अंतस की स्वतंत्रता

मनुष्य का जन्म दासता में है। हम अपने ही दास पैदा होते हैं। वासना की जंजीरों के साथ ही जगत में हमारा आना होता है। बहुत सूक्ष्म बंधन हमें बांधे हैं।

परतंत्रता जन्मजात है। वह प्रकृति प्रदत्त है। हमें उसे कमाना नहीं होता। मनुष्य पाता है कि वह परतंत्र है। पर, स्वतंत्रता अर्जित करनी होती है। उसे वही उपलब्ध होता है, जो उसके लिए श्रम और संघर्ष करता है। स्वतंत्रता के लिए मूल्य देना होता है। जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वह निर्मूल्य नहीं मिलता। प्रकृति से मिली परतंत्रता दुर्भाग्य नहीं है। दुर्भाग्य है, स्वतंत्रता को अर्जित न कर पाना। दास पैदा होना बुरा नहीं, पर दास ही मर जाना अवश्य बुरा है। अंतस की स्वतंत्रता को पाये बिना जीवन में कुछ भी सार्थकता और कृतार्थता तक नहीं पहुंचाता है। वासनाओं की कैद में जो बंद है और जिन्होंने विवेक का मुक्ताकाश नहीं जाना है, उन्होंने जीवन तो पाया, पर वे जीवन को जानने से वंचित रह गये हैं। पिंजड़े में कैद पक्षियों और वासनाओं की कैद में पड़ी आत्माओं के जीवन में कोई भेद नहीं है। विवेक जब वासना से मुक्त होता है, तभी वास्तविक जीवन के जगत में प्रवेश होता है।

प्रभु को जानना है, तो स्वयं को जीतो। स्वयं से ही जो पराजित है, प्रभु के राज्य की विजय उनके लिए नहीं है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)