वरानुभव है।
इसलिए मैं ईश्वर से किसी को भरने को नहीं कहता हूं- वरन सबसे कहता हूं कि अपने को खाली कर लो और तुम पाओगे कि ईश्वर ने तुम्हें भर दिया है।
वर्षा में जब बदलियां पानी गिराती हैं, तो टीले जल से वंचित ही रह जाते हैं और गड्ढे परिपूरित हो जाते हैं। गड्ढों की तरह बनो, टीलों की तरह नहीं। अपने के भरो मत, खाली करो ओर प्रभु की वर्षा तो प्रतिक्षण हो रही है- जो उस जल को अपने में लेने को खाली है, वह भर दिया जाता है।
गागर का मूल्य यही है कि वह खाली है; वह जितनी खाली होती है, सागर उसे उतना ही भर देता है।
मनुष्य का मूल्य भी उतना ही है, जितना कि वह शून्य है, उस शून्यता में ही सागर उतरता है और उसे पूर्ण करता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

द्वंद्व में नहीं, द्वंद्व को देखने वाले 'ज्ञान' में स्थिर हों!

एक यात्रा से लौटा हूं। जहां गया था, वहां बहुत से साधु-साध्वियों से मिलना हुआ। साधना तो बिलकुल नहीं है और साधु बहुत हैं। सब तरफ कागज ही कागज के फूल दिखाई देते हैं।
साधना के अभाव में धर्म असंभव है। फिर, धर्म के नाम से जो चलता है, उससे अधर्म का ही पोषण होते है। धर्म ऊपर और अधर्म भीतर होता है। यह स्वाभाविक ही है। जिन पौधों में जड़े नहीं हैं, वे ऊपर से खोंसे हुए ही होंगे। किसी उत्सव में उनसे शोभा बन सकती है, पर उन पौधों में फूल और फल तो नहीं लग सकते हैं।
धर्म की जड़े साधना में हैं, योग में हैं। योग के अभाव में साधु का जीवन या तो मात्र अभिनय हो सकता है या फिर दमन हो सकता है। दोनो ही बातें शुभ नहीं हैं। सदाचरण का मिथ्या अभिनय पाखण्ड है और दमन भी घातक है। उसमें संघर्ष तो है, पर उपलब्धि कोई नहीं। जिसे दबाया है, वह मरता नहीं, वरन और गहरी परतों पर सरक जाता है।
एक और वासना की पीड़ाएं हैं, उनकी ज्वालाओं में उत्तप्त और ज्वरग्रस्त जीवन है, तृष्णा की दुष्पूर दौड़ दुख है। दूसरी ओर दमन और आत्म-उत्पीड़न की अग्निशिखाएं हैं। एक ओर कुएं से जो बचता है, वह दूसरी ओर की खाई में गिर जाता है।
योग न भोग है, न दमन है। वह तो दोनों से जागरण है। अतियों के द्वंद्व में से किसी को भी नहीं पकड़ना है। द्वंद्व का कोई भी पक्ष द्वंद्व से बाहर नहीं ले जा सकता है। उनके बाहर जाना, उनमें से किसी को भी चुनकर नही हो सकता है। जो उनमें से किसी को भी चुनता और पकड़ता है, वह उनके द्वारा ही चुना और पकड़ लिया जाता है।
योग किसी को पकड़ना नहीं है, वरन समस्त पकड़ को छोड़ना है। किसी के पक्ष में किसी को नहीं छोड़ना है। बस बिना किसी पक्ष के, निष्पक्ष ही सब पकड़ छोड़ देनी है। पकड़ ही भूल है। वही कुएं में या खाई में गिरा देती है। वही अतियों में और द्वंद्वों में और संघर्षो में ले जाती है। जबकि मार्ग वहां है, जहां कोई अति नहीं है, जहां कोई दुई नहीं है, जहां कोई संघर्ष नहीं है। चुनाव न करें, वरन चुनाव करने वाली चेतना में प्रतिष्ठित हों। द्वंद्व में न पड़ें, वरन द्वंद्व को देखने वाले 'ज्ञान' में स्थिर हों। उसमें प्रतिष्ठा ही प्रज्ञा है और वह प्रज्ञा ही प्रकाश में जाने का द्वार है। वह द्वार निकट है।
जो अपनी चेतना की लौ को द्वंद्वों की आंधियों से मुक्त कर लेता हैं, वे उस कुंजी को पा लेते हैं, जिससे सत्य का वह द्वार खुलता है।
( सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जीवन की मृत्यु नहीं और मृत का जीवन नहीं

एक बार ऐसा हुआ कि किसी साधु का शिष्य मर गया था। वह साधु उस शिष्य के घर गया। उसके शिष्य की लाश रखी थी और लोग रोते थे। उस साधु ने जाकर जोर से पूछा, 'यह मनुष्य मृत है या जीवित?' इस प्रश्न से लोग बहुत चौंके और हैरान हुए। यह कैसा प्रश्न था! लाश सामने थी और इसमें पूछने की बात ही क्या थी?थोड़ी देर सन्नाटा रहा और फिर किसी ने साधु से प्रश्न किया, 'आप ही बतावें?' जानते हैं कि साधु ने क्या कहा? साधु ने कहा, 'जो मृत था, वह मृत है; जो जीवित था, वह अभी भी जीवित है। केवल दोनों का संबंध टूटा है।'जीवन की कोई मृत्यु नहीं होती है और मृत का कोई जीवन नहीं होता है।जीवन को जो नहीं जानते हैं, वे मृत्यु को जीवन का अंत कहते हैं। जन्म जीवन का प्रारंभ नहीं है और मृत्यु उसका अंत नहीं है। जीवन, जन्म और मृत्यु के भीतर भी है और बाहर भी है। वह जन्म के पूर्व भी है और मृत्यु के पश्चात भी है। उसमें ही जन्म है, उसमें ही मृत्यु है; पर न उसका कोई जन्म है, न उसकी कोई मृत्यु है।एक शवयात्रा से लौटा हूं। वहां चिता से लपटें उठीं, तो लोग बोले, 'सब समाप्त हो गया।' मैंने कहा, 'आंखें नहीं हैं, ऐसा इसलिए लगता है।'
( सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

प्रेम-मृत्यु ही जीवन है!


सुबह घूमकर लौटा था। नदी तट पर एक छोटे से झरने से मिलना हुआ। राह के सूखे पत्तों को हटाकर वह झरना नदी की ओर भाग रहा था। उसकी दौड़ देखी और फिर नदी में उसका आनंदपूर्ण मिलन भी देखा। फिर देखा कि नदी भी भाग रही है।
और फिर देखा कि सब कुछ भाग रहा है। सागर से मिलने के लिए, असीम में खोने के लिए। पूर्ण को पाने के लिए समस्त जीवन ही- राह के सूखे-मृत पत्तों को हटाता हुआ-भागा जा रहा है।
बूंद सागर होना चाहती है। यही सूत्र समस्त जीवन का ध्येय-सूत्र है। उसके आधार पर ही सारी गति है और उसकी पूर्णता में ही आनंद है। सीमा दुख है, अपूर्णता दुख है। जीवन सीमा के, अपूर्णता के समस्त अवरोधों के पार उठना चाहता है। उनके कारण उसे मृत्यु झेलनी पड़ती है। उसके अभाव में वह अमृत है। उनके कारण वह खण्ड है, उनके अभाव में वह अखण्ड हो जाता है।
पर मनुष्य अहं की बूंद पर रुक जाता है और वहीं वह जीवन के अनंत प्रवाह में खण्डित हो जाता है। इस भांति वह अपने ही हाथों सूरज को खोकर एक क्षीणकाय दीये की लौ में तृप्ति को खोजने का निरर्थक प्रयास करता है। उसे तृप्ति नहीं मिल सकती है, क्योंकि बूंद, बूंद बनी रहकर कैसे तृप्त हो सकती है? सागर हुए बिना कोई राह नहीं है। सागर ही गंतव्य है। सागर होना ही होगा। बूंद को खोना जरूरी है। अहं को मिटाना जरूरी है। अहं ब्रह्मं बने, तभी संतृप्ति संभव है।
सागर होने की संतृप्ति ही सत्य में प्रतिष्ठित करती है और वह संतृप्ति ही मुक्त करती है। क्योंकि जो संतृप्त नहीं है, वह मुक्त कैसे हो सकती है!
जीसस क्राइस्ट ने कहा है, 'जो जीवन को बचाता है, वह उसे खो देता है और जो उसे खो देता है, वह उसे पा जाता है।'
यही मुझे भी कहने दें। यही प्रेम है। अपने को खो देना ही प्रेम है। प्रेम का मृत्यु को अंगीकार करना ही, प्रभु के जीवन को पाने का उपाय है।
तभी तो मैं कहता हूं, 'बूंदो! सागर की ओर चलो। सागर ही गंतव्य है। प्रेम की मृत्यु को वरण करो, क्योंकि वही जीवन है। जो सागर के पहले ठहर जाता है, वह मर जाता है और जो सागर में पहुंच जाता है, वह मृत्यु के पार पहुंच जाता है।'
( सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

शून्य होना ही एकमात्र पुरुषार्थ है!

संध्या बीती है, कुछ लोग आये हैं। वे कहते हैं,'आप शून्य सिखाते हैं। पर शून्य के तो विचार से ही भय लगता है। क्या कोई और सहारा व आधार नहीं हो सकता है?'
मैं उनसे कहता हूं कि शून्य में कूदने में अवश्य साहस की जरूरत है। पर जो कूद जाते हैं, वे शून्य को नहीं, पूर्ण को पाते हैं और जो कोई कल्पित सहारा और आधार पकड़ते रहते हैं, वे शून्य में ही अटके रहते हैं। कल्पनाओं के सहारे और आधार भी क्या कोई सहारे और आधार होते हैं!
सत्य का सहारा और आधार केवल शून्य से ही मिलता है। शून्य होने का अर्थ- कल्पनाओं के सहारों और आधारों से ही शून्य होना है।
एक कहानी उनसे कहता हूं - एक अमावस की अंधेरी रात्रि में, पर्वतीय निर्जन से गुजरते अजनबी यात्री ने पाया कि वह किसी खड्ड में गिर गया है। उसके पैर चट्टान से फिसल गये हैं और एक झाड़ी को पकड़ कर लटक गया है। चारों और अंधकार है। नीचे भी भयंकर अंधकार और खड्ड है। घंटों वह उस झाड़ी को पकड़ लटका रहा और इस समय में संभाव्य मृत्यु की बहुत पीड़ा सही। सर्दी की रात्रि थी। फिर क्रमश: उसके हाथ ठंडे और जड़ हो गये। अंतत: उसके हाथों ने जवाब दे दिया। उसे उस भयंकर खड्ड में गिरना ही पड़ा। उसकी कोई चेष्टा सफल नहीं हो सकी और अपनी आंखों से स्वयं को मृत्यु के मुंह में जाते देखा। वह गिरा, पर गिरा नहीं। वहां खड्ड था ही नहीं। गिरते ही उसने पाया कि वह जमीन पर खड़ा है।
ऐसे ही मैंने भी पाया है। शून्य में गिरकर पाया कि शून्य ही भूमि है। चित्त के सब आधार जो छोड़ देता है, वह प्रभु का आधार पा जाता है। शून्य होने का पुरुषार्थ ही एकमात्र पुरुषार्थ है और जो शून्य होने की शक्ति नहीं जुटा पाता है, वे 'शून्य' ही बने रह जाते हैं।
( सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

प्रार्थना

प्रार्थना क्या है? आत्म-विस्मरण! नहीं, प्रार्थना आत्म-विस्मरण नहीं है। वह जिसमें भूलना, डूबना और खोना है- मादकता का ही एक रूप है। वह प्रार्थना नहीं, पलायन है। शब्द में, संगीत में खोया जा सकता है। ध्वनि सम्मोहन में, नृत्य में 'जो है' उसका विस्मरण हो सकता है। यह विस्मरण और बेहोशी सुखद भी मालूम हो सकती है, पर यह प्रार्थना नहीं है। यह मूच्र्छा है, जब कि प्रार्थना सम्यक चेतना में जागरण का नाम है।
प्रार्थना क्या कोई क्रिया है? क्या कुछ करना प्रार्थना है?
नहीं, प्रार्थना क्रिया नहीं, वरन चेतना की एक स्थिति है। प्रार्थना की नहीं जाती है, प्रार्थना में हुआ जाता है। प्रार्थना मूलत: अक्रिया है। जब सब क्रियाएं शून्य हैं और केवल साक्षी चैतन्य शेष रह गया है, ऐसी स्थिति का नाम प्रार्थना है। प्रार्थना शब्द से 'करने' की ध्वनि निकलती है। ध्यान शब्द से भी 'करने' की ध्वनि निकलती है। पर दोनों शब्द क्रियाओं के लिए नहीं, चेतना की स्थिति के लिए प्रयुक्त हुए हैं।
'शून्य में, मौन में, नि:शब्द में होना प्रार्थना है, ध्यान है।'
एक प्रार्थना सभा में मैंने कल यह कहा है।
किसी ने बाद में मुझ से पूछा,'फिर हम क्या करें?'
मैंने कहा, 'थोड़े समय को कुछ भी न करें। बिलकुल विश्राम में अपने को छोड़ दें। चुपचाप मन को देखते रहें, वह अपने से शांत और शून्य हो जाता है। इसी शून्य में, सत्य का सान्निध्य उपलब्ध होता है। इसी शून्य में वह प्रकट होता है, जो भीतर है और वह भी जो बाहर है। फिर बाहर और भीतर मिट जाते हैं और केवल वही रह जाता है 'जो है'।' इस शुद्ध 'है' की समग्रता का नाम ईश्वर है।
( सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

अमूर्त के दर्शन करने हैं, तो मूर्त को अग्नि दो

एक सर्द और अंधेरी रात में एक साधु किसी मंदिर में ठहरा था। उसने सर्दी दूर करने को भगवान की एक काष्ठ मूर्ति जला ली। आग जली देख पुजारी जाग गया। वह क्रोध में कुछ बोल भी न सका- वह कृत्य ऐसा ही असोचनीय था। तभी उसने देखा : साधु जली राख के ढेर में कुछ खोज रहा है। उसने पूछा कि क्या कर रहे हो? साधु ने कहा, 'भगवान की देह की अस्थियां खोजता हूं।' अब पुजारी के समक्ष उस साधु का पागलपन पूरी तरह स्पष्ट हो गया था। उसने साधु से कहा, 'पागल! लकड़ी में अस्थियां कहां रखी हैं?' साधु बोला, 'तब एक मूर्ति और लाने की कृपा करो, रात बहुत सर्द है और बहुत लंबी भी।'
मैं इस कथा को सोचता हूं और लगता है वह पागल साधु मैं ही हूं।
मैं चाहता हूं कि हम मूर्तियों से मुक्त हो सकें, ताकि जो अमूर्त है, उसके दर्शन संभव हों। रूप पर जो रुका है, वह अरूप पर नहीं पहुंच पाता है। आकार जिसकी दृष्टिं में है, वह निराकार सागर में कैसे कूदेगा? वह जो दूसरे की पूजा में है, वह अपने पर आ सके, यह कैसे संभव है? मूर्त को अग्नि दो, ताकि अमूर्त ही अनुभूति में शेष रहे और आकार की बदलियों को विसर्जित होने दो, ताकि निराकार आकाश उपलब्ध हो सके। रूप को बहने दो, ताकि नौका अरूप के सागर में पहुंचे। जो सीमा के तट से अपनी नौका छोड़ देता है, वह अवश्य ही असीम को पहुंचता और असीम हो जाता है।
( सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जहां विचार नहीं, वहां मन नहीं!

सत्य को पाना है, तो मन को छोड़ दो। मन के न होते ही सत्य आविष्कृत हो जाता है, वैसे ही जैसे किसी ने द्वार खोल दिए हों और सूर्य का प्रकाश भीतर आ गया हो। सत्य के आगमन को मन दीवार की भांति रोके हुए है। मन की इस दीवार की ईट विचारों से बनी है। विचार, विचार और विचार- विचारों की यह श्रंखला ही मन है। रमण ने किसी से कहा था, 'विचारों को रोक दो और फिर मुझे बताओ कि मन कहां है?'
विचार जहां नहीं है, वहां मन नहीं है। ईट न हो, तो दीवार कैसे होगी?
एक साधु रात्रि आये थे। पूछते थे, 'मन के साथ क्या करूं?' मैंने कहा, 'कुछ भी न करो। मन को छोड़ दो और देखो। उसे बिलकुल छोड़ दो और बस देखते रहो। जैसे कोई नदी के किनारे बैठकर जल प्रवाह को देखता है। ऐसे ही विचार प्रवाह को देखो- अलिप्त और असंग। देखते रहो और देखते रहो। उस देखने के आघात से विचार शून्य हो जाते हैं। और मन नहीं पाया जाता है।'
मन के हटते ही उसके रिक्त स्थान में जिसका अनुभव होता है, वही आत्मा है, वही सत्य है; क्योंकि वही सत्ता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

संयम और संगीत ही साधना है

सुबह जा चुकी है। धूप गर्म हो रही है और मन छाया में चलने को है।
एक वृद्ध अध्यापक आये हें। वर्षो से साधना में लगे हैं। तन सूख कर हड्डी हो गया है। आंखें धूमिल हो गयी हैं और गड्ढों में खो गयी हैं। लगता है कि अपनों ने बहुत सताया है और उस आत्मपीड़न को ही साधना समझते हैं।
प्रभु के मार्ग पर चलने को जो उत्सुकता है, उनमें अधिक का जीवन इसी भूल से विषाक्त हो जाता है। प्रभु को पाना, संसार का निषेध रूप ले लेता है और आत्मा की साधना, शरीर को नष्ट करने का। यह नकार दृष्टिं उन्हें नष्ट कर देती है और उन्हें खयाल भी नहीं आ पाता है कि पदार्थ का विरोध परमात्मा के साक्षात का पर्यायवाची नहीं हैं।
सच तो यह है कि देह के उत्पीड़क देहवादी होते हैं और संसार के विरोधी, बहुत सूक्ष्म रूप से संसार से ही ग्रसित होते हैं।
संसार के प्रति भोग-दृष्टिं जितनी बांधती है, विरोधी दृष्टिं उससे कम नहीं, ज्यादा ही बांधती है। संसार और शरीर का विरोध नहीं, अतिक्रमण करना साधना है। वह दिशा न भोग की है और न दमन की है। वह दिशा दोनों से भिन्न है।
वह तीसरी दिशा है। वह दिशा संयम की है। दो बिंदुओं के बीच मध्य बिंदु खोज लेना संयम है। पूर्ण मध्य में जो है, वह अतिक्रमण है। वह कहने को ही मध्य में है, वह कुछ भोग और कुछ दमन नहीं है। वह न भोग है और न दमन है। वह समझौता नहीं, संयम है।
अति असंयम है, मध्य संयम है। अति विनाश है, मध्य जीवन है। जो अति को पकड़ता है, वह नष्ट हो जाता है। भोग और दमन दोनों जीवन को नष्ट कर देते हैं। अति ही अज्ञान है और अंधकार है, मृत्यु है।
मैं संयम और संगीत को साधना कहता हूं।
वीणा के तार जब न ढीले होते हैं और न कसे होते हैं, तब संगीत पैदा होता है। बहुत ढीले तार भी व्यर्थ हैं और बहुत कसे तार भी व्यर्थ हैं। पर तारों की एक ऐसी स्थिति भी होती है, जब वे न कसे कहे जा सकते और न ढीले कहे जा सकते हैं। वह बिंदु ही उनमें संगीत का बिंदु बनता है। जीवन में भी वही बिंदु संयम का है। जो नियम संगीत का है, वह संयम का है। संयम से सत्य मिलता है।
संयम की यह बात उनसे कही है और लगता है कि जैसे उसे उन्होंने सुना है। उनकी आंखें गवाही हैं। जैसे कोई सोकर उठा हो, ऐसा उनकी आंखों में भाव है। वे शांत और स्वस्थ प्रतीत हो रहे हैं। कोई तनाव जैसे शिथिल हो गया है और को ई दर्शन उपलब्ध हुआ है।
मैने जाते समय उनसे कहा, 'सब तनाव छोड़ दें और फिर देखें। भोग छोड़ा है, दमन भी छोड़ दें। छोड़कर- सब छोड़कर देखें। सहज होकर देखें-सहजता ही स्वस्थ करती है, स्वभाव में ले जाती है।'
उन्होंने उत्तर में कहा, 'छोड़ने को अब क्या रहा है? छूट ही गया। मैं शांत और निर्भर हो कर जा रहा हूं। एक दुख स्वप्न जैसे टूट गया है। मैं बहुत उपकृत हूं।' उनकी आंखें बहुत सरल और शांत हो गयी हैं और उनकी मुस्कराहट बहुत भली लग रही है। वे वृद्ध हैं, पर बिलकुल बालक लग रहे हैं।
काश, यह उन सभी को दीख सके जो प्रभु में उत्सुक होते हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

दीपक की लौ की भांति ही मनुष्य की चेतना है

सांझ से ही आंधी-पानी है। हवाओं के थपेड़ों ने बड़े वृक्षों को हिला डाला है। बिजली बंद हो गई है और नगर में अंधेरा है।
घर में एक दीपक जलाया गया है। उसकी लौ ऊपर की ओर उठ रही है। दीया भूमि का भाग है, पर लौ न मालूम किसे पाने निरंतर ऊपर की ओर भागती रहती है।
इस लौ की भांति ही मनुष्य चेतना भी है।
शरीर भूमि पर तृप्त है, पर मनुष्य में शरीर के अतिरिक्त भी कुछ है, जो निरंतर भूमि से ऊपर उठना चाहता है। यह चेतना ही, यह अग्नि-शिखा ही मनुष्य का प्राण है। यह निरंतर ऊपर उठने की उत्सुकता ही उसकी आत्मा है।
यह लौ है, इसलिए मनुष्य मनुष्य है, अन्यथा सब मिट्टी है।
यह लौ पूरी तरह जले तो जीवन में क्रांति घटित हो जाती है। यह लौ पूरी तरह दिखाई देने लगे तो मिट्टी के बीच ही मिट्टी को पार कर लिया जाता है।
मनुष्य एक दीया है। मिट्टी भी है, उसमें ज्योति भी है। मिट्टी पर ही ध्यान रहा, तो जीवन व्यर्थ हो जाता है। ज्योति पर ध्यान जाना चाहिए। ज्योति पर ध्यान जाते ही सब कुछ परिवर्तित हो जाता है, क्योंकि तब मिट्टी में ही प्रभु के दर्शन हो जाते हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

दुख-विस्मरण से दुख नहीं मिटता

एक मंदिर पड़ोस में है। रात्रि वहां रोज ही भजन-कीर्तन होने लगता है। धूप की तीव्र गंध उसके बंद प्रकोष्ठ में भर जाती है। फिर आरती-वंदन होता है। वाद्य बजते हैं। घंटो का निनाद होता है और ढोल भी बजते हैं। फिर पुजारी नृत्य करता है और भक्तगण भी नाचने लगते हैं।यह देखने एक दिन मंदिर के भीतर गया था। जो देखा वह पूजा नहीं, मूच्र्छा थी। वह प्रार्थना के नाम पर आत्म-विस्मरण था। अपने को भूलना दुख-विस्मरण देता है। जो नशा करता है, वही काम धर्म के ऐसे रूप भी कर देता है।जीवन-संताप को कौन नहीं भूलना चाहता है? मादक द्रव्य इसीलिए खोजे जाते हैं। मादक-क्रिया काण्ड भी इसीलिए खोजे जाते हैं। मनुष्य ने बहुत तरह की शराबें बनाई हैं और सबसे खतरनाक शराबें वे हैं, जो कि बोतलों में बंद नहीं होती।दुख-विस्मरण से दुख मिटता नहीं है। उसके बीज ऐसे नष्ट नहीं होते, विपरीत, उसकी जड़े और मजबूत होती जाती हैं। दुख को भूलना नहीं, मिटाना होता है। उसे भूलना धर्म नहीं, वंचना है।दुख-विस्मरण का उपाय जैसे स्व-विस्मरण है, वैसे ही दुख-विनाश का स्व-स्मरण है।धर्म वह है, जो स्व को परिपूर्ण जाग्रत करता है। धर्म के शेष सब रूप मिथ्या हैं। स्व-स्मृति पथ है, स्व-विस्मृत विपथ है। यह भी स्मरण रहे कि स्व-विस्मृति से स्व मिटता नहीं है। प्रच्छन्न धरा प्रवाहित ही रहती है। स्व-स्मृति से ही स्व विसर्जित होता है।जो स्व को परिपूर्ण जानता है, वह स्व के विसर्जन को उपलब्ध हो, सर्व को पा लेता है। स्व के विस्मरण से नहीं, स्व के विसर्जन से सर्व की राह है।प्रभु के स्मरण से स्व को भूलना भूल है। स्व के बोध से स्व को मिटाना मार्ग है और जब स्व नहीं रह जाता है, तब जो शेष रह जाता है, वही प्रभु है। प्रभु स्व के विस्मरण से नहीं, स्व के विसर्जन से उपलब्ध होता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

सागर को पाना नहीं, पीना है

एक प्रभात गौतम बुद्ध बोलने को थे। पर इसके पहले कि वे अपना मौन तोड़ते, विहार के द्वार पर एक विहंग गीत गाने लगा था। उस शांत, उस निस्तब्ध प्रभात में फिर वे चुप ही रहे। सूर्य अपनी किरणों का जाल बुनता रहा और पक्षी गीत गाता रहा। बुद्ध चुप थे, तो सभी चुप थे। और उस मौन में, उस शून्य में वह गीत दिव्य हो गया था। गीत पूरा हुआ तो शून्य और गहरा हो गया था। बुद्ध फिर उठ गये। उस दिन वे कुछ भी नहीं बोले। उस दिन बस मौन प्रवचन ही हुआ था। उस मौन से उन्होंने जो कहा, वह किसी शब्द से कभी नहीं कहा गया है।
इस जगत में और इस जीवन में जो भी है, सब दिव्य है, सब भागवत है। सब में विराट की छाप और छाया है। वही सब में प्रच्छन्न है। वही सब में प्रकट है। उसका ही रूप है, उसकी ही ध्वनि है। पर हम चुप नहीं हैं, इसलिए उसे नहीं सुन पाते हैं। हमारी आंखें खुली नहीं हैं, इसलिए उसका दर्शन नहीं हो पाता है।
हम अतिशय हैं, इसलिए 'वह' नहीं होता है।
हम खाली हों, तो वह अभी और यहीं है।
सत्य है, वह स्व-मूच्र्छा में है, जैसे प्रकाश हो पर आंख बंद हो और फिर स्व को नहीं जगाते हैं, सत्य की खोज करते हैं। आंख तो खोलते नहीं हैं और प्रकाश का अनुसंधान करते हैं। इस भूल में कभी मत पड़ना। सब खोज छोड़ो और चुप हो जाओ। चित्त को चुप कर लो और सुनों। आंखें खुली कर लो और देखो। जैसे पानी की मछली मुझ से पूछे कि उसे सागर खोजना है, तो उससे मैं क्या कहूंगा? मैं उससे कहूंगा : खोज छोड़ों और देखो कि तुम सागर में ही हो। प्रत्येक सागर में है। सागर को पाना नहीं, पीना शुरू करना है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जीवन पाने के लिए स्वयं को मिटाना होगा

मैंने सुना है : एक फकीर भीख मांगने निकला था। वह बूढ़ा हो गया था और आंखों से उसे कम दिखता था। उसने एक मस्जिद के सामने आवाज लगाई। किसी ने उससे कह, 'आगे बढ़। यह ऐसे आदमी का मकान नहीं है, जो तुझे कुछ दे सके।' फकीर ने कहा, 'आखिर इस मकान का मालिक कौन है, जो किसी को कुछ नहीं देता?' वह आदमी बोला, 'पागल, तुझे यह भी पता नहीं कि यह मस्जिद है! इस घर का मालिक स्वयं परमपिता परमात्मा है।'
फकीर ने सिर उठाकर मस्जिद पर एक नजर डाली और उसका हृदय एक जलती हुई प्यास से भर गया। कोई उसके भीतर बोला,'अफसोस, असंभव है इस दरवाजे आगे बढ़ना। आखिरी दरवाजा आ गया। इसके आगे और दरवाजा कहां है?'
उसके भीतर एक संकल्प घना हो गया। अडिग चट्टान की भांति उसके हृदय ने कहा, 'खाली हाथ नहीं लौटूंगा। जो यहां से खाली हाथ लौट गए, उनके भरे हाथों का मूल्य क्या?'
वह उन्हीं सीढि़यों के पास रुक गया। उसने अपने खाली हाथ आकाश की तरफ फैला दिये। वह प्यास था- और प्यास ही प्रार्थना है।
दिन आये और गये। महा आये और गये। ग्रीष्म बीती, वर्षा बीती,सर्दियां भी बीत चलीं। एक वर्ष पूरा हो रहा था। उस बूढ़े के जीवन की मियाद भी पूरी हो गई थी। पर अंतिम क्षणों में लोगों ने उसे नाचते देखा था।
उसकी आंखें एक अलौकिक दीप्ति से भर गयीं थीं। उसके वृद्ध शरीर से प्रकाश झर रहा था।
उसने मरने से पूर्व एक व्यक्ति से कहा था, 'जो मंगता है, उसे मिल जाता है। केवल अपने को समर्पित करने का साहस चाहिए।'
अपने को समर्पित करने का साहस।
अपने को मिटा देने का साहस।
जो मिटने को राजी है, वह पूरा हो जाता है। जो मरने को राजी है, वह जीवन पा लेता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

पूर्ण मौन ही एक मात्र प्रार्थना

अर्ध रात्रि बीत गई है। एक सभा से लौटा हूं। वहां कोई क रहे थे,'प्रभु को पुकारो। उसका नाम स्मरण करो। निरंतर बुलाने से वह अवश्य सुनता है।'
मुझे याद आया कबीर ने कहा,' क्या ईश्वर बहरा हो गया है?'
शायद कबीर के शब्द उन तक नहीं पहुंचे हैं।
पिुर उन्हें कहते सुना, 'दस आदमी सो रहे हें। किसी ने पुकारा-'देवदत्त।' तो देवदत्त उठ आता है। ऐसे ही प्रभु के संबंध में भी है। उसका नाम पुकारो, वह अवश्य सुनता है।'
उनकी बातें सुन मुझे हंसी आने लगी थी। प्रथम तो यह कि प्रभु नहीं, हम सो रहे हैं। वह तो नित्य जाग्रत है। उसे नहीं, वरन् हमें जागना है। फिर सोए हुए जाग्रत को जगावें, तो बड़े मजे की बात है। उसे पुकारना नहीं, उसकी ही पुकार हमें सुननी है। यह मौन में होगा- परिपूर्ण निस्तरंग चित्त में होगा। जब चित्त में कोई ध्वनि नहीं है, तब उसका नाद उपलब्ध होता है।
पूर्ण मौन ही एक मात्र प्रार्थना है। प्रार्थना कुछ करना नहीं है, वरन् जब चित्त कुछ भी नहीं कह रहा है, तब वह प्रार्थना में है।
प्रार्थना क्रिया नहीं अवस्था है।
द्वितीय, प्रभु का कोई नाम नहीं है, न उसका कोई रूप है। इसलिए उसे बुलाने और स्मरण करने का कोई उपाय भी नहीं है। सब नाम, सब रूप कल्पित हैं। वे सब मिथ्या हैं। उनसे नहीं, उन्हें छोड़कर सत्य तक पहुंचना होता है।
जो सब छोड़ने का साहस करता है, वह उसे पाने की शर्त पूरी करता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

स्वयं को जाने बिना ज्ञान की प्यास नहीं मिटती

ज्ञान के लिए पिपासा है। कितनी प्यास है? प्रत्येक में देखता हूं। कुछ भीतर प्रज्ज्वलित है, जो शांत होना चाहता है और मनुष्य कितनी दिशाओं में खोजता है। शायद अनंत जन्मों से उसकी यह खोज चली आ रही है। पर हर चरण पर निराशा के अतिरिक्त और कुछ भी हाथ नहीं आता है। कोई रास्ता पहुंचता हुआ नहीं दिखता है। क्या रास्ते कहीं भी नहीं ले जाते हैं?
इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना है। जीवन स्वयं इसका उत्तर है। क्या अनंत मार्गो और दिशाओं में चलकर उत्तर नहीं मिल गया है?
बौद्धिक उत्तर खोजने में, उसके धुएं में, वास्तविक उत्तर खो जाता है। बुद्धि चुप हो तो अनुभूति बोलती है। विचार मौन हों तो विवेक जाग्रत होता है।
वस्तुत: जीवन के आधारभूत प्रश्नों के उत्तर नहीं होते हैं। समस्याएं हल नहीं होती हैं, गिर जाती हैं। केवल पूछने और शून्य हो जाने की बात है। बुद्धि केवल पूछ सकती है। समाधान उससे नहीं शून्य से आता है।
'समाधान शून्य से आता है,' इसी सत्य को जानते ही एक नये आयाम पर जीवन का उद्घाटन प्रारंभ हो जाता है। चित्त की इसी स्थिति का नाम समाधि है।
पूछें और चुप हो जाएं- बिलकुल चुप और समाधान को आने दें, उसे फलने दें। चित्त की इस निस्तरंग स्थिति में दर्शन होता है, उसका-जो है, जो मैं हूं।
स्वयं को जाने बिना ज्ञान की प्यास नहीं मिटती है।
सब मार्ग छोड़कर स्वयं पर पहुंचना होता है। चित्त जब किसी मार्ग पर नहीं है, तब स्वयं में है और स्वयं को जानना ज्ञान है। शेष सब जानकारी है, क्योंकि परोक्ष है। विज्ञान ज्ञान नहीं है। वह सत्य को नहीं, केवल उपयोगिता को जानना है। सत्य केवल अपरोक्ष ही जाना जा सकता है और ऐसी सत्ता केवल स्वयं की ही है, जो कि अपरोक्ष जानी जा सकती है।
चित्त जिस क्षण खोज की व्यर्थता को जानकर चुप और थिर रह जाता है, उसी क्षण अनंत के द्वार खुल जाते हैं।
दिशा-शून्य चेतना प्रभु में विराजमान हो जाती है और ज्ञान की प्यास का अंत केवल प्रभु में ही है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

उसे देखो जो, सबको देखता है!

एक बैलगाड़ी निकलती है। उसके चाक देखता हूं। धुरी पर चाक घूमते हैं। जो स्वयं स्थिर है, उस पर चाकों का घूमना है। गति के पीछे स्थिर बैठा हुआ है। क्रिया के पीछे अक्रिया है। सत्ता के पीछे शून्य का वास है।
ऐसे ही एक दिन देखा धूल का एक बवंडर। धूल का गुब्बारा चक्कर खाता हुआ ऊपर उठ रहा था, पर बीच में एक केंद्र था, जहां सब शांत और स्थिर था। क्या जगत का मूल सत्य इन प्रतीकों में प्रकट नहीं है?
क्या समस्त सत्ता के पीछे शून्य नहीं बैठा हुआ है?
क्या समस्त क्रिया के पीछे अक्रिया नहीं है?
शून्य ही सत्ता का केंद्र और प्राण है। उसे ही जानना है। उसमें ही होना है, क्योंकि वही हमारा वास्तविक होना है। जो प्रत्येक अपने केंद्र पर है, वही प्रत्येक का होना है। कहीं और नहीं, जहां हम हैं, वहीं हमें चलना है।
यह होना कैसे हो?
उसे देखो जो 'देखता है' और शून्य में उतरना हो जाता है।
'दृश्य' से 'द्रष्टा' की ओर चलना है। दृश्य है रूप, क्रिया, सत्ता। दृष्टा है अरूप, अक्रिया, शून्य। 'दृश्य' है पर, अनित्य, संसार, बंधन, अमुक्ति, आवागमन। 'दृष्टा' है स्व, नित्य, ब्रह्मं, मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण। देखो- जो देखता है, उसे देखो। यही समस्त योग है।
यही रोज कह रहा हूं या जो भी कह रहा हूं, उसमें यही है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

तुम्हारी निद्रा तोड़ना चाहता हूं

मैं उपदेशक नहीं हूं। कोई उपदेश, कोई शिक्षा मैं नहीं देना चाहता हूं। अपना कोई विचार तुम्हारे मन में डालने की मेरी कोई आकांक्षा नहीं है। सब विचार व्यर्थ हैं और धूलिकणों की भांति वे तुम्हें आच्छादित कर लेते हैं। और फिर तुम जो नहीं हो, वैसे दिखलाई पड़ने लगते हो। और जो तुम नहीं जानते हो, वह ज्ञात-सा मालूम होने लगता है। वह बहुत आत्मघातक है।
विचारों से अज्ञान मिटता नहीं, केवल छिप जाता है। ज्ञान को जगाने के लिए अज्ञान को उसकी पूरी नग्नता में जानना जरूरी है। इसलिए विचारों के वस्त्रों में अपने के मत ढांको। समस्त वस्त्रों और आवरणों को अलग कर दो ताकि तुम अपनी नग्नता और रिक्तता से परिचित हो सको। वह परिचय ही तुम्हें अज्ञान के पार ले जाने वाला सेतु बनेगा। अज्ञान के बोध का तीव्र संताप ही क्रांति का बिंदु है।
इससे मैं तुम्हें ढांकना नहीं, उघाड़ना चाहता हूं। जरा देखो : तुमने कितनी अंधी श्रद्धा, धारणा, और कल्पनाओं में अपने को छिपा लिया है। और इन मिथ्या सुरक्षाओं में तुम अपने को सुरक्षित समझ रहे हो। यह सुरक्षा नहीं, आत्मवंचना है।
मैं तुम्हारी इस निद्रा को तोड़ना चाहता हूं। स्वप्न नहीं, केवल सत्य ही एकमात्र सुरक्षा है।
और तुम यदि स्वप्नों को छोड़ने का साहस करो तो सत्य को पाने के अधिकारी हो जाते हो। कितना सस्ता सौदा है! सत्य को पाने के लिए और कुछ नहीं केवल स्वप्न ही छोड़ने पड़ते हैं।
विचारों की, स्वप्नों की, कल्पना-चित्रों की मूच्र्छा को तोड़ना है। उससे, जो कि दिख रहा है, उस पर जागना है, जो कि देख रहा है।
'वह द्रष्टा ही सत्य है, उसे पा लो, तो समझो कि जीवन पा लिया है।' यह किसी से कह रहा था। वे सुनकर विचारमग्न हो गये। मैंने उनसे कहा, 'आप तो सोच में पड़ गये। उसी से तो मैं जगाने को कह रहा हूं। वही तो निद्रा है।'
(सौजन्‍य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

सत्य लाया नहीं जाता, स्वयं आता है

'मैं कौन हूँ?' यह अपने से पूछता था। कितने दिवस रात्रि यह पूछते बीते; अब उनकी कोई गणना भी तो संभव नहीं है। बुद्धि उत्तर देती थी : सुने हुए संस्कारजन्य। वे सब उत्तर, उधार और मृत थे। उनसे तृप्ति नहीं होती थी। सतह पर गूंजकर वे विलीन हो जाते थे। अंतरात्मा उनसे अछूती रह जाती थी। गहराई में उनकी कोई ध्वनि नहीं सुनाई पड़ती थी। उत्तर बहुत थे, पर उत्तर नहीं था। और मैं उनसे अस्पर्शित रह जाता था। प्रश्न जहां पर था, वहां उनकी पहुंच नहीं थी।
फिर यह दिखा कि प्रश्न कहीं केंद्र पर था : उत्तर परिधि पर थे। प्रश्न अपना था, उत्तर पराये थे। प्रश्न अंतस में जगा था, समाधान बाहर से आरोपित था।
और यह दीखना तो क्रांति बन गया।
एक नई दिशा उद्घाटित हो गयी।
बुद्धि के समाधान व्यर्थ हो गये। समस्या से उनकी कोई संगति नहीं थी। एक भ्रम भग्न हो गया था। और कितनी मुक्ति मालूम हुई थी।
जैसे बंद द्वार खुल गया हो या फिर अचानक अंधेरे में प्रकाश हो गया हो, ऐसा मालूम हुआ था। बुद्धि उत्तर देती थी, यही भूल थी। उन तथाकथित उत्तरों के कारण वास्तविक उत्तर ऊपर नहीं आ पाता था। कोई सत्य ऊपर आने को तड़प रहा था। चेतन की गहराइयों में कोई बीज भूमि को तोड़कर प्रकाश के लिए मार्ग खोज रहा था। बुद्धि बाधा थी।
यह दिखा तो उत्तर गिरने लगे। बाहर से आया ज्ञान वाष्प होने लगा। प्रश्न और गहरा हो गया। कुछ किया नहीं, केवल देखता रहा, देखता रहा। कुछ अभिनव घटित हो रहा था। मैं तो अवाक था। करने को था ही क्या, मैं जैसे बस दर्शक ही था। परिधि की प्रतिक्रियाएं झड़ रही थीं, मिट रही थीं, न हो रही थीं। और केंद्र अब पूरी तरह झंकृत हो उठा था।
'मैं कौन हूं?' - एक ही प्रयास में समग्र व्यक्तित्व स्पंदित हो उठा था।
कैसी आंधी थी, वह कि श्वास-श्वास उसमें कंपित हो गयी थी।
'कौन हूं मैं?' - एक तीर की भांति प्रश्न सब कुछ चीरता भीतर चला रहा था।
स्मरण करता हूं, कितनी तीव्र प्यास थी! सारे प्राण ही तो प्यास में बदल गये थे। सब कुछ जल रहा था और एक अग्नि शिखा की भांति प्रश्न भीतर खड़ा था, 'कौन हूं, मैं?'
आश्चर्य की बुद्धि बिलकुल चुप थी। निरंतर बहने वाले विचार नहीं थे। यह क्या हुआ था कि परिधि नितांत निस्पंद थी। कोई विचार नहीं था। कोई संस्कार नहीं था।
मैं था और प्रश्न था। नहीं, नहीं, मैं ही प्रश्न था।
और फिर विस्फोट हो गया। प्रश्न गिर गया था। किसी अज्ञात आयाम से समाधान आ गया था।
सत्य क्रम से नहीं, विस्फोट से उपलब्ध होता है।
उसे लाया नहीं जाता। सत्य आता है।
शब्द नहीं शून्य समाधान है। निरुत्तर हो जाने में उत्तर है।
कल कोई पूछता था, और रोज कहीं कोई पूछता है : 'वह उत्तर क्या है?'
मैं कहता हूं, 'उसे मैं कहूं तो अर्थहीन है, उसका अर्थ स्वयं पाने में है।'
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

शांति के लिए अभ्यास नहीं सद्भाव चाहिए


एक संध्या की बात है। गेलीली झील पर तूफान आया हुआ है। एक नौका डूबती-डूबती हो रही थी। बचा का कोई उपाय नहीं दीखता था। यात्री और मांझी घबरा गये थे। आंधियों के थपेड़े प्राणों को हिला रहे थे। पानी की लहरें भीतर आना शुरू हो गई थीं। और किनारे पहुंच से बहुत दूर थे। पर इस गरजते तूफान में भी नौका के एक कोने में एक व्यक्ति सोया हुआ था- शांत और निश्चिंत। उसके साथियों ने उसे उठाया। सबकी आंखों में आसन्न मृत्यु की छाया थी।
उस व्यक्ति ने उठकर पूछा,'इतने भयभीत क्यों हो?' जैसे भय की कोई बात ही न थी।
उसने पुन: पूछा, 'क्या अपने आप पर बिलकुल भी आस्था नहीं है?' इतना कह कर वह शांति और धीरज से उठा और नाव के एक किनारे पर गया। तूफान आखिरी चोट कर रहा था। उसने विक्षुब्ध हो गयी झील से जाकर कहा,'शांति, शांत हो जाओ।' ( Peace, be still. )
तूफान जैसे कोई नटखट बच्चा था। ऐसे ही उसने कहा था,'शांत हो जाओ!'
यात्री समझे होंगे कि यह क्या पागलपन है! तूफान क्या किसी की मानेगा? लेकिन उनकी आंखों के सामने ही तूफान सो गया था और झील ऐसी शांत हो गयी थी कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं है।
उस व्यक्ति की बात मान ली गयी थी।
वह व्यक्ति था जीसस क्राइस्ट। यह बात है, दो हजार वर्ष पुरानी। पर मुझे यह घटना रोज ही घटती मालूम होती है।
क्या हम सभी निरंतर एक तूफान, एक अशांति से नहीं घिरे हुए हैं? क्या हमारी आंखों में भी निरंतर आसन्न मृत्यु की छाया नहीं है? क्या हमारे भीतर चित्त की झील विक्षुब्ध नहीं है? क्या हमारी जीवन नौका भी प्रतिक्षण डूबती-डूबती मालूम नहीं होती है?
तब क्या यह उचित नहीं है कि हम अपने से पूछें, 'इतने भयभीत क्यों हो? क्या अपने आप पर बिलकुल भी आस्था नहीं है?' और अपने भीतर की झील पर जा कर कहें, 'शांति, शांत हो जाओ।'
मैंने यह कह कर देखा है और पाया है कि तूफान सो जाता है। केवल शांत होने के भाव करने की ही बात है और शांति आ जाती है। अपने भाव से प्रत्येक अशांत है। अपने भाव से शांत भी हो सकता है। शांति उपलब्ध करना अभ्यास की बात नहीं है। केवल सद्भाव ही पर्याप्त है।
शांति तो हमारा स्वरूप है। घनी अशांति के बीच भी एक केंद्र पर हम शांत हैं। एक व्यक्ति यहां तूफान के बीच भी निश्चिंत सोया हुआ है। इस शांत, निश्चल, निश्चिंत केंद्र पर ही हमारा वास्तविक होना है। उसके होते हुए भी हम अशांत हो सके हैं, यही आश्चर्य है। उसे वापस पा लेने में तो कोई आश्चर्य नहीं है।
शांत होना चाहते हो, तो इसी क्षण, अभी और यहीं शांत हो सकते हो। अभ्यास भविष्य में फल लाता है, सद्भाव वर्तमान में ही। सद्भाव अकेला वास्तविक परिवर्तन है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन )

स्वयं को जानना ही प्रभु को पाना है

रात्रि में घूमने निकला था। गाँव का ऊबड़-खाबड़ रास्ता था। साथ एक साधु थे। उन्होंने बहुत यात्रा की थी। शायद ही कोई ऐसा तीर्थ था, जहाँ वे नहीं हो आये थे। प्रभु को पाने के वे मार्ग खोज रहे थे।
उस रात्रि उन्होंने मुझ से भी पूछा था, 'प्रभु को पाने का मार्ग क्या है?'
यह प्रश्न उन्होंने औरों से भी पूछा था। मार्ग भी धीरे-धीरे उन्हें बहुत ज्ञात हो गए थे। पर प्रभु से जो दूरी थी, वह उतनी ही बनी थी। ऐसा भी नहीं था कि उन मार्गो पर वे चले नहीं थे। यथाशक्ति प्रयास भी किया था। पर हाथ आया था, केवल चलना ही। पहुंचना नहीं हुआ था। पर अभी मार्ग से ऊबे नहीं थे और नये की तलाश जारी थी।
जो मैं स्वयं हूँ, उसे पाने का कोई मार्ग नहीं है। मार्ग 'पर' को और 'दूर' को पाने के लिए होते हैं। जो निकट है; निकट ही नहीं, जो मैं ही हूँ- वह मार्ग से नहीं मिलता है। मार्ग के योग्य वहाँ अंतराल ही नहीं है।
फिर पाना उसे होता है, जिसे खोया हो। प्रभु को क्या खोया जा सकता है?
जो खोया जा सके वह स्वरूप नहीं हो सकता है। वह केवल विस्मृत है।
इसलिए कहीं जाना नहीं है। केवल स्मरण करना है। कुछ करना नहीं केवल जानना है।
और जानना ही पहुंचना है। जानना है कि यह मैं कौन हूँ? ओर यह ज्ञान ही प्रभु की उपलब्धि है।
एक दिन जब सारे प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं और कोई भी मार्ग कहीं ले जाता प्रतीत नहीं होता है, तब दिखता है कि जो भी मैं कर सकता हूँ, वह सत्य तक नहीं ले जाएगा। कोई क्रिया 'मैं' के रहस्य को नहीं खोलेगी, क्योंकि क्रिया मात्र बाहर ले जाती है।
कोई क्रिया सत्ता तक नहीं ले लाती है। जहाँ क्रिया का अभाव है, वहाँ सत्ता प्रकट होती है।
कोई क्रिया उसे नहीं देगी, क्योंकि वह क्रियाओं के भी पूर्व है।
कोई मार्ग 'वहां' के लिए नहीं है, क्योंकि वह तो 'यहां' है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

धार्मिकता भेद से अभेद में छलांग


मैं ईश्वर भीरु नहीं हूँ। भय ईश्वर तक नहीं ले जाता है। उसे पाने की भूमिका अभय है।
मैं किसी अर्थ में श्रद्धालु भी नहीं हूँ। श्रद्धा मात्र अंधी होती है। और अंधापन परम सत्य तक कैसे ले जा सकता है?
मैं किसी धर्म का अनुयायी भी नहीं हूँ, क्योंकि धर्म को विशेषणों में बाटना संभव नहीं है। वह एक और अभिव्यक्त है।
कल जब मैंने यह कहा तो किसी ने पूछा, 'फिर क्या आप नास्तिक हैं?'
मै न नास्तिक हूँ, न आस्तिक ही। वे भेद सतही और बौद्धिक हैं। सत्ता से उनका कोई संबंध नहीं है। सत्ता 'है' और 'न है' में विभक्त नहीं है। भेद मन का है, इसलिए नास्तिकता और आस्तिकता दोनों मानसिक हैं। आत्मा को वे नहीं पहुंच पाती हैं। आत्मिक विधेय और नकार दोनों का अतिक्रमण कर जाता है।
'जो है' वह विधेय और नकार के अतीत है। या फिर वे दोनों एक हैं और उनमें कोई भेद-रेखा नहीं है। बुद्धि से स्वीकार की गई किसी भी धारण की वहाँ कोई गति नहीं है।
वस्तुत: आस्तिक को आस्तिकता छोड़नी होती है और नास्तिक को नास्तिकता, तब कहीं वे सत्य में प्रवेश कर पाते हैं। वे दोनों ही बुद्धि के आग्रह हैं। आग्रह आरोपण हैं। सत्य कैसा है, यह निर्णय नहीं करना होता है; वरन अपने को खोलते ही वह जैसा है, उसका दर्शन हो जाता है।
यह स्मरण रखें कि सत्य का निर्णय नहीं, दर्शन करना होता है। जो सब बौद्धिक निर्णय छोड़ देता है, जो सब तार्किक धारणाएं छोड़ देता है, जो समस्त मानसिक आग्रह और अनुमान छोड़ देता है, वह उस निर्दोष चित्त-स्थिति में सत्य के प्रति अपने के खोल रहा है, जैसे फूल प्रकाश के प्रति अपने को खोलते हैं।
इस खोलने में दर्शन की घटना संभव होती है।
इसलिए, जो न आस्तिक है न नास्तिक है, उसे मैं धार्मिक कहता हूँ। धार्मिकता भेद से अभेद में छलांग है।
विचार जहाँ नहीं, निर्विचार है; विकल्प जहाँ नहीं, निर्विकल्प है; शब्द जहाँ नहीं, शून्य है- वहाँ धर्म में प्रवेश है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

मिट्टी के दीयों पर विश्वास छोड़ो और चिन्मय ज्योति खोजा


एक मिट्टी का दिया जल रहा था, वह भी बुझ गया है। हवा का एक झोंका आया और उसे ले गया। मिट्टी के दीये का विश्वास भी क्या? और उन ज्योतियों का साथ भी कितना, जिन्हें हवाएं बुझा सकती हैं?
अंधेरे के सागर में डूब गये हैं। एक युवक बैठे हैं। अंधेरे से उन्हें बहुत भय लग रहा है। वे कह रहे हैं कि अंधेरे में उनके प्राण कांप जाते हैं और सांसे लेना भी मुश्किल हो जाता है।
मैं उनसे कह रहा हूं कि जगत में अंधेरा ही अंधेरा है। और ऐसी कोई भी ज्योति जगत के पास नहीं है कि अंधेरे को नष्ट कर दे। जो भी ज्योतियां हैं, वे देर-अबेर स्वयं ही अंधेरे में डूब जाती हैं। वे आती हैं और चली जाती हैं, पर अंधेरा वहीं का वहीं बना रहता है। जगत का अंधकार तो शाश्वत है और उसकी ज्योतियों पर जो विश्वास करते हैं, वे नासमझ हैं; क्योंकि वे ज्योतियां वास्तविक नहीं हैं, और सब अंतत: अंधेरे से पराजित हो जाती हैं।
पर एक और लोक भी है। जगत से भिन्न एक और जगत भी है। जगत अंधकार है, तो वह लोक प्रकाश ही प्रकाश है। जगत में प्रकाश क्षणिक और सामयिक है और अंधकार शाश्वत है, तो उस लोक में अंधकार क्षणिक और सामयिक है और आलोक शाश्वत है।
एक और भी आश्चर्य है कि अंधकार का लोक हमसे दूर और प्रकाश का लोक बहुत निकट है।
अंधकार बाहर और प्रकाश भीतर है।
और स्मरण रहे कि जब तक अंतस के आलोक में जागरण नहीं होता है, तब तक कोई ज्योति अभय नहीं दे सकती है। मिट्टी के मृण्मय दीयों पर विश्वास छोड़ो और चिन्मय ज्योति को खोजो। उससे ही अभय, आनंद और वह आलोक मिलता है, जिसे कि कोई छीन नहीं सकता है। वही अपना है, जो कि छीना न जा सके और वही अपना है, जो कि बाहर नहीं है।
आंख के बाहर अंधकार है, पर आंख के भीतर तो देखो कि वहां क्या है?
यदि वहा भी अंधकार होता, तो अंधकार का बोध नहीं हो सकता था। जो अंधकार को जानता है, वहां अंधकार नहीं हो सकता।
जो आलोक की आकांक्षा करता है, वह कैसे अंधकार हो सकता है? वह आलोक है, इसलिए उसे आलोक आकांक्षा है। वह आलोक है, इसलिए उसे आलोक की अभिप्सा है। आलोक ही केवल आलोक के लिए प्यासा हो सकता है। जहां से प्यास आती है, वहीं खोजो- उसी बिंदु को लक्ष्य बनाओ तो पाओगे कि जिसकी प्यास है, वह वहीं छिपा हुआ है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

'मैं' के भीतर झांको ब्रह्म मिलेगा


एक सूफी गीत है- प्रेयसी के द्वार पर किसी ने दस्तक दी। भीतर से आवाज आयी, 'कौन है?' जो द्वार के बाहर खड़ा था, उसने कहा, 'मैं हूं।' प्रत्युत्तर में उसे सुनाई पड़ा, 'यह गृह 'मैं' और 'तू' दो को नहीं संभाल सकता है।'
और बंद द्वार बंद ही रहा। प्रेमी वन में चला गया। उसने तप किया, उपवास किये, प्रार्थनाएं कीं। बहुत सालों के बाद वह लौटा और पुन: उसने वही द्वार खटखटाया। दुबारा वही प्रश्न, 'बाहर कौन है?'
पर इस बार द्वार खुल गए, क्योंकि उसका उत्तर दूसरा था। उसने कहा, 'तू ही है।'
यह उत्तर कि 'तू ही है' समस्त धर्म का सार है। जीवन के अनंत-असीम प्रवाह पर 'मैं' की गांठ ही बंधन है। 'मैं' व्यक्ति को सत्ता से तोड़ देता है। 'मैं' बुदबुदा सत्ता-प्रवाह से अपने को भिन्न समझ बैठता है। जबकि बुदबुदे की अपनी कोई सत्ता नहीं है। उसका कोई केंद्र और अपना जीवन नहीं है। वह सागर ही है। सागर ही उसका जीवन है। 'मैं' के भीतर झांको तो ब्रह्मं मिल जाता है।
'मैं' जहां नहीं है, वहां वस्तुत: 'तू' भी नहीं है। वहां केवल 'होना' मात्र है। केवल अस्तित्व है, शुद्ध सत्ता है। इस शुद्ध सत्ता में जागना निर्वाण है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

सपने नहीं, सत्य देखें


एक दिन नदी के किनारे खड़ा था : देखा, कागज की एक नाव पानी में डूब गई है। कल कुछ रेत के घरौंदे बनाए थे, वे भी मिट गये हैं।
रोज नाव डूबती हैं और रोज घरौंदे टूट जाते हैं।
एक
महिला आई थीं। सपने उनके पूरे नहीं हुए हैं। जीवन से मन उनका उचाट है।
आत्‍महत्‍या के विचार ने उन्हें पकड़ लिया है। आंखों गड्ढों में धंस गई हैं और सब व्यर्थ मालूम होता है।
मैंने कहा : सपने किसके पूरे होते हैं, सब सपने अंतत: दुख देते हैं, कारण कागज की नावें बहें भी तो कितनी दूर बह सकती है। इसमें भूल सपने की नहीं है, वे तो स्वभाव से ही दुष्पूर हैं। भूल हमारी है। जो सपना देखता है, वह सोया है। जो सोया है, उसकी कोई उपलब्धि वास्तविक नहीं है। जागते ही सब पाया, न पाया हो जाने को है।
सपने नहीं, सत्य देखें। जो है, उसे देखें। उसे देखने से मुक्ति आती है। वह नाव सच्ची है- वही जीवन की परिपूर्णता तक ले जाती है।
सपनों में मृत्यु है। सत्य में जीवन है। सपने यानी निद्रा। सत्य यानी जागृति। जागें और अपने को पहचाने। जब तक स्वप्न में मन है, तब तक जो स्वप्न को देख रहा है, वह नहीं दीखता है। वही सत्य है। वही है। उसे पाते ही डूबी नाव और गिरे घरौंदों पर केवल हंसी आती है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन )

मन के छिद्र बंद करो


रात्रि बीत गई है और खेतों में सुबह का सूरज फैल रहा है। एक छोटा सा नाला अभी-अभी पार हुआ है। गाड़ी की आवाज सुन, चांदनी के फूलों से सफेद बगुलों की एक पंक्ति सूरज की ओर उड़ गई है।
फिर कुछ हुआ है और गाड़ी रुक गई है। इस निर्जन में उसका रुकना भला लगा है। मेरे अपरिचित सहयात्री भी उठ आए हैं। रात्रि किसी स्टेशन पर उनका आना हुआ था। शायद मुझे संन्यासी समझ कर प्रणाम किया है। कुछ पूछने की उत्सुकता उनकी आंखों में है। आखिर वे बोल रहे हैं, ''अगर कोई बाधा आपको न हो तो मैं एक बात पूछना चाहता हूं। मैं प्रभु में उत्सुक हूं और उसे पाने का बहुत प्रयास किया है, पर कुछ परिणाम नहीं निकला। क्या प्रभु मुझ पर कृपालु नहीं है?''
मैंने कहा,''कल मैं एक बगीचे में गया था। कुछ साथी साथ थे। एक को प्यास लगी थी। उसने बाल्टी कुएं में डाली। कुआं कुछ गहरा था। बाल्टी खींचने में श्रम पड़ा पर बाल्टी जब लौटी तो खाली थी। सब हंसने लगे।''
'' मुझे लगा, यह बाल्टी तो मनुष्य के मन जैसी है। उसमें छेद ही छेद थे। बाल्टी नाममात्र की थी, बस छेद ही छेद थे। पानी भरा था, पर सब बह गया। ऐसे ही मन भी छेद ही छेद है। इस छेद वाले मन को कितना ही प्रभु की ओर फेंकों, वह खाली ही वापस लौट आता है।
''मित्र पहले बाल्टी ठीक कर लें फिर पानी खींच लेना एकदम आसान है। हां, छेद वाली बाल्टी से तपश्चर्या तो खूब होगी, पर तृप्ति नहीं हो सकती है।''
''और स्मरण रहे कि प्रभु न कृपालु हैं, न अकृपालु। बस आपकी बाल्टी भर ठीक होनी चाहिए। कुआं तो हमेशा पानी देने को राजी होता है। उसकी ओर से कभी कोई इनकार नहीं है।''
(सौजन्‍य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)