नीति मार्ग नहीं है- गतांक से आगे




तो मैं आपसे निवेदन करता हूं, नैतिक होने से कोई धार्मिक नहीं होता। नैतिक होने से वस्तुतः कोई नैतिक ही नहीं होता है, क्योंकि नैतिकता अहंकार को समाप्त ही नहीं कर6ती और बढ़ाती है। और अहंकार सबसे बड़ी अनैतिकता है।
धार्मिक होने से यह होता है। धार्मिक चित्त, रिलीजस माइंड एक अदभुत क्रांति है। सारा जीवन बदल जाता है। फिर चोरी से बचना नहीं पड़ता, चोरी का चित्त ही चला जाता है। फिर झूठ से बचना नहीं पड़ता, झूठ का चित्त ही चला जाता है। फिर क्रोध से बचना नहीं पड़ता, क्रोध का चित्त चला जाता है। बुद्ध एक गांव के पास से निकलते थे, कुछ लोग वहां इकट्ठे हुए और उन्होंने बुद्ध को बहुत गालियां दीं, बहुत अपमानजनक शब्द कहे। बुद्ध ने खड़े होकर सुना, और फिर बाद में उनसे कहा कि मित्रो, तुम्हारी बात पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव थोड़ा जल्दी पहुंचना है।
वे लोग थोड़े हैरान हुए, गाली देने वाला सबसे ज्यादा हैरान तभी होता है जब दूसरा आदमी उसकी गाली लेता नहीं। अगर ले ले तब तो हैरानी खतम हो जाती है। मामला बन जाता है। वह भी हमारे तल पर उतर आता है, हम भी उसके तल पर खड़े हो जाते हैं। बात सीधी और साफ हो जाती है। लेकिन बुद्ध ने कहा कि मुझे दूसरे गांव जल्दी जाना है। अगर तुम्हारी बातें पूरी हुई हों तो मैं जाऊं।
उन लोगों ने कहा: ये बातें थीं क्या? हमने इतनी गालियां दीं, इतना अपमान किया?
बुद्ध ने कहा: तुमने किया वह तो ठीक है, लेकिन इतनी आजादी तो मुझे दोगे कि मैं उसे लूं या न लूं? इतना हक तो मुझे दोगे? तुमने गाली दी वह ठीक लेकिन मैं न लूं, इतना हक तो मुझे है। कि मुझे मजबूरी है कि मुझे लेनी पड़ेगी? बुद्ध ने कहा, पहले मैं भी ले लेता था लोग जो भी देते थे, अब तो मैं चुन-चुन कर लेता हूं जो लेना होता है, जो नहीं लेता वह नहीं लेता।
पिछले गांव में कुछ लोग मिठाइयां लेकर आए थे और कहने लगे कि ले लो। मैंने कहा: पेट मेरा भरा है, और बोझ ढोना ठीक नहीं, दूसरे गांव में फिर कोई दे ही देगा। वे बेचारे वापस ले गए। मिठाइयां वापस ले गए। अब तुम क्या करोगे? तुम गालियां लेकर आए हो। तुम्हें वापस ले जाना पड़ेगा। तुम गड़बड़ आदमी के पास आए गए। मैं लेता नहीं हूं। और उन्होंने तो अपने बच्चों को बांट दी होंगी मिठाइयां, तुम अपनी गालियां का क्या करोगे? बड़ी मुसीबत में पड़ गए। और तुम पर मुझे बहुत दया आती है। अब मैं क्या करूं, तुम्हें किस भांति सहारा दूं? मैं किस भांति तुम्हें बोझ से हलका करूं? मैं बिलकुल मुश्किल में हूं, मैंने गालियां लेना बंद कर दीं। और गालियां लेनी मैंने इसलिए बंद नहीं कीं कि तुम पर मुझे कोई दया करनी है बल्कि इसलिए कि मुझे अपने पर दया आनी शुरू हो गई। जैसे-जैसे मैंने भीतर देखा मुझे अपने पर दया आने लगी और अपने से प्रेम हो गया। अब मैं अपने को इतना प्रेम करता हूं कि मैं गाली नहीं लेता। अब मैं अपने को इतना प्रेम करता हूं कि मैं क्रोधित नहीं होता। अब मैं अपने को इतना प्रेम करता हूं कि चोरी असंभव है।
बुद्ध ने यह कहा: जब भी कोई व्यक्ति अपने चित्त में धर्म को पाएगा, तो वह पाएगा कि क्रोध असंभव हो गया। गाली लेना असंभव हो गया। अपमान लेना असंभव हो गया। करना भी असंभव हो गया। जीवन एक बिलकुल ही नई दिशा में गति करना शुरू करता है। नैतिक व्यक्ति की दिशा का कोई भेद नहीं है वह अनैतिक के साथ ही खड़ा है। जिस तरफ अनैतिक आंख किए खड़ा है नैतिक व्यक्ति उस तरफ पीठ किए खड़ा है, लेकिन खड़ा वहीं है, उसके खड़े होने में कोई डायमेंशन का फर्क नहीं है, कोई दिशा का फर्क नहीं है, कोई आयाम का फर्क नहीं है। वह वहीं खड़ा है। उसकी पीठ फेर लेने में कोई दिक्कत नहीं है, जरा ही हाथ का धक्का दो उसकी पीठ फेरी जा सकती है। जरा ही उसको जोर से एक सुई चुभा दो, तो उसकी स्किनडीप जो मॉरेलिटी है, खतम हो जाएगी, वह अपने असली रूप में वापस लौट आएगा। यह तो रोज होता है।
एक आदमी को हम देखते हैं रोज मस्जिद जाता है, नमाज पड़ता है; एक आदमी को हम रोज देखते हैं गीता खोलता, पाठ करता है, तिलक लगाता है, चंदन लगाता है, सब करता है, और एक दिन हम अचानक पाते हैं कि हिंदू-मुसलमान लड़ गए। और वह नमाज पढ़ने वाला और गीता पढ़ने वाला छुरा लिए दौड़ा जा रहा है। बड़ा मुश्किल है। यह क्या हो गया इनको? ये तो बड़े नैतिक और भले आदमी थे, रोज नमाज पड़ते थे, गीता पड़ते थे, रामायण पड़ते थे, यह हो क्या गया? एक मंदिर तोड़ रहा है, दूसरा मस्जिद में आग लगा रहा है। यह हो क्या गया? इनकी नैतिकता गई कहां? इनका धर्म कहां गया? चमड़े से भी पतली नैतिकता थी वह, जरा उसको खरोंच दो खतम हो जाती है, उसमें कोई देर नहीं लगती। ऐसी नैतिकता का कोई मूल्य नहीं है। और ऐसी नैतिकता के भ्रम में मनुष्य आज तक रहा है।
मैं नीति को धर्म नहीं मानता, लेकिन धर्म को जरूर नीति मानता हूं।
समाप्‍त
(सौजन्‍य से : ओशो न्‍यूज लेटर)