स्वयं में डूबो

एक राजा ने किसी सामान्यत: स्वस्थ और संतुलित व्यक्ति को कैद कर लिया था- एकाकीपन का मनुष्य पर क्या प्रभाव होता है, इस अध्ययन के लिए। वह व्यक्ति कुछ समय तक चीखता रहा चिल्लाता रहा। बाहर जाने के लिए रोता था, सिर पटकता था- उसकी सारी सत्ता जो बाहर थी। सारा जीवन तो 'पर' से अन्य बंधा था। अपने में तो वह कुछ भी नहीं था। अकेला होना न होने के ही बराबर था।
वह धीरे-धीरे टूटने लगा। उसके भीतर कुछ विलीन होने लगा, चुप्पी आ गई। रुदन भी चला गया। आंसू भी सूख गये और आंखें ऐसे देखने लगीं, जैसे पत्थर हों। वह देखता हुआ भी लगता जैसे नहीं देख रहा है।
दिन बीते, वर्ष बीत गया। उसकी सुख सुविधा की सब व्यवस्था थी। जो उसे बाहर उपलब्ध नहीं था, वह सब कैद में उपलब्ध था। शाही आतिथ्य जो था! लेकिन वर्ष पूरे होने पर विशेषज्ञों ने कहा, 'वह पागल हो गया है।'
ऊपर से वह वैसा ही था। शायद ज्यादा ही स्वस्थ था, लेकिन भीतर?
भीतर एक अर्थ में वह मर ही गया था।
मैं पूछता हूं : क्या एकाकीपन किसी को पागल कर सकता है? एकाकीपन कैसे पागल करेगा? वस्तुत: पागलपन तो पूर्व से ही है। बाह्य संबंध उसे छिपाये थे। एकाकीपन उसे अनावृत कर देते हैं।
मनुष्य को भीड़ में खोने की अकुलाहट उससे बचने के लिए ही है।
प्रत्येक व्यक्ति इसलिए ही स्वयं से पलायन किये हुए है। पर यह पलायन स्वस्थ नहीं कहा जा सकता है। तथ्य को न देखना, उससे मुक्त होना नहीं है। जो नितांत एकाकीपन में स्वस्थ और संतुलित नहीं है, वह धोखे में है। यह आत्मवंचन कभी न कभी खंडित होगी ही और वह जो भीतर है, उसे उसकी परिपूर्ण नग्नता में जानना होगा। यह अपने आप अनायास हो जाए, तो व्यक्तित्व छिन्न-भिन्न और विक्षिप्त हो जाता है। जो दमित है, वह कभी न कभी विस्फोट को भी उपलब्ध होगा।
धर्म इस एकाकीपन में स्वयं उतरने का विज्ञान है। क्रमश: एक-एक परत उघाड़ने पर अद्भुत सत्य का साक्षात होता है। धीरे-धीरे ज्ञात होता है कि वस्तुत: हम अकेले ही हैं। गहराई में, आंतरिकता के केंद्र पर प्रत्येक एकाकी है। परिचित होते ही भय की जगह अभय और आनंद ले लेता है। एकाकीपन के घेरे में स्वयं सच्चिदानंद विराजमान है।
अपने में उतरकर स्वयं प्रभु को पा लिया जाता है। इससे कहता हूं- अकेलेपन से, अपने से भागो मत, वरन अपने में डूबो। सागर में डूब कर ही मोती पाये जाते हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

ईश्वर हमारा 'स्व'

चांद ऊपर उठ रहा है। दरख्तों को पार करता उसका मद्धिम प्रकाश रास्ते पर पड़ने लगा है और आम्र-फूलों की भीनी गंध से हवाएं सुवासित हो रही हैं।
मैं एक विचार गोष्ठी से लौटा हूं। जो थे वहां, अधिकतर युवक थे। आधुनिकता से प्रभावित और उत्तेजित। अनास्था ही जैसे उनकी आस्था है, निषेध स्वीकार है। उनमें से एक ने कहा, 'मैं ईश्वर को नहीं मानता हूं, मैं स्वतंत्र हूं।' इस एक पंक्ति से तो युग की मन:स्थिति ही प्रतिबिंबित है। सारा युग इस स्वतंत्रता की छाया में है, बिना यह जाने कि स्वतंत्रता आत्महत्या है।
क्यों है, यह आत्महत्या? क्योंकि अपने को अस्वीकार किए बिना ईश्वर को अस्वीकार करना असंभव है।
एक कहानी मैंने उनसे कही : ईश्वर के भवन पर फैली एक अंगूर की बेल थी। वह फैलते-फैलते बढ़ते-बढ़ते, आज्ञा मानते-मानते थक गई थी। उसका मन परतंत्रता से ऊब गया था और फिर एक दिन उसने भी स्वतंत्र होना चाहा था। वह जोर से चिल्लाई थी कि सारा आकाश सुन ले, 'मैं अब बढ़ूंगी नहीं!'
'मैं अब बढ़ूंगी नहीं!'
'मैं अब बढ़ूंगी नहीं!'
यह विद्रोह निश्चय ही मौलिक था, क्योंकि स्वभाव के प्रति ही था। ईश्वर ने बाहर झांक कर कहा, 'न बढ़ो, बढ़ने की आवश्यकता ही क्या है?' बेल खुश हुई, विद्रोह सफल हुआ था। वह न बढ़ने के श्रम में लग गई। पर बढ़ना न रुका, न रुका। वह बढ़ने में लगी रही और बढ़ती गई और ईश्वर यह पूर्व से ही जानता था।
यही स्थिति है। ईश्वर हमारा स्वभाव है। वह हमारा आंतरिक नियम है। उससे दूर नहीं जाया जा सकता है। वह हुए बिना कोई मार्ग नहीं है। कितना ही अस्वीकार करें, कितना ही स्वतंत्र होना चाहें उससे, पर उससे मुक्ति नहीं है, क्योंकि वह हमारा स्व है। वस्तुत: वह ही है और हम कल्पित हैं। इसलिए कहता हूं : उससे नहीं, उसमें ही मुक्ति है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

प्रकृति ही परमात्मा

मैं प्रकृति में ही परमात्मा को देखता हूं। प्रतिक्षण, प्रतिघड़ी उसका मुझे अनुभव हो रहा है। एक श्वास भी ऐसी नहीं आती-जाती है, जब उससे मिलना न हो जाता हो। जहां भी आंख पड़ती है, देखता हूं कि वह उपस्थित है और जहां भी कान सुनते हैं, पाता हूं कि उसका ही संगीत है।
वह तो सब जगह है, केवल उसे देखने भर की बात है। वह तो है, पर उसे पकड़ने के लिए आंख चाहिए। आंख के आते ही सब दिशाओं में और सब समय उपस्थित हो जाता है।
रात्रि में आकाश जब तारों से भर जाए, तो उन तारों को सोचों मत, देखो और केवल देखो। विचार न हो और मात्र दर्शन हो, तो एक बड़ा राज ,खुल जाता है और प्रकृति के द्वार से उस रहस्य में प्रवेश होता है, जो कि परमात्मा है। प्रकृति परमात्मा के अवतरण से ज्यादा कुछ भी नहीं है और जो उसके घूंघट को उठाना जानते हैं, वे ही केवल जीवन के सत्य से परिचित हो पाते हैं।
सत्य का एक युवा खोजी किसी सद्गुरु के पास था। उसने जाकर पूछा, 'मैं सत्य को जानना चाहता हूं, मैं धर्म को जानना चाहता हूं। कृपा करें और मुझे बतायें कि मैं कहां से प्रारंभ करूं?' सद्गुरु ने कहा, 'क्या पास ही पर्वत से गिरते जलप्रपात की ध्वनि सुनाई पड़ रही है?' युवक ने कहा, 'मैं तो उसे भली-भांति सुन रहा हूं।' सद्गुरु बोले, 'तब वहीं से प्रारंभ करो, वहीं से प्रवेश करो। वही द्वार है।'
सच ही प्रवेश द्वार इतना ही निकट है- पहाड़ से गिरते झरनों में, हवाओं में डोल रहे वृक्षों के पत्तों में, सागर पर नाच रही सूरज की किरणों में। पर हर प्रवेश द्वार पर पर्दा है और बिना उठाये वह उठता नहीं है। वस्तुत: वह पर्दा प्रवेश-द्वारों पर नहीं है, वह हमारी दृष्ट पर ही है और इस भांति एक परदे ने अनंत द्वारों पर परदा कर दिया है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

दिव्य प्यास

कल एक जगह बोला हूं।
कहा मैं तुम्हें असंतुष्ट करना चाहता हूं। एक दिव्य प्यास, एक अलौकिक अतृप्ति सब में पैदा हो, यही मेरी कामन है। मनुष्य जो है, उसमें तृप्त रह जाना मृत्यु है। मनुष्य विकास का अंत नहीं है। एक विकास-सोपान है। जो उसमें प्रकट है, वह अप्रकट की तुलना में कुछ भी नहीं है। जो वह है, वह उसकी तुलना में जो कि वह हो सकता है, कुछ न होने के बराबर ही है।
धर्म, तृप्ति की मृत्यु से, प्रत्येक को अतृप्ति के जीवन में जगाना चाहता है। क्योंकि उस अतृप्ति से ही उस बिंदु तक पहुंचना हो सकता है, जहां कि वास्तविक संतृप्ति है।
मनुष्य को मनुष्यता का अतिक्रमण करना है।
यह अतिक्रमण ही उसे दिव्यता में प्रवेश देता है।
यह अतिक्रमण कैसा होगा? एक परिभाषा को समझें, तो अतिक्रमण की प्रतिक्रिया भी समझ में आ जाती है।
पशुता- विचार-प्रकिया के पूर्व की स्थिति।
मनुष्यता- विचार-प्रक्रिया की स्थिति।
दिव्यता - विचार-प्रक्रिया के अतीत की स्थिति।
विचार-प्रक्रिया के घेरे के पार चलें, तो चेतना दिव्यता में पहुंच जाती है।
विचार-प्रक्रिया को पार करना मनुष्यता का अतिक्रमण कर जाना है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

आनंद और दुख


सुबह एक पत्र मिला है। किसी ने उसमें पूछा है कि जीवन दुख में घिरा है, फिर भी आप आनंद की बात कैसे करते हैं? जो है, उसे देखें तो आनंद की बात कल्पना प्रतीत होती है।
निश्चय ही जीवन दुख में घिरा है, चारों ओर दुख है; पर जो घिरा है, वह दुख नहीं है। जब तक जो घेरे है, उसे देखते रहेंगे, दुख ही मालूम होगा; पर जिस क्षण उसे देखने लगेंगे, जो घिरा है, तो उसी क्षण दुख असत्य हो जाता है।
कुल-दृष्टिं परिवर्तन की बात है। जो दृष्टिं दृष्टा को प्रकट कर देती है, वही दृष्टिं है। शेष सब अंधापन है। दृष्टा के प्रकट होते ही सब आनंद हो जाता है, क्योंकि आनंद उसका स्वरूप है। जगत फिर भी रहता है, पर दूसरा हो जाता है। आत्म-अज्ञान के कारण उसमें जो कांटे मालूम हुए थे, वे अब कांटे नहीं मालूम होते हैं।
दुख की सत्ता वास्तविक नहीं है, क्योंकि परावर्ती अनुभव से वह खंडित हो जाती है। जागने पर जैसे स्वप्न अवास्तविक हो जाता है, वैसे ही स्व-बोध पर दुख खो जाता है।
आनंद सत्य है, क्योंकि वह स्व है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

ज्ञान और शील

जीवन साधना में बीज क्या है और फल क्या है, यह जानना अत्यंत अनिवार्य है। प्रारंभ और परिणाम को पहचानना अनिवार्य है। कार्य और कारण को न जाने हुए जो चलता है, वह भूल करता है। केवल चलना ही पर्याप्त नहीं है। अकेले चलने से ही कोई नहीं पहुंचता है। दिशा और साधना-विधि का सम्यक होना जरूरी है।
साधना में केंद्रीय भी कुछ है, परिधिगत भी है। केंद्र पर प्रयास हो तो परिधि अपने से संभल जाती है। उसे पृथक संभालने का कारण नहीं है। वह केंद्र की ही अभिव्यक्ति है, वह फैल हुआ केंद्र है। इससे परिधि पर प्रयास व्यर्थ होते हैं। एक कहावत है- झाड़ी के आसपास पीटना! परिधि पर उलझना ऐसा ही है।
क्या है केंद्र, क्या है परिधि?
ज्ञान केंद्र है, शील परिधि है। ज्ञान प्रारंभ है, शील परिणाम है। ज्ञान बीज है, शील फल है। पर साधारणत: लोग का चलना विपरीत है। शील से चलकर वे ज्ञान पर पहुंचना चाहते हैं। शील को वे ज्ञान में परिणित करना चाहते हैं।
पर शील अज्ञान से पैदा नहीं किया जा सकता। शील पैदा ही नहीं किया जा सकता। पैदा किया हुआ शील, शील नहीं है। वह मिथ्या आवरण है, जिसके तले कुशील दब जाता है। चेष्टिंत शील वंचना है।
अंधेरे को दबाना-छिपाना नहीं है। उसे मिटाना है। कुशील पर शील के कागजी फूल नहीं चिपकाने हैं। उसे मिटाना है। जब वह नहीं है, तब जो आता है, वह शील है।
अज्ञान से जबरदस्ती लाया गया शील घातक है, क्योंकि उसमें जो नहीं है, वह ज्ञात होता है कि है। इस भांति जिसे लाना है, उसका आंख से ओझल हो जाना हो जाता है।
अज्ञान में सीधे शील लाने का कोई उपाय भी नहीं है, क्योंकि अज्ञान की अभिव्यक्ति ही कुशील है। कुशीलता अज्ञान ही है। बुद्ध ने कहा है, 'अण्णाणी किं काही?' जो अज्ञान में है, वह क्या कर सकता है?
शील नहीं, ज्ञान लाना है। ज्ञान ही शील बन जाता है।
ज्ञान सर्व को प्रकाशित करता है। उसके उदय से ही अज्ञान और मोह का नाश होता है। उससे ही राग और द्वेष का क्षय होता है। उससे ही मुक्ति दशा उपलब्ध होती है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जीवन एक बांसुरी

रात्रि के इस सन्नाटे में कोई बांसुरी बजा रहा है। चांदनी जम गयी-सी लगती है। सर्द एकांत रात्रि और दूर से आते बांसुरी के स्वर। स्वप्न सा मधुर! विश्वास न हो, इतना सुंदर है, यह सब।
एक बांस की पोंगरी कितना अमृत बरसा सकती है!
जीवन भी बांसुरी की भांति है। अपने में खाली और शून्य, पर साथ ही संगीत की अपरिसीम साम‌र्थ्य भी उसमें है।
पर सब कुछ बजाने वाले पर निर्भर है। जीवन वैसा ही हो जाता है, जैसा व्यक्ति उसे बनाता है। वह अपना ही निर्माण है। यह तो एक अवसर मात्र है- कैसा गीत कोई गाना चाहता है, यह पूरी तरह उसके हाथों में है। मनुष्य की महिमा यही है कि वह स्वर्ग और नर्क दोनों के गीत गाने को स्वतंत्र है।
प्रत्येक व्यक्ति दिव्य स्वर अपनी बांसुरी से उठा सकता है। बस थोड़ी सी उंगलियां भर साधने की बात है। थोड़ी सी साधना और विराट उपलब्धि है। न-कुछ करने से ही अनंत आनंद का साम्राज्य मिल जाता है।
मैं चाहता हूं कि एक-एक हृदय में कह दूं कि अपनी बांसुरी को उठा लो। समय भागा जा रहा है, देखना कहीं गीत गाने का अवसर बीत न जाए! इसके पहले कि परदा गिरे, तुम्हें अपना जीवन-गीत गा लेना चाहिए।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

मन और शांति


''मनुष्य का मन अद्भुत है। वही है, रहस्य संसार का और मोक्ष का। पाप और पुण्य, बंधन और मुक्ति, स्वर्ग और नर्क सब उसमें ही समाया हुए हैं। अंधेरा और प्रकाश सब उसी का है। उसमें ही जन्म है, उसमें ही मृत्यु है। वही है द्वार बाह्य जगत का, वही है सीढ़ी अंतस की। उसका ही न हो जाना दोनों के पार हो जाना हो जाता है।
मन सब कुछ है। सब उसकी लीला और कल्पना है। वह खो जाए, तो सब लीला विलीन हो जाती है।''
कल यही कहा था। कोई पूछने आया, 'मन तो बड़ा चंचल है, वह खोये कैसे? मन तो बड़ा गंदा है, वह निर्मल कैसे हो?'
मैंने फिर एक कहानी कही : बुद्ध जब वृद्ध हो गये थे, तब एक दोपहर एक वन में एक वृक्ष तले विश्राम को रुके थे। उन्हें प्यास लगी तो आनंद पास की पहाड़ी झरने पर पानी लेने गया था। पर झरने से अभी-अभी गाड़ियां निकली थी और उसका सब पानी गंदा हो गया था। कीचड़ ही कीचड़ और सड़े पत्ते उसमें उभर कर आ गये थे। आनंद उसका पानी बिना लिए लौट आया। उसने बुद्ध से कहा, 'झरने का पानी निर्मल नहीं है, मैं पीछे लौट कर नदी से पानी ले आता हूं।' नदी बहुत दूर थी। बुद्ध ने उसे झरने का पानी ही लाने को वापस लौटा दिया। आनंद थोड़ी देर में फिर खाली लौट आया। पानी उसे लाने जैसा नहीं लगा। पर बुद्ध ने उसे इस बार भी वापस लौटा दिया। तीसरी बार आनंद जब झरने पर पहुंचा, तो देखकर चकित हो गया। झरना अब बिलकुल निर्मल और शांत हो गया था, कीचड़ बैठ गयी थी और जल बिलकुल निर्मल हो गया था।
यह कहानी मुझे बड़ी प्रीतिकर है। यही स्थिति मन की भी है। जीवन की गाड़ियां उसे विक्षुब्ध कर जाती हैं। पर कोई यदि शांति और धीरज से उसे बैठा देखता है रहे, तो कीचड़ अपने से नीचे बैठ जाती है और सहज निर्मलता का आगमन हो जाता है। केवल धीरज की बात है और शांति प्रतीक्षा की और 'बिना कुछ किये' मन की कीचड़ बैठ सकती है।
केवल साक्षी होना है और मन निर्मल हो जाता है। मन को निर्मल करना नहीं होता है। करने से ही कठिनाई बन जाती है। उसे तो केवल किनारे पर बैठ कर देखें और फिर देखें कि क्या होता है!
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

प्रेम और प्रतीक्षा


मैं माली को बीज बोते देखता हूं। फिर, वह खाद देता है। पानी देता है और फूलों के आने की प्रतीक्षा करता है। फूल खींचकर जबरदस्ती पौधों में नहीं निकाले जाते हैं। उनकी तो धीरज से प्रतीक्षा करनी होती है।
प्रेम और प्रतीक्षा।
ऐसे ही प्रभु के बीज भी बोने होते हैं। ऐसे ही दिव्य जीवन के फूलों को खिलने की भी राह देखनी होती है।
प्रार्थना और प्रतीक्षा।
जो इसके विपरीत चलता है और अधैर्य प्रकट करता है, वह कहीं भी नहीं पहुंच पाता है। अधैर्य उस विकास के लिए अच्छी खाद नहीं है।
शांति से, धैर्य से और प्रीति से प्रतीक्षा करने पर किसी सुबह अनायास ही फूल खिल जाते हैं, और उनकी गंध जीवन के आंगन को सुवासित कर देती है।
अनंत के फूलों के लिए अनंत प्रतीक्षा अपेक्षित है। पर यह स्मरण रहे कि जो उतनी प्रतीक्षा के लिए तत्पर होता है, उसकी प्राप्ति का समय तत्क्षण आ जाता है। अनंत धैर्य ही अनंत पाने की एक मात्र शर्त है। उस शर्त के पूरा होते ही वह उपलब्ध हो जाता है। उसे कहीं बाहर से थोड़ा ही आना है। वह तो भीतर का ही विकास है। वह तो मौजूद ही है। पर अधैर्य और अशांति के कारण हम उसे नहीं देख पाते हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

समाधि

समाधि क्या है?
किसी ने कहा है : बूंद का सागर में मिल जाना।
किसी ने कहा : सागर का बूंद में उतर जाना।
मैं कहता हूं : बूंद और सागर का मिट जाना। जहां न बूंद है, न सागर है, वहां समाधि है। जहां न एक है, न अनेक है, वहां समाधि है। जहां न सीमा है, न असीम है, वहां समाधि है।
समाधि सत्ता के साथ ऐक्य है।
समाधि सत्य है। समाधि चैतन्य है। समाधि शांति है।
'मैं' समाधि में नहीं होता हूं, वरन जब 'मैं' नहीं होता हूं, तब जो है, वह समाधि है।
शायद, यह 'मैं' जो कि मैं नहीं है, वास्तविक 'मैं' है।
'मैं' की दो सत्ताएं हैं : अहं और ब्रह्मं। अहं वह है, जो मैं नहीं हूं, पर जो 'मैं' जैसा भासता है। ब्रह्मं वह है, जो मैं हूं, लेकिन जो 'मैं' जैसा प्रतीत नहीं होता है।
चेतना, शुद्ध चैतन्य ब्रह्मं है।
मैं शुद्ध शाक्षि चैतन्य हूं; पर विचार-प्रवाह से तादात्म्य के कारण वह दिखाई नहीं पड़ता है। विचार स्वयं चेतना नहीं है। विचार को जो जानता है, वह चैतन्य है। विचार विषय है, चेतना विषयी है। विषय से विषयी का तादात्म्य मूच्र्छा है। यही समाधि है। यही प्रसुप्त अवस्था है।
विचार विषय के अभाव में जो शेष है, वही चेतना है। इस शेष में ही होना समाधि है।
विचार-शून्यता में जागरण सतता के द्वार खोल देता है। सत्ता अर्थात वही 'जो है'।
उसमें जागो- यही समस्त जाग्रत पुरुषों की वाणी का सागर है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

ज्ञान


ज्ञान और 'ज्ञान' में भेद है। एक ज्ञान है- केवल जानना, जानकारी, बौद्धिक समझ। दूसरा ज्ञान है- अनुभूति, प्रज्ञा, जीवंत प्रतीति। एक मृत तथ्यों का संग्रह है, एक जीवित सत्य का बोध है। दोनों में बहुत अंतर है- भूमि और आकाश का, अंधकार और प्रकाश का। वस्तुत: बौद्धिक ज्ञान कोई ज्ञान नहीं है। वह ज्ञान का भ्रम है। क्या नेत्रहीन व्यक्ति को प्रकाश का कोई ज्ञान हो सकता है? बौद्धिक ज्ञान वैसा ही ज्ञान है।
ऐसे ज्ञान का भ्रम अज्ञान को ढक लेता है। वह आवरण मात्र है। उसके शब्दजाल और विचारों के धुएं में अज्ञान विस्मृत हो जाता है। यह अज्ञान से भी घातक है; क्योंकि अज्ञान दिखता हो, तो उससे ऊपर उठने की आकांक्षा पैदा होती है। पर वह न दिखे तो उससे ऊपर मुक्त होना संभव ही नहीं रह जाता है।
तथाकथित ज्ञानी अज्ञान में ही नष्ट हो जाते हैं।
सत्य-ज्ञान बाहर से नहीं आता है और जो बाहर से आये, जानना कि वह ज्ञान नहीं है, मात्र जानकारी ही है। ऐसे ज्ञान के भ्रम में गिरने से सावधानी रखनी आवश्यक है।
जो भी बाहर से आता है, वह स्वयं पर और परदा बन जाता है।
ज्ञान भीतर से जागता है। वह आता नहीं, जागता है और उसके लिए परदे बनाने नहीं तोड़ने होते हैं।
ज्ञान को सीखना नहीं होता है, उसे उघाड़ना होता है। सीखा हुआ ज्ञान जानकारी है, उघड़ा हुआ ज्ञान अनुभूति है।
जिस ज्ञान को सीखा जाता है, उसके आगमन से ही आचरण सहज उसके अनुकूल हो जाता है। सत्य-ज्ञान के विपरीत जीवन का होना एक असंभावना है। वैसा आज तक धरा पर कभी नहीं हुआ है।
एक कथा स्मरण आती है। एक घने वन के बीहड़ पथ पर दो मुनि थे। शरीर की दृष्टिं से वे पिता पुत्र थे। पुत्र आगे था, पिता पीछे। मार्ग था एकदम निर्जन और भयानक। अचानक सिंह का गर्जन हुआ। पिता ने पुत्र से कहा, 'तुम पीछे आ जाओ, खतरा है।' पुत्र हंसने लगा; आगे चलता था- आगे चलता रहा। पिता ने दोबारा कहा। सिंह सामने आ गया था। मृत्यु द्वार पर खड़ी थी। पुत्र बोला, 'मैं शरीर नहीं हूं, तो खतरा कहां है? आप भी तो यही कहते हैं, न?' पिता ने भागते हुए चिल्ला कर कहा, 'पागल सिंह की राह छोड़ दे।' पर पुत्र हंसता ही रहा और बढ़ता ही रहा। सिंह का हमला भी हो गया। वह गिर पड़ा था, पर उसे दिख रहा था कि जो गिरा है, वह 'मैं' नहीं हूं। शरीर वह नहीं था, इसलिए उसकी कोई मृत्यु भी नहीं थी। जो पिता कहता था, वह उसे दिख भी रहा था। वह अंतर महान है। पिता दुखी था और दूर खड़े उसकी आंखों में आंसू थे और पुत्र स्वयं मात्र दृष्टा ही रह गया था। वह जीवन दृष्टा था, तो मृत्यु में भी दृष्टा था। उसे न दुख था, न पीड़ा। वह अविचल और निर्विकार था, क्योंकि जो भी हो रहा था, वह उसके बाहर हो रहा था। वह स्वयं कहीं भी उसमें सम्मिलित नहीं था। इसलिए कहता हूं ज्ञान और ज्ञान में भेद है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

संन्यास लाया नहीं, पाया जाता है

कल रात्रि पानी पड़ा है। मौसम गीला है और अभी-अभी फिर धीमी फुहार आनी शुरू हुई है। हवाएं नम हो गयी हैं और वृक्षों से गिरते पत्तों को द्वार तक ला रही हैं। लगता है, पतझड़ हो रही है और वसंत के आगमन की तैयारी है। रास्ते पत्तों से ढक रहे हैं और उन पर चलने में सूखे पत्ते मधुर आवाज करते हैं।मैं उन पत्तों को देर तक देखता रहा हूं, जो पक जाता है, वह गिर जाता है। पत्तों पर पत्ते सुबह से शाम तक गिर रहे हैं। पर उनके गिरने से वृक्षों को कोई पीड़ा नहीं हो रही है। इससे जीवन का एक अद्भुत नियम समझ में आता है। कुछ भी कच्चा तोड़ने में कष्ट है। पकने पर टूटना अपने से हो जाता है।एक संन्यासी आये हैं। त्याग उन्हें आनंद नहीं बन पाया है। वह कष्ट है और कठिनाई है। संन्यास अपने से नहीं आया, लाया गया है। मोह के, अज्ञान के, परिग्रह के अहंकार के पत्ते अभी कच्चे थे। जबरदस्ती की है- पत्ते तो टूट गये, पर पीड़ा पीछे छोड़ गये हैं। वह पीड़ा शांति नहीं आने देती है। सोचता हूं कि आज शाम जाकर पके पत्तों के टूटने का रहस्य उन्हें बताऊं। संन्यास पहले नहीं है। ज्ञान है, प्रथम। उसकी आंख में संसार पके पत्तों की भांति गिर जाता है। संन्यास लाया नहीं जाता है, पाया जाता है।ज्ञान की भांति क्रांति के बाद त्याग कष्ट नहीं, आनंद हो जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जगत के रहस्‍य का ज्ञान ही मुक्ति है


एक परिवार में आमंत्रित था। संध्य हुए ही वहां से लौटा हूं। एक मीठी घटना वहां घटी। बहुत बच्चे उस घर में थे। उन्होंने ताश के पत्तों का एक महल बनाया था। मुझे दिखाने ले गये। सुंदर था। मैंने प्रशंसा की। गृहणी बोली, 'ताश के पत्तों के महल की भी प्रशंसा! जरा सा हवा का झोंका सब मिट्टी कर देता है।'
मैं हंसने लगा, तो बच्चों ने पूछा, 'क्यों हंसते हैं?' यह बात ही होती थी कि महल भरभरा कर गिर गया। बच्चे उदास हो गये। गृहणी बोली,'देखा!' मैंने कहा, 'देखा! पर मैंने और महल भी देखें हैं और सब महल ऐसे ही गिर जाते हैं।'
पत्थर के ठोस महल भी पत्तों के ही महल हैं। बच्चों के ही नहीं, बूढ़ों के महल भी पत्तों के ही महल होते हैं। हम सब महल बनाते हैं-कल्पना और स्वप्नों के महल और फिर हवा का एक झोंका सब मिट्टी कर जाता है। इस अर्थ में हम सब बच्चे हैं। प्रौढ़ होना कभी-कभी होता है। अन्यथा अधिक लोग बच्चे ही मर जाते हैं।
सब महल ताश के महल हैं, यह जानने से व्यक्ति प्रौढ़ हो जाता है। फिर भी वह उन्हें बनाने में संलग्न हो सकता है, पर तब सब अभिनय होता है।
यह जानना कि जगत अभिनय है, जगत से मुक्त हो जाना है।
इस स्थिति में जो पाया जाता है, वही भर किसी झोंके से नष्ट नहीं होता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जड़ से हटते ही पौधे सूख जाते हैं!

कल संध्या तक पौधे में प्राण थे। उसकी जड़े जमीन में थी और पत्तों में जीवन था। उसमें हरियाली थी और चमक थी। हवा में वह डोलता था, तो उससे आनंद झरता था। उसके पास से मैं अनेक बार गुजरा था और उसके जीवन-संगीत को अनुभव किया था।फिर कल यह हुआ कि किसी ने उसे खींच दिया, उसकी जड़े हिल गयीं और आज जब मैं उसके पास गया, तो पाया कि उसकी सांसे टूट गई हैं। जमीन से हट जाने पर ऐसा ही होता है। सारा खेल जड़ों का है। वे दिखती नहीं, पर जीवन का सारा रहस्य उन्हीं में है।पौधों की जड़े होती हैं। मनुष्य की भी जड़े होती हैं। पौधों की जमीन है। मनुष्य की भी जमीन है। पौधे जमीन से जड़ हटते ही सूख जाते हैं। मनुष्य भी सूख जाता है।आल्वेयर कामू की एक पुस्तक पढ़ता था। उसकी पहली पंक्ति है कि आत्महत्या एकमात्र महत्वपूर्ण दार्शनिक समस्या है।क्यों? क्योंकि अब मनुष्य के जीवन में कोई प्रयोजन नहीं मालूम होता है। सब व्यर्थ और निष्प्रयोजन हो गया है।हुआ यह है कि हमारी जड़े हिल गई हैं; हुआ यह है कि उस मूल जीवन-स्रोत से हमारे संबंध टूट गये हैं, जिसके अभाव में जीवन एक व्यर्थ की कहानी मात्र रह जाती है।मनुष्य को पुन: जड़ें देनी हैं और मनुष्य को पुन: जमीन देनी है। वे जड़ें आत्मा की हैं ओर जमीन धर्म की है। उतना हो सके तो मनुष्यता में फिर से फूल आ सकते हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)