मन आनंदोमुखी है


एक साधु कल आये थे। ध्यान की साधना पर उनसे बातें हुई हैं। यह जानकार बहुत आश्चर्य होता है कि मन के स्वरूप के संबंध में कितनी भ्रांत और मिथ्या धारणाएं प्रचलित हैं। उसे शत्रु मानकर साधना प्रारंभ करने से सब साधना गलत हो जाती हैं। न मन शत्रु है, न शरीर शत्रु है। वे तो यंत्र हैं और सहयोगी हैं। चेतना उनका जैसा उपयोग करना चाहे, कर सकती है। प्रारंभ से ही शत्रुता और संघर्ष की वृत्ति-दमन करती है। और परिणाम स्वरूप सारा जीवन विषाक्त हो जाता है।
मनुष्य का मन स्वभावत: आनंदोमुखी है। इससे कुछ बुरा भी नहीं है। यह तो उसका स्वरूप के प्रति आकर्षण है। यह न हो, तो व्यक्ति कभी आत्मिक जीवन की ओर नहीं जा सकता। यह मन आनंद की खोज संसार में करता है और फिर जब उसे वहां नहीं पाता है, तो भीतर की ओर मुड़ता है।
आनंद केंद्र है-संसार का भी, मोक्ष का भी। उसकी धुरी पर ही सारा लौकिक-पारलौकिक जीवन घूमता है।
इस आनंद की झलक बाहर दिखती है, इससे बाहर दौड़ होती है। ध्यान से इस आनंद का वास्तविक स्रोत दिखने लगता है, इससे दिशा वहां मुड़ जाती है। मन को जबरदस्ती भीतर नहीं मोड़ना है। इस दमन से ही वह शत्रु मालूम होने लगता है। आनंद का नया आयाम खोलना है। इस आयाम के खुलते ही मन अपने आप भीतर जाता पाया जाता है। वह तो आनंदोमुखी है। जहां आनंद है, वहां उसकी सहज गति है।
आनंद जीवन का लक्ष्य है। आनंद-अखंड आनंद, जीवन का उद्देश्य है। संसार में उसकी झलक है- प्रतिफलन है। मोक्ष में उसका मूलस्रोत है। बाहर उसका प्रक्षेप है, भीतर उसका मूल है। परिधि पर छाया है, केंद्र उसके प्राण हैं।
इससे संसार-मोक्ष का विरोधी नहीं है। बाहर-भीतर का शत्रु नहीं है। समस्त सत्ता एक संगीत है। इस सत्य के दर्शन होते ही व्यक्ति बंधन के बाहर हो जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

स्व-अज्ञान मूर्च्‍छा है


एक पूर्णिमा की रात्रि मधुशाला से कुछ लोग नदी-तट पर नौका विहार को गये थे। उन्होंने एक नौका को खेया, अर्ध-रात्रि से प्रभात तक वे अथक पतवार चलाते रहे थे। सुबह सूरज निकला, ठंडी हवाएं बहीं तो उनकी मधु-मूर्च्‍छा टूटने लगी। उन्होंने सोचा कि अब वापस लौटना उचित है। यह देखने के लिए कि कहां तक चले आये हैं, वे नौका से तट पर उतरे। पर तट पर उतरते ही उनकी हैरानी की सीमा न रही, क्योंकि उन्होंने पाया कि नौका वहीं खड़ी है, जहां रात्रि उन्होंने उसे पाया था!
रात्रि वे भूल ही गये थे कि पतवार चलाना भर पर्याप्त नहीं है, नौका को तट से खोलना भी पड़ता है।
आज संध्या यह कहानी कही है। एक वृद्ध आये थे। वे कह रहे थे, मैं जीवन भर चलता रहा हूं, लेकिन अब अंत में ऐसा लगता है कि कहीं पहुंचना नहीं हुआ। उनसे ही यह कहानी कहनी पड़ी है। मनुष्य मू‌िर्च्छत है। स्व-अज्ञान उसकी मूच्र्छा है।
इस मूच्र्छा में समस्त कर्म उसका यांत्रिक है। इस विवेक-शून्य स्थिति में वह चलता है, जैसे कोई निद्रा में चलता है, पर कहीं पहुंच नहीं पाता है। नाव की जंजीर जैसे तट से बंधी रह गयी थी, ऐसे ही इस स्थिति में वह भी कहीं बंधा रह जाता है।
इस बंधन को धर्म ने वासना कहा है। वासना से बंधा मनुष्य, आनंद के निकट पहुंचने के भ्रम में बना रहता है। पर उसकी दौड़ एक दिन मृग-मरीचिका सिद्ध होती है। वह कितनी ही पतवार चलाये, उसकी नाव अतृप्ति के तट को छोड़ती ही नहीं है। वह रिक्त और अपूर्ण ही जीवन को खो देता है। वासना स्वरूपत: दुष्पूर है। जीवन चूक जाता है- वह जीवन जिसमें दूसरा किनारा पाया जा सकता था, वह जीवन जिसमें यात्रा पूरी हो सकती थी, व्यर्थ हो जाता है और पाया जाता है कि नाव वहीं की वहीं खड़ी है।
प्रत्येक नाविक जानता है कि नाव को सागर में छोड़ने के पहले तट से खोलना पड़ता है। प्रत्येक मनुष्य को भी जानना चाहिए कि आनंद के, पूर्णता के, प्रकाश के सागर में नाव छोड़ने के पूर्व तट वासना की जंजीरें अलग कर लेनी होती हैं। इसके बाद तो फिर शायद पतवार भी नहीं चलानी पड़ती है! रामकृष्ण ने कहा है, 'तू नाव तो छोड़, पाल तो खोल, प्रभु की हवाएं प्रतिक्षण तुझे ले जाने को उत्सुक हैं।'
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जहां मृत्यु जीवन है


आकाश आज तारों से नहीं भरा है। काली बदलियां घिरी हैं और रह-रह कर बूंदे पड़ रही हें।
रातरानी के फूल खिल गये हैं और हवाएं सुवासित हो गयी हैं।
मैं हूं ऐसा कि जैसे नहीं ही हूं और न होकर, होना पूर्ण हो गया है। एक जगत है, जहां मृत्यु जीवन है और जहां खो जाना, पा जाना है। एक दिन सोचता था, बूंद को सागर में गिरा देना है। अब पाता हूं कि यह तो सागर ही बूंद में गिर आया है।
मनुष्य का 'होना' ही उसका बंधन है। उसका शून्य होना मुक्ति है। यह 'होना' की गांठ व्यर्थ ही भटकती है। और शून्य होने का भय पूर्ण होने से रोकता है। जब तक 'न-कुछ' होने की तैयारी नहीं है, तब तक मनुष्य 'न-कुछ' ही बना रहता है। मृत्यु में उतरने का जब तक साहस नहीं है, तब तक मृत्यु में ही भटकना होता है। पर जो मृत्यु लेने को तैयार हो जाता है, वह पाता है कि मृत्यु है ही नहीं। और जो मिटने को राजी हो जाता है, वह पाता है कि उसमें कुछ है जो कि मिट ही नहीं सकता है।
ऐसा विरोध का नियम, जीवन का नियम है। इस नियम को जानना योग है। और ठीक से जान लेना उसके बाहर हो जाना है। विरोध के इस नियम का ज्ञात न होना ही भटकाता है। उसके ज्ञात हो जाने से भटकन समाप्त हो जाती है। और वह उपलब्ध होता है, जो कि यात्रा का पड़ाव नहीं, यात्रा का अंत है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

स्व में होना ही दुख-निरोध है

रात्रि घनी हो रही है। आकाश में थोड़े से तारे हैं और पश्चिम में खंडित चांद लटका हुआ है। बेला खिली है और उसकी गंध हवा में तैर रही है।
मैं एक महिला को द्वार तक छोड़कर वापस लौटा हूं। में उन्हें जानता नहीं हूं। कोई दुख उनके चित्त को घेरे है। उसकी कालिमा उनके चारों ओर एक मंडल बनकर खड़ी हो गयी है।
यह दुख मंडल उनके आते ही मुझे अनुभव हुआ था। उन्होंने भी, बिना समय खोये, आते ही पूछा था कि 'क्या दुख मिटाया जा सकता है?' मैं उन्हें देखता हूं, वे दुख की प्रतिमा मालूम होती हैं।
और सारे लोग ही धीरे-धीरे ऐसी ही प्रतिमाएं होते जा रहे हें। वे सभी दुख मिटाना चाहते हैं, पर नहीं मिटा पाते हैं, क्योंकि दुख का, उनका निदान सत्य नहीं है।
चेतना की एक स्थिति में दुख होता है। वह उस स्थिति का स्वरूप है। उस स्थिति के भीतर दुख से छुटकारा नहीं है। कारण, वह स्थिति ही दुख है। उसमें एक दुख हटायें, तो दूसरा आ जाता है। यह श्रंखला चलती जाती है। इस दुख से छूटें, उस दुख से छूटें, पर दुख से छूटना नहीं होता है। दुख बना रहता है, केवल निमित्त बदल जाते हैं। दुख से मुक्ति पाने से नहीं, चेतना की स्थिति बदलने से ही दुख निरोध होता है- दुख-मुक्ति होती है।
एक अंधेरी रात गौतम बुद्ध के पास एक युवक पहुंचा था, दुखी, चिंतित, संताप ग्रस्त। उसने जाकर कहा था, 'संसार कैसा दुख है, कैसी पीड़ा है!' गौतम बुद्ध बोले थे,'मैं जहां हूं, वहां आ जाओ, वहां दुख नहीं है, वहां संताप नहीं है।'
एक चेतना है, जहां दुख नहीं है। इस चेतना के लिए ही बुद्ध बोले थे, 'जहां मैं हूं।' मनुष्य की चेतना की दो स्थितियां हैं, अज्ञान की और ज्ञान की, पर-तादात्म्य की और स्व-बोध की। मैं जब तक 'पर' से तादात्म्य कर रहा हूं, तब तक दुख है। यह पर-बंधन ही दुख है। 'पर' से मुक्त होकर 'स्व' को जानना और स्व में होना दुख-निरोध है। मैं अभी 'मैं' नहीं हूं, इसमें दुख है। मैं वस्तुत: जब 'मैं' होता है, तब दुख मिटता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

योग का सार सूत्र

नई सुबह। नया सूरज। नयी धूप। नये फूल। सोकर उठा हूं। सब नया-नया है। जगत में कुछ भी पुराना नहीं है।
कई सौ वर्ष पहले यूनान में हेराक्लतु ने कहा था, 'एक ही नदी में दो बार उतरना असंभव है।'
सब नया है, पर मनुष्य पुराना पड़ जाता है। मनुष्य नये में जीता ही नहीं, इसलिए पुराना पड़ जाता है। मनुष्य जीता है : स्मृति में, अतीत में, मृत में। यह जीना ही है, जीवन नहीं है। यह अर्ध मृत्यु है और इस अर्ध मृत्यु को ही हम जीवन मानकर समाप्त हो जाते हैं। जीवन न अतीत में है, न भविष्य में है। जीवन तो नित्य वर्तमान में है।
वह जीवन योग से मिलता है, क्योंकि योग चिर-नवीन में जगा देता है। योग चिर-वर्तमान में जगा देता है। उसमें जागना है - 'जो है'। 'जो था' वह भी नहीं है। 'जो होगा', वह भी नहीं है और 'जो है', वह प्रकट तब होता है, जब मानव-चित्त स्मृति और कल्पना के भार से मुक्त होता है।
स्मृति मृत का संकलन है, उसमें जीवन को नहीं पाया जा सकता है। और कल्पना भी स्मृति की ही पुत्री है। वह उसकी ही प्रतिध्वनि और प्रक्षेप है। वह सब ज्ञात में भटकना है। उससे जो अज्ञात है, उसके द्वार नहीं खुलते हैं।
ज्ञात को जाने दो, ताकि अज्ञात प्रकट हो सके। मृत को जाने दो, ताकि जीवित प्रकट हो सके। योग का सार सूत्र यही है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

पूर्ण होने की इच्छा

एक वर्ष हुआ। बीती बरसात में गुलतेवरी के फूल बोये थे। वर्षा गयी तो साथ ही फूल भी चले गये थे। फिर सूखे पौधों को अलग कर दिया था। इस बार देखता हूं कि वर्षा आयी है, तो गुलतेवरी के अंकुर फिर अपने आप फूट रहे हैं। जगह-जगह भूमि को तोड़कर उन्होंने झंकना शुरू किया है। एक वर्ष तक, विगत वर्ष छूटे बीजों ने प्रतीक्षा कह है और अब उनको पुन: जन्म पाते देखना आनंदपूर्ण है। भूमि के अंधेरे में, सर्दी और गर्मी में वे प्रतीक्षा करते रहे हैं और अब कहीं जाकर उन्हें पुन: प्रकाश पाने का अवसर मिला है। इस उपलब्धि पर उन नवजात पौधों में मंगल-संगीत छाया हुआ है। उसे मैं अनुभव करता हूं।
सदियों पूर्व किसी अमृत कंठ ने गया था, 'तमसो मा ज्योतिर्गमय।' अंधेरे से प्रकाश पाने की आकांक्षा किसे नहीं है! क्या मनुष्य में, क्या प्राणी में, ऐसे बीज नहीं छिपे हैं, जो प्रकाश पाना चाहते हें? क्या वहां जन्मों-जन्मों से अवसर की प्रतीक्षा और प्रार्थना नहीं है?
प्रत्येक के भीतर छिपे हैं, ये बीज और इन बीजों से ही पूर्ण होने की प्यास उठती है। प्रत्येक के भीतर छिपी हैं, ये लपटें और ये लपटें सूरज को पाना चाहती हैं। इन बीजों को पौधों में बदले बिना कोई तृप्ति नहीं होती है। पूर्ण हुए बिना कोई मार्ग नहीं है। पूर्ण होना ही होता है, क्योंकि मूलत: प्रत्येक बीज पूर्ण ही है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

मोक्ष

मैं शांति, आनंद और मुक्ति की बातें कर रहा हूं। जीवन की ही केंद्रीय खोज है। वह पूरी हो, तो जीवन व्यर्थ हो जाता है। कल यह कह रहा था कि एक युवक ने पूछा कि क्या सभी को मोक्ष मिल सकता है? और यदि मिल सकता है, तो फिर मिल क्यों नहीं जाता?
एक कहानी मैंने उससे कही : गौतम बुद्ध के पास एक प्रभात किसी व्यक्ति ने भी यही पूछा था। उन्होंने कहा था कि जाओ और नगर में पूछकर आओ कि जीवन में कौन क्या चाहता है? वह व्यक्ति घर-घर गया और संध्या को थका-मांदा एक फेहरिस्त लेकर लौटा। कोई यश चाहता था, कोई पद चाहता था, कोई धन, वैभव, समृद्धि, पर मुक्ति का आकांक्षी तो कोई भी नहीं था! बुद्ध बोले थे कि अब बोलो, अब पूछो; मोक्ष तो प्रत्येक को मिल सकता है। वह तो है ही, पर तुम एक बार उस ओर देखो भी तो! हम तो उस ओर पीठ किये खड़े हैं।
यही उत्तर मेरा भी है। मोक्ष प्रत्येक को मिल सकता है, जैसे कि प्रत्येक बीज पौधा हो सकता है। वह हमारी संभावना है, पर संभावना को वास्तविकता में बदलना है। इतना मैं जानता हूं कि बीज को वृक्ष बनाने का यह काम कठिन नहीं है। यह बहुत ही सरल है। बीज मिटने को राजी हो जाए, तो अंकुर उसी क्षण आ जाता है। मैं मिटने को राजी हो जाऊं, तो मुक्ति उसी क्षण आ जाती है। 'मैं' बंधन है। वह गया कि मोक्ष है।
'मैं' के साथ मैं संसार में हूं, 'मैं' नहीं कि मैं ही मोक्ष हूं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

शरीर-दमन आध्यात्म नहीं है

संध्या उतर आई है और सांध्य कुसुमों की गंध उड़ने लगी है।
एक कोयल दोपहर भर कूकती रही है और अब चुप हो गयी है। वह गाती थी, तो इतनी खयाल में नहीं थी, अब मौन क्या हुई है, कि खयाल में हो आयी है। मैं उसके फिर से स्वर उठने की प्रतीक्षा कर रहा हूं कि इसी बीच एक साधु आगमन हुआ है। बाल-ब्रह्मंचारी हैं-सूखी, कृश, अस्वस्थ-सी देह है। चेहरा बुझा-बुझा और निस्तेज है। आंखों का पानी उड़ गया है। उन्हें देख बहुत दया आयी है। शरीर पर अनाचार किया है। यह मैंने उनसे कहा है। वे तो कुछ चौंक से गये हैं। इसे ही वे त्याग मानते हैं। अस्वास्थ्य जैसे आध्यात्मिकता है! कुरूपता और विकृति जैसे योग है! असौंदर्य की साधना ही जैसे जैसे साधना है! काउंट कैसरलिंग ने लिखा है, 'स्वास्थ्य आध्यात्म-विरोधी आदर्श है।' उनकी पंक्ति में इसी अज्ञान की गूंज है। यह विचार प्रतिक्रिया-जन्य है। कुछ है, जो शरीर के पीछे है, शरीर ही उन्हें सब-कुछ है। यह एक अति है। फिर इसकी प्रतिक्रिया से दूसरी अति पैदा होती है। पर दोनों ही अतियां शरीरवादी हैं। शरीर को न तो उछालते फिरना है, न उसे तोड़ते फिरना है। वह तो कुल जमा आवास है। उसका स्वस्थ और अच्छा होना आवश्यक है।
आध्यात्मिक जीवन स्वास्थ्य-विरोधी नहीं है। वह तो परिपूर्ण स्वास्थ्य है। वह तो एक लययुक्त, संगीतपूर्ण सौंदर्य की स्थिति का ही पर्यायवाची है।
शरीर-दमन आध्यात्म नहीं है। वह तो केवल भोगवादी वृत्तियों का शीर्षासन है। वह तो भोग की प्रतिक्रिया मात्र है। उसमें ज्ञान नहीं, अज्ञान और आत्म-हिंसा है। वह वृत्ति हिंसक है। उसमें कोई कहीं नहीं पहुंचता है। शरीर का दमन नहीं करना है। वह तो बेचारा उपकरण है और अनुगामी है। वह तो, मैं जैसा हूं, वैसा हो जाता है। मैं वासना हूं, तो वह वहां साथ देता है। मैं साधना हो जाऊं, तो वह वहां साथी हो जाता है। वह मेरे पीछे है। परिवर्तन उसमें नहीं- वह जिसके पीछे है, उसमें करना है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

ज्ञान, बुद्धि और स्मृति

दोपहर ढलने को है। आकाश अभी खुला था, फिर जोर की हवाएं आयीं और अब काली बदलियों में वह ढका जा रहा है।
सूरज छिप गया है और हवाओं में ठंडक है।
एक फकीर द्वार पर आया है। उसके हाथ में एक तोता है। पिंजरा नहीं है, पर दिखता है कि तोता उड़ना भूल गया चुका है। आते ही फकीर नहीं, तोता ही बोला है, 'राम कहो, राम कहो, राम.. राम..राम।' मैंने कहा, 'तोता तो अच्छा बोलता है।' फकीर बोला, 'महाराज, यह तोता बड़ा पंडित है!' यह सुन मुझे हंसी आ गयी। मैंने कहा, 'होना चाहिए, क्योंकि सभी पंडित तोते ही होते हैं!'
यह मुझे बहुत स्पष्ट दिखता है कि ज्ञान सीखने से नहीं आता है और जो सीखने से आता है, वह ज्ञान नहीं है। ज्ञान बुद्धि की उपलब्धि नहीं है। बुद्धि स्मृति है और स्मृति से नहीं, स्मृति से हट जाने से ज्ञान आता है। जो सीख जाता है, वह तोता बन जाता है। इस तोता-रटन का नाम पांडित्य है।
पांडित्य मृत तथ्यों का संग्रह है। ये तथ्य सब आधार हैं। अनुभूति में इनकी कोई जड़े नहीं होती हैं। इन मृत तथ्यों से घिरा चित्त, उसके दर्शन नहीं कर पाता है, जो कि 'है'। ये तथ्य परदा बन जाते हैं। इस परदे को हटाने पर अज्ञात का उदघाटन होता है। यह दर्शन ही ज्ञान है। सीखना नहीं- दर्शन ही ज्ञान है। ग्रंथ नहीं, तथ्य नहीं- सत्य-दृष्टिं उस उपलब्धि का मार्ग है। सत्य-दर्शन जब हो जाता है, तब पाया जाता है कि ज्ञान तो था ही, केवल उसे देख पाने की दृष्टिं हमारे पास नहीं थी। और, इस दृष्टिं को पांडित्य के संग्रह से नहीं पाया जा सकता था।
इससे आत्म-प्रवंचना भर हो सकती थी। और कुछ भी नहीं। बिना जाने ही यह अहं-तृप्ति हो सकती थी कि मैं जानता हूं। इसलिए कहा है कि यह जानना कि 'मैं जानता हूं', अज्ञान है। क्यों? क्योंकि जानने पर पाया जाता है कि मैं हूं ही नहीं। केवल ज्ञान है- न ज्ञाता है, न ज्ञेय है।
यह अद्वैत दर्शन तब होता है, जब सब छोड़कर मैं शून्य हो जाता हूं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

तीन बातें

मैं उंगलियों पर गिनी जा सकें, इतनी बातें कहता हूं:
1. मन को जानना है, जो इतना निकट है, फिर भी इतना अज्ञात है।
2. मन को बदलना है, जो इतना हठी है, पर परिवर्तित होने को इतना आतुर है।
3. मन को मुक्त करना है, जो पूरा बंधन में है, किंतु 'अभी और यहीं' मुक्त हो सकता है।
ये तीन बातें भी कहने की हैं, करना तो केवल एक ही काम है। वह है : मन को जानना। शेष दो उस एक के होने पर अपने आप हो जाती हैं। ज्ञान ही बदलाहट है, ज्ञान ही मुक्ति है।
यह कल कहता था कि किसी ने पूछा, 'यह जानना कैसे हो?'
यह जानना-जागने से होता है। शरीर और मन दोनों की हमारी क्रियाएं मू‌िर्च्छत हैं। प्रत्येक क्रिया के पीछे जागना आवश्यक है। मैं चल रहा हूं, मैं बैठा हूं या में लेटा हूं, इसके प्रति सम्यक स्मरण चाहिए। मैं बैठना चाहता हूं, इस मनोभाव या इच्छा के प्रति भी जागना है। चित्त पर क्रोध है या क्रोध नहीं है, इस स्थिति को भी देखना है। विचार चल रहे हैं या नहीं चल रहे हैं, उनके प्रति भी साक्षी होना है।
यह जागरण दमन से या संघर्ष से नहीं हो सकता है। कोई निर्णय नहीं लेना है। सद्-असद् के बीच कोई चुनाव नहीं करना है। केवल जागना है- बस जागना है। और जागते ही मन का रहस्य खुल जाता है। मन जान लिया जाता है। और केवल जानने से परिवर्तन हो जाता है। और परिपूर्ण जानने से मुक्ति हो जाती है।
इससे मैं कहता हूं कि मन की बीमारी से मुक्ति आसान है, क्योंकि यहां निदान ही उपचार है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

पांचवां आर्य सत्य

गौतम बुद्ध ने चार आर्य सत्य कहे हैं- दुख, दुख का कारण, दुख-निरोध और दुख-निरोध का मार्ग। जीवन में दुख है। दुख का कारण है। इस दुख का निरोध हो सकता है और दुख-निरोध का मार्ग है।
मैं पांचवां आर्य सत्य भी देखता हूं। और यह पांचवां इन चारों के पूर्व है। वह है, इसलिये ये चारों हैं। वह न हो, तो ये चारों भी नहीं रह सकते हैं।
यह पांचवां या प्रथम आर्य-सत्य क्या है?
वह सत्य है-दुख के प्रति मूच्र्छा। दुख है, पर हम उसके प्रति मू‌िर्च्छत हैं। इस मूच्र्छा से ही वह हमें दिखता नहीं है। इस मूच्र्छा से ही हम उसमें होते हैं, पर वह हमें संतप्त नहीं करता है। इस धुंधली सी बेहोशी में, तंद्रा में जीवन बीतता है और जो दुख था, वह झेल लिया जाता है।
इस मूच्र्छा में, अचेतन में-जो है, वह आंख में नहीं आता है और जो नहीं है, उसके स्वप्न चलते रहते हैं। वर्तमान के प्रति अंधापन होता है और भविष्य में दृष्टिं बनी रहती है। भविष्य के सुखद स्वप्नों के नशे में वर्तमान का दुख डूबा रहता है। इस विधि से दुख दिखता नहीं है और उसके पार उठने का प्रश्न भी नहीं उठता है।
एक कैदी को यदि अपने कारागृह की दीवारों और जंजीरों का बोध ही न हो, तो उसमें मुक्ति की आकांक्षा पैदा होने का प्रश्न ही कहां रहता है?
इससे इस सत्य को कि हम दुख के प्रति मू‌िर्च्छत हैं-जीवन दुख है, यह सत्य हमारी चेतना में नहीं है- इसे मैं प्रथम आर्य-सत्य कहता हूं। शेष चारों बाद में आते हैं। दुख के प्रति मेरे जागते ही उनका दर्शन होता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

मुक्ति के लिए स्वयं को खोना होगा

कल रात्रि नगर से दूर एक अमराई में बैठा था। थोड़ी सी बदलियां थीं और उनके बीच चांद निकलता-छिपता जा रहा था। प्रकाश और छाया की इस लीला में कुछ लोग देर तक मौन मेरे पास थे।
कभी- कभी बोलना कितना कठिन हो जाता है। वातावरण में जब एक संगीत घेरे होता है, तब डर लगता है कि कहीं बोलने से वह टूट न जाए। ऐसा ही कल रात हुआ। बहुत रात गये घर लौटे। राह में कोई कह रहा था कि जीवन में मौन का अनुभव पहली बार हुआ है। यह सुना था कि मौन अद्भुत आनंद है, पर जाना इसे आज है। पर आज तो यह अनायास हुआ है, फिर दुबारा यह कैसे होगा?
मैंने कहा, 'जो अनायास हुआ है, वह अनायास ही होता है। प्रयास से वह नहीं आता है।' प्रयास स्वयं अशांति है। प्रयास का अर्थ है कि जो है, उससे कुछ भिन्न चाहा जा रहा है। यह स्थिति तनाव की है। तनाव में तनाव ही पैदा होता है। अशांति में किया गया कुछ भी, अशांति ही लाता है। अशांति शांति में नहीं बदलती है। शांति चेतना की एक भिन्न स्थिति है। जब अशांति नहीं होती है, तब उसका होना होता है।
कुछ न करें, कोई प्रयास न करें, सब करना छोड़ दें और केवल देखते रह जायें। और फिर पाया जाता है कि एक नयी चेतना, एक नया प्रकाश आहिस्ता-आहिस्ता उतरता चला आ रहा है। इस नये लोक में जो पाया जाता है, वही वस्तुत: है। जो है, उसका उद्घाटन आनंद है, उसका उद्घाटन मुक्ति है। यह विराट हमारे क्षुद्र प्रयासों से नहीं, हमारे 'मैं' से नहीं, वरन् जब प्रयास नहीं होते, जब 'मैं' नहीं होता, तब आता है।
संसार में जो भी पाया जाता है, वह क्रिया से, कर्म से पाया जाता है। प्रयास वहां साधन है। 'मैं' वहां केंद्र है। प्रत्येक प्राप्ति इसलिए 'मैं' को मजबूत कर जाती है। वस्तुत: पाने में 'मैं' को मजबूत करने और फैलाने का ही सुख है। पर यह 'मैं' कभी पूरा नहीं भरता है। यह स्वभाव से दुष्पूर है। इसलिए सुख प्रतीत ही होता है, कभी उसे पाया नहीं जाता है। इससे जिन्होंने जाना, उन्होंने कहा कि संसार में दुख है। संसार में हम जो करते हैं, वही हम मुक्ति के लिये भी करते हैं। उसे भी पाने में लग जाते हैं और यहीं भूल हो जाती है। उसे पाना नहीं, वरन् अपने को खोना है। अपने को खोते ही, उसे पा लिया जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

ईश्वर की खोज

कल रात्रि नदि के तट पर था। नदी की धार चांदी के फीते की भांति दूर तक चमकती चली गयी थी। एक मछुआ डोंगी को खेता हुआ आया था और देर से बोलते हुए जल-पक्षी उसकी आवाज से चुप हो गये थे।एक मित्र साथ थे। उन्होंने एक भजन गाया था और फिर बात ईश्वर पर चली गयी थी। गीत में भी ईश्वर की खोज की बात थी। जिन्होंने इसे गया था, उनके जीवन के अनेक वर्ष ईश्वर की तलाश में ही बीते हैं। मेरा परिचय उन से कल ही हुआ था। विज्ञान के स्नातक हैं और फिर किसी दिन ईश्वर की धुन ने उन्हें पकड़ लिया था। तब से अनेक वर्ष इसी धुन में गये हैं, पर कुछ उपलब्ध नहीं हुआ है।मैं भजन सुनकर चुप था। उनकी आवाज मधुर थी और मन को छूती थी। फिर भजन के पीछे हृदय था और उस कारण गीत जीवित हो उठा था। मेरे मन में उसकी प्रतिध्वनि गूंज रही थी, पर उन्होंने इस मौन को तोड़कर अनायास पूछा था, 'यह ईश्वर की तलाश कहीं भ्रम तो नहीं है? पहले में आशा से भरा था, पर फिर धीरे-धीरे निराश होता गया हूं।' मैं फिर थोड़ी देर चुप रहा और बाद में कहा, 'ईश्वर की तलाश भ्रम ही है, क्योंकि ईश्वर खोजने का प्रश्न ही नहीं उठता। वह सदा ही उपस्थित है। पर हमारे पास, उसे देख सके, ऐसी आंखें नहीं हैं, इसलिए असली खोज सम्यक-दृष्टिं को पाने की है।'एक अंधा आदमी था। वह सूरज को खोजना चाहता था। वह खोज गलत थी। सूरज तो है ही, आंखें खोजनी है। आंखें पाते ही सूरज मिल जाता है। साधरणत: ईश्वर का तलाशी, सीधे ईश्वर को खोजने में लग जाता है। वह अपनी आंखों का विचार ही नहीं करता है। यह आधारभूत भूल परिणाम में निराशा लाती है। मेरा देखना विपरीत है।मैं देखता हूं कि असली प्रश्न मेरा है और मेरे परिवर्तन का है। मैं जैसा हूं, मेरी आंखें जैसी हैं, वही मेरे ज्ञान की और दर्शन की सीमा है। मैं बदलूं, मेरी आंखें बदलें, मेरी चेतना बदले, तो जो भी अदृश्य है, वह दृश्य हो जाता है। और फिर जो अभी हम देख रहे हैं, उसकी ही गहराई में ईश्वर उपलब्ध हो जाता है। संसार में ही प्रभु उपलब्ध हो जाता है। इसलिए मैं कहता हूं : धर्म ईश्वर को पाने का नहीं, वरन् नई दृष्टिं, नई चेतना पाने का विज्ञान है। प्रभु तो है ही, हम उसमें ही खड़े हैं, उसमें ही जी रहे हैं। पर आंखें नहीं हैं, इसलिए सूरज दिखाई नहीं देता है। सूरज को नहीं, आंखों को खोजना है। (सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

नास्तिक होना, अधार्मिक होना नहीं!


एक युवक ने आकर कहा है, 'मैं नास्तिक हो गया हूं।'
मैं उसे देखता हूं। उसे पहले से जानता हूं। जीवन-सत्य को जानने की उसकी प्यास तीव्र है। वह किसी भी मूल्य पर सत्य को अनुभव करना चाहता है। उसमें तीव्र प्रतिभा है और सतही आस्थाएं उसे तृप्त नहीं करती हैं। संस्कार, परंपरा और रूढि़यां उसे कुछ भी नहीं दे पा रही हैं। वह संदेहों और शंकाओं से घिर गया है। सारे मानसिक सहारे और धारणाएं खंडित हो गयी हैं और वह उसके एक घने नकार में डूब गया है।
मैं चुप हूं। वह दुबारा बोला है, 'ईश्वर पर से मेरी श्रद्धा हट गयी है। कोई ईश्वर नहीं है। मैं अधार्मिक हो गया हूं।'
मैं उससे कहता हूं कि यह मत कहो। नास्तिक होना, अधार्मिक होना नहीं है। वास्तविक आस्तिकता पाने के लिए नकार से गुजरना ही होता है। वह अधार्मिक होने का नहीं, वस्तुत: धार्मिक होने का प्रारंभ है। संस्कारों से, शिक्षण से, विचारों से मिली आस्तिकता कोई आस्तिकता नहीं है। जो उससे तृप्त है, वह भ्रांति में है। वह विपरीत विचारों में पलता, तो उसका मन विपरीत निर्मित हो सकता था। और फिर वह उससे ही तृप्त हो जाता।
मन पर पड़े संस्कार परिधि की, सतह की घटना है। वह मृत पर्त है। वह उधार और बासी स्थिति है। कोई भी सचमुच आत्मिक जीवन के लिये प्यासा व्यक्ति, उस काल्पनिक जल से अपनी प्यास नहीं बुझा सकता है। ओर इस अर्थ में वह व्यक्ति धन्य-भागी है। क्योंकि वास्तविक जल को पाने की खोज इसी बेबुझी प्यास से प्रारंभ होती है। ईश्वर को धन्यवाद दो कि तुम ईश्वर की धारणा से सहमत नहीं हो। क्योंकि यह असहमति ईश्वर के सत्य तक तुम्हें ले जा सकती है।
मैं उस युवक के चेहरे पर एक प्रकाश फैलता देखता हूं। एक शांति और एक आश्वासन उसकी आंखों में आ गया है। जाते समय में उससे कह रहा हूं, 'इतना स्मरण रखना कि नास्तकिता धार्मिक जीवन की शुरुआत है। वह अंत नहीं है। वह पृष्ठभूमि है, पर उस पर ही रुक नहीं जाना है। वह रात्रि है, उसमें ही डूब नहीं जाना है। उसके बाद ही, उससे ही, सुबह का जन्म होता है।'
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

दृष्टिं को भीतर ले चलना है


धूप में मंदिर कलश चमक रहे हैं। आकाश खुला है और राह पर लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है। मैं राह चलते लोगों को देखता हूं, पर न मालूम क्यों ऐसा नहीं लगता कि वे जीवित हैं। जीवन का, अस्तित्व का बोध न हो, तो किसी को जीवित कैसे कहा जा सकता है! जीवन आता है और कब व्यय हो जाता है, यह जैसे ज्ञात नहीं हो पाता है। साधरणत: जब मृत्यु की घडि़यां आती हैं, तब जीवन का बोध होता है।
एक कहानी पढ़ी थी।
एक व्यक्ति था-बिलकुल भुलक्कड़। वह भूल ही गया था कि वह जीवित है। फिर एक दिन वह सुबह उठा और उसने पाया कि वह मर गया है, तब उसे ज्ञात हुआ कि वह जीवित भी था! इस कहानी में बहुत सत्य है।
मैं इस कहानी का स्मरण कर रहा हूं। बहुत हँसी आती है कि मरकर भी किसी ने पाया है कि वह जीवित था; पर हँसी धीरी-धीरे उदासी में बदल जाती है। यह कैसी दयनीय स्थिति है!
मैं यह सोच ही रहा हूं कि कुछ लोग आ गये हैं। उन्हें देखता हूं, उनकी बातें सुनता हूं, उनकी आंखों में झांकता हूं। जीवन उनमें कहीं भी नहीं है। वे तो जैसे छाया की तरह हैं। सारा जगत छायाओं से भर गया है। अपने ही हाथों अधिक लोग प्रेत-लोक में रह रहे हैं। और इन छायाओं के भीतर जीवित आग है-जीवन है, लेकिन उन्हें इसका पता नहीं है। इस छाया-जीवन के भीतर वास्तविक जीवन है और इस प्रेत-जीवन के पार सत्य-जीवन भी है, जिसे अभी और यहीं पाया जा सकता है।
और, इसे पाने की शर्त कितनी छोटी है!
और, इसे पाने का उपाय कितना सरल है!
कल मैंने कहा है, 'दृष्टिं को भीतर ले चलना है।'
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

केवल आनंद ही नित्य है

रात्रि पानी बरसा और भीतर आ गया था। खिड़कियां बंद थी और बड़ी घुटन मालूम होने लगी थी। फिर खिड़कियां खोलीं और हवा के नये झोंकों से ताजगी बही और फिर मैं कब सो गया, कुछ पता नहीं।
सुबह एक सज्जन आये थे। उन्हें देखकर रात की घुटन याद आ गयी थी। लगा जैसे उनके मन की सारी खिड़कियां, सारे द्वार बंद हैं। एक भी झरोखा उन्होंने अपने भीतर खुला नहीं छोड़ा है, जिससे बाहर की ताजी हवाएं, ताजी रोशनी भीतर पहुंच सके। और मुझे सब बंद दिखने लगा। मैं उनसे बातें कर रहा था और मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे कि मैं दीवारों से बातें कर रहा हूं। फिर मैंने सोचा, अधिक लोग ऐसे ही बंद हैं और जीवन की ताजगी और सौंदर्य तथा नयेपन से वंचित हैं।
मनुष्य अपने ही हाथों अपने को एक कारागार बना लेता है। इस कैद में घुटन और कुंठा मालूम होती है, पर उसे मूल कारण का- ऊब और घबराहट के मूल स्रोत का पता नहीं चलता
है। समस्त जीवन ऐसे ही बीत जाता है।
जो मुक्त गगन में उड़ने का आह्लाद ले सकता था, वह एक तोते के पिंजरे में बंद सांसें तोड़ देता है।
चित्त की दीवारें तोड़ देने पर खुला आकाश उपलब्ध हो जाता है और खुला आकाश ही जीवन है। यह मुक्ति प्रत्येक पा सकता है और यह मुक्ति प्रत्येक को पा लेनी है।
यह मैं रोज कह रहा हूं, पर शायद मेरी बात सब तक पहुंचती नहीं है। उनकी दीवारें मजबूत हैं। पर दीवार कितनी भी मजबूत क्यों न हों, वे मूलत: कमजोर और दुखद हैं। उनके विरोध में यही आशा कि किरण है कि दुखद हैं। और जो दुखद है, वह ज्यादा देर टिक नहीं सकता है। केवल आनंद ही नित्य हो सकता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

'पर' में 'स्व' के दर्शन


एक साल हुए कुछ बीज बोये थे। अब उनमें फूल आ गये हैं। कितना चाहा कि फूल सीधे आ जाएं, पर फूल सीधे नहीं आते हैं। फूल लाना हो तो बीज बोने पड़ते हैं, पौधा सम्हालना पड़ता है और तब अंत में प्रतीक्षित का दर्शन होता है।
यह प्रक्रिया फूलों के संबंध में ही नहीं, जीवन के संबंध में भी सत्य है।
अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, सत्य, ब्रह्मंचर्य- ये सब जीवन-साधन के फूल हैं। कोई इन्हें सीधे नहीं ला सकता। इन्हें लाने के लिए आत्म- ज्ञान के बीज बोने पड़ते हैं। उसके आते ही ये सब अपने आप चले आते हैं।
आत्म-ज्ञान मूल है, शेष सब उसके परिणाम हैं।
जीवन के बाह्य आचार का कुरूप होना, आंतरिक सड़न का प्रतीक होता है और उसका सौंदर्य आंतरिक जीवन और संगीत की प्रतिध्वनि होती है।
इससे लक्षणों को बदलने और परिवर्तन करने से कुछ भी नहीं हो सकता है। मूलत: जहां विकार की जड़े हैं, वहीं बदलाहट करनी है।
आत्म-अज्ञान विकार की जड़ है। 'मैं कौन हूं?'- यह जानना है। यह जानते ही अभय और अद्वैत की उपलब्धि होती है। अद्वैत बोध- यह बोध कि जो मैं हूं, वही दूसरा भी है- समस्त हिंसा को जड़ से नष्ट कर देता है और परिणाम में आती है, अहिंसा। 'पर' को 'पर' जानना हिंसा है। 'पर' में 'स्व' के दर्शन अहिंसा है और अहिंसा है, धर्म की आत्मा।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

आंख बंद कर तो देखो


आंखें बंद किये बैठा था। आंखों से देखते-देखते मनुष्य आंखें बंद करके देखना ही भूलता जा रहा है। जो आंखों से दिखता है, वह उसके समकक्ष कुछ भी नहीं है, जो आंखें बंद करके दिख आता है। आंख का छोटा-सा परदा दो दुनियाओं को अलग करता और जोड़ता है।
मैं आंख बंद किये बैठा था कि एक व्यक्ति आये और पूछने लगे कि मैं क्या कर रहा था! और जब मैंने कहा कि कुछ देख रहा था, तो वे हैरान-से हो गये। शायद उन्होंने सोचा होगा कि आंखें बंद करके देखना भी क्या देखना कहा जा सकता है!
आंख खोलता हूं, तो सीमा में आ जाता हूं। आंख बंद करता हूं, तो असीम के द्वार खुल जाते हैं। इस ओर दृश्य दिखते हैं, उस ओर द्रष्टा दिखाई देता है।
एक फकीर स्त्री थी- राबिया। एक सुंदर प्रभात में किसी ने उससे कहा था, 'राबिया, भीतर झोपड़े में क्या कर रही हो? यहां आओ, बाहर देखो, प्रभु ने कैसा मनोरम प्रभात को जन्म दिया है।' राबिया ने भीतर से कहा था, 'तुम बाहर जिस प्रभात को देख रहे हो, मैं भीतर उसके ही बनाने वाले को देख रही हूं। मित्र, तुम ही भीतर आ जाओ और जो यहां है, उस सौंदर्य के आगे बाहर के किसी सौंदर्य का कोई अर्थ नहीं है।'
पर कितने हैं, जो आंख बंद करके भी बाहर ही नहीं बने रहेंगे? अकेले आंख बंद करने से ही आंख बंद नहीं होती है। आंख बंद है, पर चित्र बाहर के ही बन जाते हैं। पलक बंद हैं, पर दृश्य बाहर के ही उतरे जा रहे हैं। यह आंख का बंद होना नहीं है। आंख के बंद होने का अर्थ है : शून्यता, स्वप्नों से, विचारों से मुक्ति। विचार और दृश्य के विलीन होने से आंख बंद होती हैं। और फिर जो प्रकट होता है, वह शाश्वत चैतन्य है। वही है सत्, वही है चित्त, वही है आनंद। इन आंखों का सब खेल है। आंख बदली और सब बदल जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

शून्य-स्मरण

एक कहानी है।
एक अविवाहित युवती को पुत्र उत्पन्न हो गया था। उसके प्रियजन घबरा गये थे। उन्होंने उससे गर्भ का कारण पूछा। वह बोली कि गांव के बाहर ठहरे हुए साधु ने उसका शील भंग किया है। उसके क्रोधित प्रियजनों ने साधु को घेरकर बहुत बुरा-भला कहा। उस साधु ने सब शांति से सुना और कहा, 'ऐसा है क्या?' वह केवल इतना ही बोला था और बच्चे के पालन का भार उसने अपने ऊपर ले लिया था। पर घर लौटकर उस लड़की को पश्चाताप हुआ और उसने यथार्थ बात कह दी। उसने बता दिया कि उसने साधु को तो इसके पूर्व कभी देखा ही नहीं था; लड़के के असली पिता को बचाने के लिए उसने झूठी बात कह दी थी। उसके परिवार के लोग बहुत दुखी हुए। उन्होंने जाकर साधु से क्षमा मांगी। साधु ने सारी बात शांति से सुनी और कहा, 'ऐसा है क्या?'
जीवन में शांति आ जाए, तो यह सारा जगत और जीवन एक अभियान से ज्यादा कुछ भी नहीं रह जाता है। में केवल एक अभिनेता हो जाता हूं। बाहर कहानी चलती जाती है और भीतर शून्य घिरा रहता है। इस स्थिति को पाकर ही संसार की दासता से मुक्ति होती है।
मैं दास हूं, क्योंकि जो भी बाहर से आता है, उससे उद्विग्न होता हूं। कोई भी बाहर से मेरे भीतर को बदल सकता है। मैं इस भांति परतंत्र हूं। बाहर से मुक्ति हो जाये- बाहर कुछ भी हो पर मैं भीतर वही रह सकूं, जो कि हूं, तो स्व का और स्वतंत्रता का प्रारंभ होता है।
यह मुक्ति, शून्य उपलब्धि से शुरू होती है। शून्य होना है। शून्य अनुभव करना है। उठते-बैठते, चलते-सोते जानना है कि मैं शून्य हूं और इसका स्मरण रखना है। शून्य को स्मरण रखते-रखते शून्य होना हो जाता है। श्वास-श्वास में शून्य भर जाता है। भीतर शून्य आता है, तो बाहर सरलता आ जाती है। शून्यता ही साधुता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

धर्म अमूर्च्‍छा है

कल एक मंदिर के द्वार पर खड़ा था। धूप जल रही थी और वातावरण सुगंधित था। फिर पूजा की घंटी बजने लगी और आरती का दीप मूर्ति के सामने घूमने लगा। कुछ भक्तजन इकट्ठे थे। वह सब आयोजन सुंदर था और एक सुखद तंद्रा पैदा करता था। लेकिन उन आयोजनों से धर्म का कोई संबंध नहीं है।
किसी मंदिर, किसी मस्जिद, किसी गिरजे का धर्म से कोई नाता नहीं है। सब मूर्तियां पत्थर हैं और सब प्रार्थनाएं दीवारों से की गयी बातचीत के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं।
लेकिन इन सब से सुख मिलता मालूम होता है! और वही खतरा है, क्योंकि उसी के कारण प्रवंचना प्रारंभ होती है और प्रगाढ़ होती है। उस सुख के भ्रम में ही सत्य का आभास पैदा होता है। सुख मिलता है, मूर्च्‍छा से- अपने को भूल जाने और स्व की वास्तविकता से पलायन करने से। मदक द्रव्यों का सुख भी ऐसे ही पलायन से मिलता है। धर्म के नाम पर मूर्च्‍छा के सब प्रयोग भी मादक द्रव्यों जैसे ही मिथ्या सुख लाते हैं। सुख धर्म नहीं, क्योंकि वह दुख का अंत नहीं, केवल विस्मृति है।
फिर धर्म क्या है?
धर्म स्व से पलायन नहीं, स्व के प्रति जागरण है। इस जागरण का किसी बाह्य आयोजन से कोई वास्ता नहीं है। यह तो भीतर चलने और चैतन्य को उपलब्ध करने से संबंधित है।
मैं जागूं और साक्षी बनूं- जो है, उसके प्रति चेतन बनूं- बस, धर्म इतने से ही संबंधित है।
धर्म अमूर्च्‍छा है।
और अमूर्च्‍छा आनंद है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

चित्त-वृत्ति निरोध


एक चित्र देखकर लौटा हूं। परदे पर प्रेक्षेपित विद्युत-चित्र कितना मोह लेता है, यह देखकर आश्चर्य होता है। जहां कुछ भी नहीं है, वहां सब कुछ हो जाता है। दर्शकों को देखता था, लगता था कि वे अपने को भूल गये हैं। वे अब नहीं हैं और केवल विद्युत-चित्रों का प्रवाह ही सब-कुछ है।
एक कोरा परदा सामने है और पा‌र्श्व से चित्रों का प्रक्षेपण हो रहा है। जो देख रहा है, उनकी दृष्टिं सामने है और पीछे का किसी को कोई ध्यान नहीं है।
इस तरह लीला को जन्म मिलता है। मनुष्य के भीतर और मनुष्य के बाहर भी यही होता है।
एक प्रक्षेप-यंत्र मनुष्य के मन की पा‌र्श्व-भूमि में है। मनोविज्ञान इस पा‌र्श्व को अचेतन कहता है। इस अचेतन में संग्रहीत वृत्तियां, वासनाएं, संस्कार चित्त के परदे पर प्रक्षेपित होते रहते हैं। यह चित्त-वृत्तियों का प्रवाह प्रतिक्षण बिना विराम चलता रहता है। चेतना दर्शक है, साक्षी है-वह इस वृत्ति-चित्रों के प्रवाह में अपने को भूल जाती है। यह विस्मरण अज्ञान है। यह अज्ञान, मूल है संसार का, भ्रमण का, जन्म-जन्म के चक्र का। इस अज्ञान से जागना चित्त-वृत्तियों के निरोध में होता है। चित्त जब वृत्ति-शून्य होता है, परदे पर जब चित्रों का प्रवाह रुकता है, तब ही दर्शक को अपनी याद आती है और वह अपने गृह को लौटता है।
चित्त-वृत्तियों के इस निरोध को ही पतंजलि ने योग कहा है। यह साधते ही सब सध जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

धूल का परदा


एक कोने में पड़ा हुआ बहुत दिनों का दर्पण मिला है। धूल ने उसे पूरा का पूरा छिपा रखा है। दिखता नहीं है कि वह अब दर्पण है और प्रतिबिंब को पकड़ने में समर्थ होगा। धूल सब-कुछ हो गयी है। और दर्पण न-कुछ हो गया है। प्रकटत: धूल ही है और दर्पण नहीं है। पर क्या सच ही धूल में छिपकर दर्पण नष्ट हुआ है? दर्पण अब भी दर्पण है, उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ है। धूल ऊपर है और दर्पण में नहीं है। धूल एक परदा बन गयी है। पर परदा केवल आवेष्टिंत करता है, नष्ट नहीं। और इस पर्दे के हटते ही- जो है, वह पुन: प्रकट हो जाता है।
एक व्यक्ति से यह कहा है कि मनुष्य की चेतना भी इसी दर्पण की भांति ही है। वासना की धूल है, उस पर। विकारों का परदा है, उस पर। विचारों की परतें हैं, उस पर। पर चेतना के स्वरूप में इससे कुछ भी नहीं हुआ है।
वह वही है। वह सदा वही है। परदा हो या न हो, उसमें कोई परिवर्तन नहीं है। सब परदे ऊपर हैं, इसलिए उन्हें खींच देना और अलग कर देना कठिन नहीं है। दर्पण पर से धूल झाड़ने से ज्यादा कठिन चेतना पर से धूल को झाड़ देना नहीं है।
आत्मा को पाना आसान है, क्योंकि बीच धूल के एक झीने परदे के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। और परदे के हटते ही ज्ञात होता है कि आत्मा ही परमात्मा है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

मन के साक्षी बनो


एक युवक ने कल रात्रि पूछा था, 'मैं अपने मन से लड़ रहा हूं, पर शांति उपलब्ध नहीं होती है। मैं क्या करूं कि मन के साथ की शांति पा सकूं?'
मैंने कह, 'अंधेरे के साथ कोई कुछ नहीं कर सकता। वह है ही नहीं। वह केवल प्रकाश का न होना है, इसलिए उससे लड़ना अज्ञान है। ऐसा ही मन है। वह भी नहीं है, उसकी भी कोई स्व-सत्ता नहीं है। वह आत्मबोध का अभाव है, ध्यान का अभाव है। इसलिए उसके साथ भी सीधे कुछ नहीं किया जा सकता। अंधेरा हटाना हो, तो प्रकाश लाना होता है और मन को हटाना हो, तो ध्यान लाना होता है। मन को नियंत्रित नहीं करना है, वरन् जानना है कि वह है ही नहीं। यह जानते ही उससे मुक्ति हो जाती है।'
उसने पूछा, 'यह जानना कैसे हो?'
'यह जानना साक्षी चैतन्य से होता है। मन के साक्षी बनें। जो है- उसके साक्षी बनें। कैसे होना चाहिए, इसकी चिंता छोड़ दें। जो है, जैसा है, उसके प्रति जागें, जागरूक हों। कोई निर्णय न लें, कोई नियंत्रण न करें, किसी संघर्ष में न पड़े। बस, मौन होकर देखें। देखना ही- यह साक्षी होना ही मुक्ति बन जाता है।'
साक्षी बनते ही चेतना दृश्य को छोड़ द्रष्टा पर स्थिर हो जाती है। इस स्थिति में अकंप प्रज्ञा की ज्योति उपलब्ध होती है और यही ज्योति मुक्ति है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

साधुता क्या है?


यह प्रश्न अनेकों के मन में है। वस्त्र और बाह्य रूप से साधुता का संबंध होता, तो यह प्रश्न उठता ही नहीं। निश्चित ही साधुता बाह्य सत्य नहीं है, कुछ आंतरिक सत्य है। यह आंतरिक सत्य क्या है?
साधुता अपने में होना है। साधारणतया मनुष्य अपने से बाहर है। एक क्षण भी वह अपने में नहीं है। सब के साथ है, पर वह अपने साथ नहीं है। यह स्व से अलगाव ही असाधुता है। स्व में लौटना, स्वरूप में प्रतिष्ठित होना, स्वस्थ होना साधुता है। आध्यात्मिक अस्वास्थ्य असाधुता है, स्वास्थ्य साधुता है।
मैं बाहर हूं, तो सोया हुआ हूं। बाह्य 'पर' है, मूच्र्छा है। 'पर' पकड़े हुए है। 'पर' ही ध्यान में है। 'स्व' ध्यान से बाहर है। यही निद्रा है। महावीर ने कहा, 'सुत्ता अमुणी'- जो सोता है, सो अमुनि है। इस 'पर' की परतंत्रता से 'स्व' की स्वतंत्रता में जागना साधु होना है। यह साधुता पहचानी कैसे जाती है?
यह साधुता शांति से, आनंद से, सम्यकत्व से पहचानी जाती है।
एक साधु था, संत फ्रांसिस। वह अपने शिष्य लियो के साथ यात्रा पर था। वे सेंट मेरिनो जा रहे थे। राह में आंधी-वर्षा आयी। वे भीग गये और कीचड़ से लथपथ हो गये। रात घिर आयी थी और दिनभर की भूख और थकान ने उन्हें पकड़ लिया था। गांव अभी दूर था और आधी रात के पूर्व पहुंचना संभव नहीं था। तभी फ्रांसिस ने कहा, 'लिया, वास्तविक साधु कौन है? वह नहीं जो अंधों को आंखें दे सकता है, बीमारों को स्वास्थ्य दे सकता है और मृतकों को भी जिला सकता है। वह वास्तविक साधु नहीं है।' थोड़ी देर सन्नाटा रहा और फिर फ्रांसिस ने कहा, 'लियो, वास्तविक साधु वह नहीं है, जो पशुओं, पौधों और पत्थरों की भाषा समझ ले। सारे जगत का ज्ञान भी जिसे उपलब्ध हो, वह भी वास्तविक साधु नहीं है।' फिर थोड़ी देर सन्नाटा रहा। वे दोनों अंधी-पानी में चलते रहे। सेंट मेरिनो के दिये दिखाई पड़ने लगे थे। संत फ्रांसिस ने फिर कहा, 'और वह भी वास्तविक साधु नहीं है, जिसने अपना सब कुछ त्याग दिया है।'
अब लियो से रहा न जा सका। उसने पूछा, 'फिर वास्तविक साधु कौन है?'
संत फ्रांसिस ने कहा था, 'हम मेरिनो पहुंचने को हैं। सराय के बाहर, द्वार को हम खटखटाएंगे। द्वारपाल पूछेगा, 'कौन हो?' और हम कहेंगे कि तुम्हारे ही दो बंधु- दो साधु। और यदि वह कहे, 'भिखारियों, भिखमंगों, मुफ्तखोरों, यहां से भाग जाओ, यहां तुम्हारे लिये कोई स्थान नहीं है।' ओर द्वार बंद कर ले। हम भूखे, थके और कीचड़ से भरे आधी रात में बाहर खड़े रहें और फिर द्वार खटखटायें। वह अब की बार बाहर निकलकर लकड़ी से हमें चोट करे और कहे, 'बदमाशों, हमें परेशान मत करो।' और यदि हमारे भीतर कुछ भी न हो, वहां सब शांत और शून्य बना रहे और उस द्वारपाल में भी हमें प्रभु दिखता रहे, तो यही वास्तविक साधुता है।'
निश्चय ही सब परिस्थितियों में अखंडित शांति, सरलता और समता को उपलब्ध कर लेना ही साधुता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

आत्मा कालातीत है


कोई पूछता था, 'आत्मा को कैसे पाया जाए? ब्रह्मं-उपलब्धि कैसे हो सकती है?'
आत्मा को पाने की बात ही मेरे देखे गलत है। वह प्राप्तव्य नहीं है। वह तो नित्य प्राप्त है। वह कोई वस्तु नहीं, जिसे लाना है। वह कोई लक्ष्य नहीं, जिसको साधना है। वह भविष्य में नहीं है कि उस तक पहुंचना है। वह है। 'है' का ही वह नाम है। वह वर्तमान है-नित्य वर्तमान। उसमें अतीत और भविष्य नहीं है। उसमें 'होना' नहीं है। वह शुद्ध नित्य अस्तित्व है।
फिर खोना किस स्तर पर हो गया है या खोने के आभास और पाने की प्यास कहां आ गयी है?
मैं को समझ लें तो जो आत्मा खोई नहीं जा सकती है, उसका खोना समझना आ सकता है। 'मैं' आत्मा नहीं है। न 'स्व' आत्मा है, न 'पर' आत्मा है। यह द्वैत वैचारिक है। यह द्वैत मन में है। मन आभास सत्ता है। वह कभी वर्तमान में नहीं होता है। वह या तो अतीत में होता है, या भविष्य में। न अतीत की सत्ता है, न भविष्य की। एक न हो गया है, एक अभी हुआ नहीं है। एक स्मृति में है, एक कल्पना में है। सत्ता में दोनों नहीं हैं। इस असत्ता से 'मैं' का जन्म होता है। 'मैं' विचार की उत्पत्ति है। काल भी विचार की उत्पत्ति है। विचार के कारण, 'मैं' के कारण, आत्मा आवरण में है। वह है, पर खोयी मालूम होती है। फिर यही 'मैं' यही विचार-प्रवाह इस तथाकथित खोयी आत्मा को खोजने चलता है। यह खोज असंभव है, क्योंकि इस खोज से 'मैं' और पुष्ट होता है- सशक्त होता है।
'मैं' के द्वारा आत्मा को खोजना, स्वप्न के द्वारा जागृति को खोजने जैसा है। 'मैं' के द्वारा नहीं, 'मैं' के विसर्जन से उसको पाना है। स्वप्न के जाते ही जागृति है, 'मैं' के जाते ही आत्मा है। आत्मा शून्यता है, क्योंकि पूर्णता है। उसमें 'स्व', 'पर' नहीं है। वह अद्वैत है। वह कालातीत है। विचार के, मन के जाते ही जाना जाता है कि उसे कभी खोया नहीं था।
इसलिए उसे खोजना नहीं है। खोज छोड़नी है और खोजने वाले को छोड़ना है। खोज और खोजी के मिटते ही खोज पूरी हो जाती है। 'मैं' को खोकर उसे पा लिया जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

मनुष्य के साथ क्या हो गया है?

मैं सुबह उठता हूं। देखता हूं, गिलहरियों को दौड़ते, देखता हूं, सूरज की किरणों में फूलों को खिलते, देखता हूं, संगीत से भरी प्रकृति को। रात्रि सोता हूं। देखता हूं, तारों से झरते मौन को, देखता हूं, सारी सृष्टिं पर छा गयी आनंद-निंद्रा को। और फिर, अपने से पूछने लगता हूं कि मनुष्य को क्या हो गया है?
सब कुछ आनंद से तरंगित है, केवल मनुष्य को छोड़कर। सब कुछ आनंद से आन्दोलित है, केवल मनुष्य को छोड़ कर। सब दिव्य शांति में विराजमान है, केवल मनुष्य को छोड़ कर।
क्या मनुष्य इस सब का भागीदार नहीं है? क्या मनुष्य कुछ पराया है? अजनबी है?
पर परायापन अपने हाथों लाया गया है। यह टूट अपने हाथों पैदा की गई है। स्मरण आती है, बाइबिल की पुरानी कथा। मनुष्य 'ज्ञान का फल' खाकर आनंद के राज्य से बहिष्कृत हो गया है। यह कथा कितनी सत्य है। ज्ञान ने, बुद्धि ने, मन ने मनुष्य को जीवन से तोड़ दिया है। वह सत्ता में हो कर सत्ता से बाहर हो गया है।
ज्ञान को छोड़ते ही, मन से पीछे हटते ही, एक ये लोक का उदय होता है। उसमें हम प्रकृति से एक हो जाते हैं। कुछ अलग नहीं होता है, कुछ भिन्न नहीं होता है। सब एक शांति में स्पंदित होने लगता है।
यह अनुभूति ही 'ईश्वर' है।
ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है। ईश्वर की कोई अनुभूति नहीं होती है, वरन् एक अनुभूति का नाम ही ईश्वर है। 'उसका' कोई साक्षात नहीं है, वरन् एक साक्षात का ही वह नाम है।
इस साक्षात में मनुष्य स्वस्थ हो जाता है। इस अनुभूति में वह अपने 'घर' आ जाता है। इस प्रकाश में वह फूलों और पत्तियों के सहज-स्फूर्त आनंद का साझीदार होता है। इस एक ओर से वह मिट जाता है और दूसरी ओर सत्ता को पा लेता है। यह उसकी मृत्यु भी है और उसका जीवन भी है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

शांति

एक स्वामी आये थे। वर्षो से संन्यासी हैं। मैंने पूछा : 'संन्यास क्यों लिया?' बोले, 'शांति चाहता हूं।'
सोचता हूं कि क्या शांति भी चाही जा सकती है? क्या 'चाहने' और 'शांति' में विरोध नहीं है? उनसे यह कहा भी।
कुछ हैरान से हो गये थे। बोले, 'फिर क्या करें?'
मैं हंसने लगा। कहा : 'क्या करने में भी चाह छिपी नहीं बैठी है?'
प्रश्न कुछ करने का नहीं है। शांति के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता है। वह चाह का अंग नहीं है। उसे चाहना व्यर्थ है। असल में अशांति को समझना आवश्यक है। अशांति क्या है, यह जानना है- शास्त्रों से नहीं, स्वयं से। शास्त्रों को जानने से ही शांति की चाह पैदा होती है। और तब 'क्या करने' का प्रश्न उठता है।
उन स्वामी ने कहा, 'अशांति वासना के कारण है- चाह के कारण है। तृष्णा न हो जाये, तो शांति है।'
मैंने कहा, 'यह उत्तर शास्त्र से है, स्वयं से नहीं- अन्यथा शांति चाहता हूं, ऐसा कहना संभव न होता।' तृष्णा ही अशांति है- चाह ही अशांति है, तो शांति को कैसे चाहा जा सकता है? अशांति हो जाने, स्वानुभव से उसके प्रति जागें-निर्दोष, निष्पक्ष मन से उसे समझें। यह समझ अशांति की जड़ों को सामने ला देगा। अशांति का मूल वासना है, यह दिखेगा और यह दिखना ही अशांति का विसर्जन बन जाता है।
अशांति का ज्ञान ही उसकी मृत्यु है। उसका जीवन अंधेरे में और अंधेपन में ही संभव है। ज्ञान का प्रकाश आते ही उसकी समाप्ति है। अशांति के विसर्जन पर जो बच रहता है, वह शांति है। शांति अशांति के विपरीत नहीं चाही जाती है।
वह उसकी विरोधी नहीं है। वह है, उसका न हो जाना। इसलिए शांति को नहीं खोजना है, केवल अशांति को जानना है। सीखा हुआ शास्त्र ज्ञान, इस ज्ञान में बाधा बन जाता है। क्योंकि बंधे-बंधाये उत्तर स्वानुभूति के पूर्व उधार निष्कर्षो से चित्त को भर देते हैं। इन उधार निष्कर्षो से कोई परिवर्तन नहीं होता है। स्वानुभूति ही मार्ग है। प्रत्येक व्यक्ति को आत्मिक जीवन में उधार ज्ञान के बोझ को उतारकर चलना होता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

ईश्वर

ईश्वर क्या है?
यह प्रश्न कितनों के मन में नहीं है! कल एक युवक पूछ रहे थे। और यह बात ऐसे पूछी जाती है, जैसे कि ईश्वर कोई वस्तु है- खोजने वाले से अलग और भिन्न और जैसे उसे अन्य वस्तुओं की भांति पाया जा सकता है। ईश्वर को पाने की बात ही व्यर्थ है- और उसे समझने की भी। क्योंकि वह मेरे आरपार है। मैं उसमें हूं और ठीक से कहें तो 'मैं' हूं ही नहीं, केवल वही है।
ईश्वर 'जो है' उसका नाम है। वह सत्ता के भीतर 'कुछ' नहीं है; स्वयं सत्ता है। उसका अस्तित्व भी नहीं है, वरन अस्तित्व ही उसमें है। वह 'होने' का अस्तित्व का, अनाम का नाम है।
इससे उसे खोजा नहीं जाता है, क्योंकि मैं भी उसी में हूं। उसमें तो खोया जाता है और खोते ही उसका पाना है।
एक कथा है। एक मछली सागर का नाम सुनते-सुनते थक गयी थी। एक दिन उसने मछलियों की रानी से पूछा : 'मैं सदा से सागर का नाम सुनती आयी हूं, पर सागर है क्या? और कहां है?' रानी ने कहा, 'सागर में ही तुम्हारा जन्म है, जीवन है और जगत है। सागर ही तुम्हारी सत्ता है। सागर ही तुम में है और तुम्हारे बाहर है। सागर से तुम बनी हो और सागर में ही तुम्हारा अंत है। सागर प्रतिक्षण तुम्हें घेरे हुए है।'
ईश्वर प्रत्येक को प्रतिक्षण घेरे हुए है। पर हम मूर्छित हैं, इसलिए उसका दर्शन नहीं होता है। मूच्र्छा जगत है, संसार है। अमूच्र्छा ईश्वर है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जीने का आनंद


टिक..टिक..टिक.. घड़ी फिर से चलनी शुरू हो गयी है। वह अपने में तो चलती ही थी, मेरे लिये बंद हो गई थी या ठीक हो कि कहूं कि मैं ही वहां के प्रति बंद हो गया था, जहां कि उसका चलना है।
एक दूसरे समय में चला गया था। आंखें बंद किये बैठा था और भीतर देखता था, देखता रहा-काल का एक और ही क्रम था। ओर फिर काल-क्रम टूट गया था।
समय के बाहर खिसक जाने में कैसा आनंद आता है! चित्त पर चित्र बंद हो जाते हैं। उनका होना ही काल है। वह मिटे कि काल मिटा और फिर शुद्ध वर्तमान ही रह जाता है। वर्तमान कहने को समय का अंग है। वस्तुत: वह काल-क्रम के बाहर है, अतीत है। उसमें होना 'स्व' में होना है। उस जगत से अब लौटा हूं। सब कितना शांत है। दूर किसी पक्षी का गीत चल रहा है, पड़ोस में कोई बच्चा रोता है और एक मुर्गा बोल रहा है।
ओह, जीना कितना आनंदप्रद है। क्योंकि जीवन उसमें भी समाप्त नहीं होता है। वह जीवन की एक स्थिति है। जीवन उसके पूर्व भी है और उसके पश्चात भी है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)