शांति

एक स्वामी आये थे। वर्षो से संन्यासी हैं। मैंने पूछा : 'संन्यास क्यों लिया?' बोले, 'शांति चाहता हूं।'
सोचता हूं कि क्या शांति भी चाही जा सकती है? क्या 'चाहने' और 'शांति' में विरोध नहीं है? उनसे यह कहा भी।
कुछ हैरान से हो गये थे। बोले, 'फिर क्या करें?'
मैं हंसने लगा। कहा : 'क्या करने में भी चाह छिपी नहीं बैठी है?'
प्रश्न कुछ करने का नहीं है। शांति के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता है। वह चाह का अंग नहीं है। उसे चाहना व्यर्थ है। असल में अशांति को समझना आवश्यक है। अशांति क्या है, यह जानना है- शास्त्रों से नहीं, स्वयं से। शास्त्रों को जानने से ही शांति की चाह पैदा होती है। और तब 'क्या करने' का प्रश्न उठता है।
उन स्वामी ने कहा, 'अशांति वासना के कारण है- चाह के कारण है। तृष्णा न हो जाये, तो शांति है।'
मैंने कहा, 'यह उत्तर शास्त्र से है, स्वयं से नहीं- अन्यथा शांति चाहता हूं, ऐसा कहना संभव न होता।' तृष्णा ही अशांति है- चाह ही अशांति है, तो शांति को कैसे चाहा जा सकता है? अशांति हो जाने, स्वानुभव से उसके प्रति जागें-निर्दोष, निष्पक्ष मन से उसे समझें। यह समझ अशांति की जड़ों को सामने ला देगा। अशांति का मूल वासना है, यह दिखेगा और यह दिखना ही अशांति का विसर्जन बन जाता है।
अशांति का ज्ञान ही उसकी मृत्यु है। उसका जीवन अंधेरे में और अंधेपन में ही संभव है। ज्ञान का प्रकाश आते ही उसकी समाप्ति है। अशांति के विसर्जन पर जो बच रहता है, वह शांति है। शांति अशांति के विपरीत नहीं चाही जाती है।
वह उसकी विरोधी नहीं है। वह है, उसका न हो जाना। इसलिए शांति को नहीं खोजना है, केवल अशांति को जानना है। सीखा हुआ शास्त्र ज्ञान, इस ज्ञान में बाधा बन जाता है। क्योंकि बंधे-बंधाये उत्तर स्वानुभूति के पूर्व उधार निष्कर्षो से चित्त को भर देते हैं। इन उधार निष्कर्षो से कोई परिवर्तन नहीं होता है। स्वानुभूति ही मार्ग है। प्रत्येक व्यक्ति को आत्मिक जीवन में उधार ज्ञान के बोझ को उतारकर चलना होता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)