रुको मत- चले चलो!


किसी भी मनुष्य ने जो ऊंचाइयां और गहराइयां छुई हैं, वह कोई भी अन्य मनुष्य कभी भी छू सकता है। और, जो ऊंचाइयां और गहराइयां अभी तक किसी न भी स्पर्श नहीं की हैं, उन्हें अभी भी मनुष्य स्पर्श कर सकेगा। स्मरण रखना कि मनुष्य की शक्तियां अनंत हैं।
मैं प्रत्येक मनुष्य के भीतर अनंत शक्तियों को प्रसुप्त देखता हूं। इन शक्तियों में से अधिक शक्तियां सोई ही रह जाती हैं और हमारे जीवन के सोने की अंतिम रात्रि आ जाती है। हम इन शक्तियों और संभावनाओं को जगा ही नहीं पाते। इस भांति हम में से अधिकतम लोग आधे ही जीते हैं या उससे से भी कम। हमारी बहुत-सी शारीरिक और मानसिक शक्तियां अधूरी ही उपयोग में आती हैं और आध्यात्मिक शक्तियां तो उपयोग में आती ही नहीं। हम स्वयं में छिपे शक्ति-स्रोतों को न्यूनतम ही खोदते हैं और यही हमारी आंतरिक दरिद्रता का मूल कारण है। विलियम जेम्स ने कहा है, ''मनुष्य की अग्नि बुझी-बुझी जलती है और इसलिए वह स्वयं की आत्मा के ही समक्ष भी अत्यंत हीनता में जीता है।''
इस हीनता से ऊपर उठना अत्यंत आवश्यक है। अपने ही हाथों दीन-हीन बने रहने से बड़ा कोई पाप नहीं। भूमि खोदने से जल-स्रोत मिलते हैं, ऐसे ही जो स्वयं में खोदना सीख जाते हैं, वे स्वयं में ही छिपे अनंत शक्ति-स्रोतों को उपलब्ध होते हैं। किंतु उसके लिए सक्रिय और स्रजनात्मक होना होगा। जिसे स्वयं की पूर्णता को पाना है, वह- जबकि दूसरे विचार ही करते रहते हैं- विधायक रूप में सक्रिय हो जाता है। वह जो थोड़ा सा जानता है, उसे ही पहले क्रिया में परिणत कर लेता है। वह बहुत जानने को नहीं रुकता। और, इस भांति एक-एक कुदाली चलाकर वह स्वयं में शक्ति का कुंआ खोद लेता है, जबकि मात्र विचार करने वाले बैठे ही रह जाते हैं। विधायक सक्रियता और स्रजनात्मक से ही सोई शक्तियां जाग्रत होती हैं और व्यक्ति अधिक से अधिक जीवित बनता है। जो व्यक्ति अपनी पूर्ण संभावित शक्तियों को सक्रिय कर लेता है, वही पूरे जीवन का अनुभव कर पाता है और वही आत्मा का भी अनुभव करता है। क्योंकि, स्वयं की समस्त संभावनाओं के वास्तविक बन जाने पर जो अनुभूति होती है, वही आत्मा है।
विचार पर ही मत रुके रहो। चलो- और कुछ करो। हजार मील चलने के विचार करने से एक कदम चलना भी ज्यादा मूल्यवान है, क्योंकि वह कहीं तो पहुंचता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)