सपने नहीं, सत्य देखें


एक दिन नदी के किनारे खड़ा था : देखा, कागज की एक नाव पानी में डूब गई है। कल कुछ रेत के घरौंदे बनाए थे, वे भी मिट गये हैं।
रोज नाव डूबती हैं और रोज घरौंदे टूट जाते हैं।
एक
महिला आई थीं। सपने उनके पूरे नहीं हुए हैं। जीवन से मन उनका उचाट है।
आत्‍महत्‍या के विचार ने उन्हें पकड़ लिया है। आंखों गड्ढों में धंस गई हैं और सब व्यर्थ मालूम होता है।
मैंने कहा : सपने किसके पूरे होते हैं, सब सपने अंतत: दुख देते हैं, कारण कागज की नावें बहें भी तो कितनी दूर बह सकती है। इसमें भूल सपने की नहीं है, वे तो स्वभाव से ही दुष्पूर हैं। भूल हमारी है। जो सपना देखता है, वह सोया है। जो सोया है, उसकी कोई उपलब्धि वास्तविक नहीं है। जागते ही सब पाया, न पाया हो जाने को है।
सपने नहीं, सत्य देखें। जो है, उसे देखें। उसे देखने से मुक्ति आती है। वह नाव सच्ची है- वही जीवन की परिपूर्णता तक ले जाती है।
सपनों में मृत्यु है। सत्य में जीवन है। सपने यानी निद्रा। सत्य यानी जागृति। जागें और अपने को पहचाने। जब तक स्वप्न में मन है, तब तक जो स्वप्न को देख रहा है, वह नहीं दीखता है। वही सत्य है। वही है। उसे पाते ही डूबी नाव और गिरे घरौंदों पर केवल हंसी आती है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन )